श्री दुर्गा सप्तशती- आचार्य सदानंद – समीक्षा & छन्द 2
श्री दुर्गायन" दर असल श्री दुर्गा सप्तशती का छन्द अनुवाद है जो आचार्य सदानंद द्वारा किया गया है । इसके प्रकाशक शाक्त साधना पीठ कल्याण मंदिर प्रकाशन अलोपी बाग मार्ग इलाहाबाद 6, थे। यह जुलाई 1987 में प्रकाशित की गई थी ।तब इसका मूल्य ₹10 रखा गया था। अब यह पुस्तक अप्राप्त है ।
पुस्तक के अनुक्रम में कुल 21 बिंदु रखे गए हैं। सबसे पहले श्रीपाद मुक्तानंद जी का आशीर्वाद है। सप्त श्लोकी दुर्गा' अर्गला स्तोत्र, कीलक स्तोत्र, श्रीदेवी कवच, रात्रि सूक्त के बाद पहले से 13 वे तक अध्याय लिखे गए हैं। अंत में देवी सूक्त और क्षमा प्रार्थना शामिल की गई है। भूमिका में श्रीपाद मुक्तानंद जी लिखते हैं कि सदानंद जी ने एम ए हिंदी साहित्य से किया है। साहित्य रत्न किया है और कवि रत्न भी किया है । इसलिए उनकी भाषा और व्याकरण में गहरी रुचि और गति है। दुर्गा सप्तशती के अनुवाद के पदों की भाषा संस्कृत निष्ठ होने के बाद भी लालित्य पूर्ण है। कहीं भी जटिलता और कठिनाई महसूस नहीं होती है। संस्कृत निष्ठ भाषा होते हुए भी यह भाषा आम आदमी की समझ में आ जाएगी। सबसे बड़ी बात यह है कि कठिन श्लोक का सरलतम अनुवाद श्री सदानंद जी ने किया है। हिंदी साहित्य सदानंद जी का बड़ा आभारी रहेगा। यह पुस्तक जब से पढ़ी है। अनेकों बार समीक्षक ने इसका अध्ययन किया है और कहीं भी कोई त्रुटि महसूस नहीं होती है। इस पुस्तक के समीक्षा के प्रमाण में कुछ अध्याय और पद प्रस्तुत किए जा रहे हैं।
।। श्री दुर्गायै नमः ।।
प्रथम चरित : पहला अध्याय
[ मधु और कैटभ का संहार]
विनियोग-
इस प्रथम चरित के ऋषि ब्रह्मा, छन्द गायत्री, देवता महा-काली, शक्ति नन्दा, बीज रक्त-दन्तिका, तत्व अग्नि, स्वरूप ऋग्वेद और प्रथम चरित के पाठ का विनियोग श्री महाकाली की प्रसन्नता के लिये है।
ध्यान
ॐ मधु कैटभ संहार - हेतु,
निद्रित हरि निरख, विधाता वन्दित ।
महा-कालिका दश-मुख-पद-
शोभित नव-नील कलेवर ज्योतित ।।
अङ्ग अङ्गः शआभूषित, दश-भुज -खड्ग, चक्र, धनु, वाण, शूल-युत । गदा, शङ्खः, नर-मुण्ड, भुशुण्डी, परिघ, नैन-त्रय, हों आराधित ।।
।। ॐ नमश्चण्डिकायै ।।
॥ ॐ ऐं मार्कण्डेय कथन ।।१।।
अष्टम मनु कहलाते हैं जो,
सूर्य-पुत्र सावर्णि सनातन ।
उनके उद्भव का विस्तृत,
इतिहास सुनाता, सुनो पुरातन ॥२
सुना रहा हूँ वह प्रसङ्गः, जिस -भाँति अम्बिका करुणा पाकर ।
महा-भाग सावर्णि सूर्य - सुत,
कैसे हुए अधिप मन्वन्तर ।। ३
स्वारोचिष नामक मन्वन्तर-का
है यह इतिहास मनोहर ।
सुरथ नरेश चैत्र कुल के थे,
एक मात्र भू अखिल नरेश्वर ।।४
प्रजा पुत्र - वत् पाली यद्यपि, नृपति-श्रेष्ठ ने धर्म नीति धर ।
फिर भी कोला-ध्वंसी क्षत्रिय,
शत्रु हो गये किसी हेतु पर ॥५
प्रबल दण्ड-नय-धारी नृप ने,
शत्रु - वर्ग से युद्ध किया, पर-
अल्प कोल विध्वंसी दल ने,
नृप से विजय प्राप्त की सत्वर ।।६
सुरथ लौट आए निज पुर में,
देश बचा था उनका शासन ।
किन्तु प्रबल रिपु-दल ने आकर, युद्ध रचा, कर घोर आक्रमण ।।७
धूर्त दुरात्मा-बली सचिव जो,
थे अशक्त नर पति के अनुगत ।
बन बैठे नृप - सम, कालोचित
देख, कोष सेना कर अपहृत ।।८
एकाकी निराश भूपति तब,
नष्ट प्रभुत्व देखकर जागे ।
मृगया के मिस हयारूढ हो,
घोर विपिन की दिशि को भागे ॥ ९
वन में विप्र-शिरोमणि मेधा का, शुचि आश्रम पड़ा दिखाई ।
जहाँ अहिंसक वन्य जीव थे,
मुनि शिष्यों की शोभा छाई ।।१०
इस आश्रम में सुरथ नृपति ने, मुनि-वर का स्वागत स्वीकारा ।
शान्ति - लाभ हित कुछ दिन,
ठहरे वन-निवास में मिला सहारा ॥११
पर अशान्त अन्तर ममताकुल, राजा वहाँ सोचते निशि - दिन ।
"आह ! पूर्वजों से प्रतिपालित,
मेरा राज नगर मेरे बिन-॥१२
नीति-हीन सचिवों के द्वारा,
कैसे होता होगा पालित ?
वह मेरा मद-विह्वल-दुर्जय,
प्रमुख राज-गज मुझसे विरहित-॥१३
मेरे शत्रु - पक्ष से अधिकृत,
किसे पता, हो सुख से वंचित !
तथा सभी वे अनुचर मेरे,
आश्रित थे, धन - वैभव - पूरित ।।१४
सम्भव है, अब अनुगत होंगे,
अन्य भूप के वे सब निश्चित !
मेरा राज-कोष जो मैंने किया, अनेक कष्ट सह संचित ।।१५
हो जायेगा रिक्त शीघ्र ही, अप-व्यय-कर्ता जन से अधिकृत ।
इस प्रकार की चित्त-वृत्ति से,
भूपति का मन था आन्दोलित ॥१६
एक दिवस आश्रम-वन-चारी,
एक वैश्य को नृप ने देखा ।
लगे पूछने- "बन्धु कौन हो, किस कारण ली वन पथ रेखा ॥१७
शोक - ग्रस्त से, मुरझाये से, क्यों हो तुम दिखलाई देते ?"
प्रीति-पूर्ण मृदु वचनों का रस, अपने कर्ण रन्ध्र में लेते 11१८
अति विनीत हो नमस्कार कर,
दिया वैश्य ने तब प्रति - उत्तर ।।१६
वैश्य कथन ॥२०॥
"राजन् ! धनिक वंश का दीपक, वैश्य समाधि नाम मैं अनुचर ॥२१
कुटिल हृदय के मेरे अपने,
सुत - दारा ने होकर निर्मम ।
द्रव्य-लोभ से, गृह-निष्कासित -
मुझे किया, मैं रहित पराक्रम ॥२२
वंचित, अपमानित, निष्कासित, आप्त - वर्ग से हो उत्पीड़ित ।
वन - वासी मैं हुआ, किन्तु,
मेरा मन रहता प्रति-क्षण चिन्तित ॥२३
नहीं जानता, मेरे निज आत्मीय,पुत्र - दारा आदिक जन ।
सुख से हैं या दुःख से हैं, किस स्थिति में हैं सब, आकुल मन ।।२४
भूल गये हैं सदाचार वे, अथवा हैं आचार - युक्त अब" ।।२५
सुरथ कथन ॥ २६।।
"महदाश्चर्य बन्धु ! कैसे, उन आत्मीयों से स्नेह रहा जब ॥२७
द्रव्य-लोभ से जिन लोगों ने, तुम्हें किया गृह से निष्कासित ।॥२८
वैश्य कथन ॥२९।।
"राजन् ! ठीक आप कहते हैं, सचमुच मैं हूँ उनसे पीड़ित ॥३०
कितु करूँ क्या, मेरा अन्तर,
कर न सका निष्ठुरता धारण ।
जिन पुत्रों ने पितृ-स्नेह ठुकराया, लोभ - विवश धन कारण ।।३१
जिस रमणी ने पति को त्यागा,
वे आत्मीय छली औ लोभी ।
फिर भी उनकी स्मृति में डूबा हूँ मैं, कारण हो कुछ जो भी ॥३२
महा-भाग ! मैं जान न पाता,
क्यों होता मेरा मन विह्वल ?
निश्वासें क्यों आ-आ जातीं,
हृदय उमड़ आता, हो चंचल ॥३३
वे सब निष्ठुर प्रीति-हीन हैं, फिर भी हृदय कठोर न होता" ।।३४
श्री मार्कण्डेय कथन ॥३५॥
ब्रह्मन् ! परिचय पा दोनों तब,
ऋषि के निकट चले बन श्रोता ।।३६
वह राजेश्वर सुरथ और यह, वैश्य समाधि युगल दुखियारे ।
मुनि के सम्मुख पहुँच नीति से, दोनों विनत हुए बेचारे ॥३७
सादर बैठाया मुनि-वर ने, प्रश्न किया नृप ने कर वन्दन ।।३८
सुरथ कथन ॥३९॥
"भगवन् ! निराकरण शंका का करें, शरण हैं हम आकुल मन ॥४०
मेरा चित्त निरन्तर व्याकुल,
मन पीड़ा से भर - भर आता ।
नष्ट राज्य हो चुका किन्तु,
अब भी उससे ममता का नाता ।।४१
मुनि-वर ! वह है स्पष्ट पराया, फिर भी मैं अज्ञान दुखी क्यों ?
और, वैश्य यह गृह - निष्कासित, कुटिलों को निज मान दुखी क्यों ? ।।४२
इसका पत्नी-पुत्र-भृत्य - से, स्वजनों ने परित्याग किया, परー
यह उनके प्रति फिर भी स्नेहिल, क्यों विह्वल दोनों का अन्तर ?।।४३
जिन विषयों में हम दोनों ने, दोष निहारा औ दुख पाया ।
फिर भी ममता का आकर्षण क्यों, उनके प्रति उर में छाया ? ।।४४
महा-भाग ! हम विज्ञ, अनुभवो, फिर क्यों यह है मोह मूढ़ता ?"।।४५
श्री ऋषि कथन ॥ ४६ ॥
"राजन् ! विषय-मार्ग अति परिचित, सब जीवों का, किन्तु गूढ़ता ॥४७
और साथ ही पृथक-पृथक हैं, विषय प्राणियों के जग छाये ।
कुछ प्राणी हैं जो दिवान्ध हैं, कुछ निशान्ध गणना में आये ॥४८
भुवन भरे हैं ऐसे प्राणी, तुल्य - दृष्टि के दिवा - निशा में ।
मानव ज्ञानी सत्य, किन्तु वह, नहीं अकेला ज्ञान - दिशा में ।।४९
पशु, पक्षी, मृग आदि जीव भी, बुद्धि - ज्ञान रखते हैं सारे ।
मानव ज्ञानी उसी तरह का, जिस प्रकार ये जीव बेचारे ॥५०
जैसी समझ मनुज रखता है, पशु - पक्षी भी वैसी रखते ।
खग-वृन्दों के ज्ञान-बुद्धि की, क्रिया आप हैं सभी निरखते ॥५१
स्वयं क्षुधा - पीड़ित ये खग, निज शावक के मुख डाल अन्न-कण ।
कितने मुदित मोह - पीड़ित, जैसे मानव का साभिलाष मन ।।५२
समझदार मानव लोलुप हो, प्रत्युपकार - प्राप्ति अभिलाषित ।
पुत्रों की आशा करते हैं, कुछ न समझते ममता-पीड़ित ।।५३
ये मति - हीन नहीं सारे, पर
विवश बने हैं, क्या विस्मय है !
विश्व-स्थिति-कारण जग-माया-
का प्रभाव युग-युग अक्षय है ।।५४
श्रीहरि की जो यौगिक निद्रा,
वही महा - माया जग - मोहन ।
देवी वे भगवती चित्त ज्ञानी -जन के भी कर आकर्षण ।।५५
बल-पूर्वक हैं मोह - पाश में, देतीं बाँध महा - माया बन ।
जग-माया वे स्वयं भगवती, क्रिया नित्य सर्जन - सम्मोहन ॥५६
जो प्रसन्न हो भक्तों को, वर दान मोक्ष का देतीं तत्क्षण ।
वे अम्बा हैं मुक्ति - हेतु, परमा विद्या सर्वोच्च सनातन ।।५७
वे संसार - बन्ध की कारण, सब विभुओं की स्वयं अधीश्वर" ।।५८
सुरथ कथन ।।५९।।
- "भगवन् ! महा-मोह की कारण, हैं वे देवी कौन कहाँ पर ॥६०
कृपया कहिये देव ! किस तरह, हुई अवतरित देवि सनातन !
उनके चरित प्रभाव रूप आदिक, सुनने को है उत्सुक मन ।। ६१
ब्रह्म-ज्ञान-पटु सुनि-वर ! कहिये, मैं यह सब सुनने को आकुल ॥६२
श्री ऋषि कथन ॥६३।।
"राजन् ! वे हैं नित्य स्वरूपी, जग उनका है रूप समुज्ज्वल ।।६४
यद्यपि उनमें विश्व व्याप्त है, पर अवतरित अनेक रीति से ।
सुनिये ! जब वे हो जाती हैं, देव - कार्य सिद्धयर्थ नीति से ।।६५
तब वे नित्य अजन्मा जननी, लोकोत्पन्न कहाने लगतीं ।
कल्प अन्त में एकार्णव में, मग्न, शून्य हो जाती जगती ।।६६
जब प्रभु विष्णु योग-निद्रा का, आश्रय लेकर शेष-सेज पर ।
सोये थे, उस समय कर्ण-मल, से प्रगटित दो हुए निशाचर ।।६७
मधु कैटभ नामी वे दुर्जय, ख्यात शक्ति - शाली रजनी-चर ।
नाभि-कमल स्थित ब्रह्म-देव का, वध करने के हित थे तत्पर ।। ६८
ब्रह्मा ने स्थिति देखी निद्रित, विष्णु निकट आ रहे निशा-चर ।
क्षण में निर्णय किया और, एकाग्र - हृदय हो बैठे सत्वर ।। ६६
विष्णु-नयन आसीन योग-निद्रा, को तुष्टि हेतु कर वन्दन ।
विश्वेश्वरी जगद्धात्री का किया, स्तवन हित विष्णु जागरण ।।७०
विश्व-सृजन संहार-कारिणी, विष्णु-तेज अनुपम जग - माया ।।७१
श्री ब्रह्ना कथन ॥७२।।
वरदे ! स्वाहा, स्वधा और स्वर, वषट्-कार तू ही है माया ।।७३
तू है सुधा, प्रणव है तू ही, तू ही बिन्दु - रूप है मन-हर ।
नित्य स्वरूप अनुच्चारित, जो तत्व अरूप रूप शोभा-पर ।।७४
तू संध्या तू ही सावित्री, तू ही परम जननि जगदम्बा ।
विश्व - धारिणी तू ही है माँ, विश्व - सृजनि तू ही है अम्बा ॥७५
तू ही जग का पालन करती, तुझमें होता विश्व विलय है।
सृष्टा बन तू सर्जन करती, स्थिति - स्वरूप होता प्रश्रय है ।॥७६
जगन्मयी ! संहार - रूप धर, कर देतीं इस जगती का क्षय ।
महा महा - विद्या औ माया, महा महा - मेधा, स्मृति जय जय ॥७७
महा-देवि ! तू महा-मोह औ, महेश्वरी तू ही है माता ।
तू ही प्रकृति, सभी की जननी, त्रिगुणों की तू ही है दाता ॥७८
काल-रात्रि तू, महा-रात्रि तू, मोह-रात्रि तू ही है दारुण ।
तू श्री, तू ईश्वरी और ह्रीम, तू ही बोध बुद्धि का कारण ॥७९
लज्जा तू, तू पुष्टि, तुष्टि तू, तू हो शान्ति, क्षमा, करुणा घन ।
खड्ग, शूल औ गदा, चक्र को, कर धारण भीषण जाती बन ॥८०
शङ्ख, धनुष औ बाण, भुशुण्डी, तथा परिघ से आयुध लेकर ।
अति सौम्या तू अखिल विश्व में, माँ तू ही है परम रूप धर ।।८१
पर औ अपर परे इन सबसे, तू परमेश्वरि महा - महत्तम ।
जग में जो भी, जहाँ कहीं भी, सत औ असत वस्तु का विभ्रम ॥८२
उन सबमें जो शक्ति यही तू, फिर कैसे हो तेरा वन्दन ?
जो श्रीहरि जग-सृष्टा पालक, औ विनाश के हैं जो कारण ॥८३
वे तेरे अधीन निद्रा-वश, स्तुति - सामर्थ्य भला किसमें तब ?
तूने ही मेरी, हरि की, शिव की, रचना की, कौन कहे कब ।।८४
कौन शक्ति - धारी है जग में, तेरे पूर्ण स्तवन में सक्षम ?
तू जगदम्ब ! प्रशंसित है, तेरे उदार भावों में अनुपम ॥ ८५
देवि ! डाल दे इन्हें मोह में, ये दोनों मधु - कैटभ दुर्धर ।
एवं श्रीहरि जग-स्वामी को, जागृत कर दे माँ ! तू सत्वर ।।८६
इन असुरों के त्वरित नाश हित, कर तू विष्णु - बुद्धि को प्रेरित ।।८७
श्री ऋषि कथन ।॥८८॥
राजन् ! इस प्रकार ब्रह्मा से, हुई योग - निद्रा मां वन्दित ॥ ८६
विष्णु जागरण असुर-नाश-हित, यों अभि-वन्दित होकर उस क्षण ।
हरि के नेत्र, नासिका, उर, भुज, मुख से विलग हुईं वे तत्क्षण ।।९०
निकल हो गईं दृग-पथ सम्मुख, खड़ी, विधाता देख विकम्पित ।
मुक्त योग - निद्रा से होकर, खड़े हो गये तत्क्षण जग-पति ।।९१
एकार्णव को शेष - सेज से, उठे विष्णु, असुरों को देखा ।
दुष्टात्मा मधु - कैटभ दुर्धर, शक्ति - शौर्य - संयुत मुख - रेखा ॥९२
देखा हरि ने, रक्त-नयन, क्रोधान्ध निशाचर दोनों तत्पर ।
विधि को सङ्कट-ग्रस्त निरख, समरोद्यत होकर झपटे श्रीवर ॥९३
बाहु-युद्ध ! संलग्न हुये हरि, पाँच सहस्र वर्ष तक अविरत ।
बलोन्मत्त माया - सम्मोहित, मधु - कैटभ थे रण - क्रीड़ा रत ॥९४
माया - वश वे बोले हरि से, 'वर माँगो, हम तुष्ट हुए अति' ॥९५
श
श्री भगवान् कथन ।।९६।।
"स्वतः तुष्ट हो यदि मुझसे, तो-मेरे हाथों लो अन्तिम गति ।।९७
केवल, होवे मरण तुम्हारा, मुझको यही एक वर ईप्सित" ।। ९८
श्री ऋषि कथन ॥९९।।
वचन-बद्ध हो दोनों निशि-चर, लगे देखने होकर चिन्तित ।।१००
अखिल विश्व में जल-ही-जल पा, हरि से बोले युगल निशाचर ।
"बध कर सकते हो दोनों का, सलिल-रहित सूखा थल पाकर ।।१०१
श्री ऋषि कथन ।।१०२।।
"गदा - शङ्ख- धारी चक्री ने, निज जङ्घा के शुष्क - स्थल पर ।
रख दोनों के मस्तक क्षण में, छिन्न किये ले चक्र भयङ्कर ।।१०३
इस प्रकार ब्रह्मा की स्तुति पर, समुत्पन्न जो हुई भवानी ।
उन जगदम्बा के प्रभाव की, राजन् ! गाथा सुनें पुरानी" ।।१०४॥
।। इति पहला अध्याय ।।
मध्यम चरित : दूसरा अध्याय
[ सेना-सहित महिषासुर का संहार ]
विनियोग: इस मध्यम चरित के ऋषि विष्णु, छन्द उष्णिक, देवता महा-लक्ष्मी, शक्ति शाकम्भरी, बीज दुर्गा, तत्व वायु, स्वरूप यजुर्वेद और मध्यम चरित के पाठ का विनियोग श्रीमहा-लक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये है।
ध्यान
जिनके दिव्य करों में शोभित, अक्ष-माल, शर, गदा, परशु खर ।
वज्र, पद्म, धनु, दण्ड, कुण्डिका, शक्ति, खड्ग, दृढ़ ढाल, शङ्खः वर ।
घण्टा, सुरा - पात्र शूलक औ, पाश, चक्र, आनन प्रसन्न धर ।
मैं हूँ विनत महा-लक्ष्मी पद, महिष - दलनि अरविन्दासन पर ।।
ॐ ह्रीं ॐ
श्री ऋषि कथन ।।१।।
पूर्व-काल में देवासुर में, युद्ध हुआ पूरे सौ वर्ष ।
दानवेश महिषासुर औ, देवेश इन्द्र का था सङ्घर्ष ॥२
उस रण में सुर-सेन पराजित, हुई प्रबल असुरों के हाथ ।
देव - पराजय होने पर, महिषासुर स्वयं बना सुर-नाथ ॥३
विजित देव-गण व्याकुल होकर, लेकर ब्रह्म - देव को साथ ।
गये जहाँ थे कैलाशी शिव, तथा गरुड़ - वाहन श्री-नाथ ॥४
दोनों देवेश्वर को सारा, सुना दिया पिछला इतिहास ।
महिषासुर का विक्रम, रण में, देव - पराजय निर्मित -त्रास ।।५
कहने लगे "प्रभो ! महिषासुर -ने छीना सबका अधिकार ।
सूर्य, इन्द्र, शशि, अग्नि, पवन, यम, वरुण सभी बनकर दुर्वार ।।६
सब देवों को स्वर्ग - लोक से, निष्कासित कर डाला और ।
अब वे विचरण करते भू पर, जैसे मनुज ढूंढ़ते ठौर ॥७
असुरों की यह दुष्कृति है अब, हमें शरण अपनी में जान ।
महिषासुर के नाश हेतु प्रभु ! सोचें कोई उचित विधान" ।॥८
देवों की वाणी सुन श्रीहरि, हर को आया कोप दुरन्त ।
भुकुटी कुटिल हुई आनन पर, छाया भीषण भाव तुरन्त ॥६
अति क्रोधित श्रीहरि के मुख से, सहसा निकला तेज महान ।
विधि-शिव-मुख से भी निस्सृत तब, हुआ तेज अतिशय द्युतिमान ।।१०
इन्द्र आदि देवों के मुख से, महत्तेज की निकली धार ।
सब देवों का तेज एक हो, पुञ्जीभूत हुआ साकार
अतिशय ज्योति-पूर्ण वह संग्रह, पावक - गिरि - जैसा विकराल ।
देखी देव - गणों ने सम्मुख, दिग् - दिगन्त तक ज्वाला - माल ।।१२
अतुलनीय वह महत्तेज का, देव शरीरज ज्योति स्तूप ।
होकर सघन त्रिलोक प्रकाशित, बना दिव्य नारी का रूप ।।१३
प्रलयङ्कर के रुद्र तेज से, देवी - मुख - आकृति उद्भूत ।
यम से केश, भुजा श्रीहरि के, महत्तेज से हुई प्रसूत 11१४
चन्द्र - तेज से बने पयोधर, इन्द्र तेज से उदर प्रदेश ।
वरुण-तेज निर्मित जङ्घा,
उरु, औ नितम्ब महि - तेज विशेष ।।१५
ब्रह्म - तेज से चरण - युग्म, चरणांगुलि निर्मित भास्कर - तेज ।
कुबेरांश से विमल नासिका, हस्तांगुलि उद्भव वसु - तेज ॥१६
तत्क्षण दशन हुये द्युति - मय, तेजांश प्रजापति से सम्भूत ।
अग्नि-तेज से नेत्र - त्रय की, प्रकटी प्रभा प्रभाव प्रभूत।१७
भृकुटी सन्ध्या अंश समुद्भव, पवन तेज से कर्ण प्रसूत ।
इसी तरह सब देवों के, तेजांश विनिर्मित देवी पूत ॥१८
तेज - पुंज निस्सृत देवी का, दिव्य स्वरूप देख साकार ।
महिषासुर-पीड़ित सुर - गण, आमोदित उर में हुये अपार ।।१६
तब पिनाक-पति ने त्रिशूल से, खींच त्रिशूल किया अर्पित ।
चक्र दिया श्रीहरि ने निज के, चक्र मध्य से कर कर्षित ॥२०
शङ्ख भेंट में दिया वरुण ने, पावक ने की शक्ति प्रदान ।
दिव्य धनुष के साथ पवन ने, दिये निषङ्ग - युगल युत बाण ॥२१
कर प्रसूत निज कुलिश-अंश से, एक वज्र , देकर भीषण ।
देव-राज ने ऐरावत का, घण्टा एक किया अर्पण ॥२२
यम ने काल दण्ड देर डाला, और वरुण ने भीषण पाश ।
माल प्रजा-पति ने दी, विधि ने-दिया कमण्डल पाप विनाश ॥२३
सहस्रांशु ने दिव्य रश्मियाँ, रोम - कूप सबमें दीं डाल ।
काल-देव ने किया सर्मापत, दिव्य खड्ग औ' उज्ज्वल ढाल ।।२४
महा - देवि की क्षीरोदधि ने, दिव्य वसन दो किये प्रदान ।
उज्ज्वल हार, शुभ्र-कुण्डल, चूड़ामणि कड़े सहित सम्मान ।।२५
ज्योतित अर्ध-चन्द्र, सित-नूपुर, बाहु हेतु केयूर अमोल ।
दिव्य ग्रीव आभूषण सुन्दर, रत्न जटिल सालंकृत लोल ॥२६
मणि विरचित अति दिव्य, मुद्रिकाएँ भी दीं संयुत सम्मान ।
अतिशय निर्मल परशु भेंट में, दिया विश्व - कर्मा ने आन ॥२७
और अनेक अस्त्र देसादर,
दिया अभेद्य कवच भी साथ ।
वक्षः स्थल धारण हित, चिर अम्लान कमल माला दी हाथ ।।२८
जल-निधि ने आ महा-देवि को, दिया दिव्य सरसिज अम्लान ।
हिम-गिरि ले आये वाहन, वन-राज और गिरि रत्न महान ॥ २६
नित्य-प्रपूरित मधु से ऐसा, मिला धनाधिप द्वारा पात्र ।
शेष-नाग नागेश भेंट में, लाये नाग हार मणि-गात्र ॥३०
इसी तरह से अन्य सुरों ने,
भूषण आयुध किये प्रदान ।
सालँकृत कर महा-देवि को, कर जय-नाद किया सम्मान ।।३१
अट्टहास कर पुनः पुनः, अम्बा ने गर्जन किया कराल ।
तड़ित-पात सम वज्र-नाद से, आपूरित नभ हुआ विशाल ॥३२
कहीं न छा पाया गर्जन रव, प्रति-ध्वनि छाई घोर कठोर ।
विक्षोभित ब्रह्माण्ड हुआ, सागर आन्दोलित अमित हिलोर ॥३३
वसुधा प्रति-कंपित सब भूधर, दोलित क्षोभित अग-जग म्लान ।
सिंह-वाहिनी की जय-जय कर, हुआ देव-गण मुदित महान ।।३४
ऋषियों ने अति भक्ति-भाव से, स्तवन किया श्री-चरण विनीत ।
देखा-असुरों ने त्रि-लोक को, क्षोभ-ग्रस्त औ' अतिशय भीत ।।३५
हुये दैत्य सन्नद्ध सैन्य सज, निज-निज आयुध लेकर हाथ ।
'आह, हो रहा है यह क्या, गरजा महिषासुर निशि-चर-नाथ ।।३६
सिंह-नाद की ओर लक्ष्य कर, झपटा असुर चमू के सङ्ग ।
देखी सिंह - वाहिनी अम्बा, प्रभा त्रिलोक ज्योति-मय अङ्गः ॥३७
चरण-भार से विनत धरित्री, शीस किरीट रेख आकाश ।
प्रत्यंचा निर्घोष र प्रकम्पित ॥
इसे पाताल रहे निःश्वास ॥३८
सभी दिशाएँ भुज-अगणित से आच्छादित देखीं विकराल ।
रणोन्मत्त दानव यों झपटे ज्यों पतंग लख ज्वाला-माल ।।३६
नाना आयुध के प्रहार से उद्भासित हो उठा दिगन्त ।
'चिक्षुर' महिषासुर सेना-पति, हुआ युद्ध-रत गर्व अनन्त ।।४०
संबल चतुरंगिणि सेना का, ले दानव 'चामर' बलवान ।
षष्ठ सहस्र रथी गण ले, आया 'उदग्र' दनुजेश प्रधान ।।४१
एक कोटि रथ बल संयुत, आया असुरेश 'महा-हनु' वीर ।
'असि-लोमा' बल पाँच कोटि ले, आया युद्ध - क्षेत्र में धीर ॥४२
'वाष्कल' साठ लाख रथ लेकर, लगा मचाने भीषण युद्ध ।
'परिवारित' ले कोटि-कोटि रथ, गज असंख्य हय रण में क्रुद्ध ॥४३
सेना-पति 'विडाल' अति भीषण, पाँच अरब रथ बल ले सङ्ग ।
लगा भयानक युद्ध मचाने, क्रोध - वन्त छाया रण - रङ्ग ।।४४
अन्य सहस्रों महा - दैत्य, रथ गज हय की सेना के साथ ।
महा-देवि से रण करने आये, लेले निज आयुध हाथ ।।४५
कोटि-कोटि रथियों की सेना, कोटि - कोटि हय गज बलवान ।
घेरे महिषासुर को तत्पर, दानवेश के अनुग प्रधान ॥४६
रण दुर्मद महिषासुर ने तब, दिया आक्रमण का आदेश ।
करने लगे प्रहार दनुज सब, देवी के तन शस्त्र विशेष ।।४७
तोमर भिन्दि-पाल मूशल खर, शक्ति, खङ्ग, फरसे के वार ।
पट्टिश, आयुध से कर डाले, दानव दल ने कोटि प्रहार ॥४८
शक्ति किसी ने, पाश किसी ने, फेंके महा- देवि की ओर ।
तथा किसी ने तीक्ष्ण खड्ग का, कर प्रहार दिखलाया जोर ॥४६
लीला-मयि अम्बा ने क्षण में, निज आयुध से किये प्रहार ।
क्रीड़ा-सदृश सभी शस्त्रों के, काट गिराये भीषण वार ।।५०
देव-वृन्द ऋषि-वृन्द स्तवन-रत, श्रीमुख शोभा थी श्रम - हीन ।
महा - देवि दुर्गा थी रण में, अस्त्र शस्त्र वर्षण तल्लीन ।।५१
दुर्गा-वाहन दिव्य केशरी, क्रोधोन्मद हो उठा दहाड़ ।
शत्रु-सैन्य में घुसा, चले ज्यों, कि वन में ज्वालामुखी पहाड़ ।।५२
समराङ्गण में जगदम्बा के प्रति प्रश्वास से हुए प्रसूत ।
शत-सहस्र-गण, राक्षस दल पर चढ़ चौड़े बनकर यम-दूत ।।५३
परशु, खड्ङ्ग, पट्टिश, वृ
दृढ़ आयुध भिन्दिपाल से कर संग्राम ।
देवी-शक्ति विधित ये गण, लगे शत्रु दल मोचन काम ।।५४
कुछ गण शङ्खः मृदङ्ग दुंदभी के वादन में थे तल्लीन ।
इधर महा - देवी थीं अविरत,॥ शत्रु विनाश - कार्य में लीन ॥५५
शूल, गदा, शर, शक्ति, खड्ग के, क्षण में शत-शत किये प्रहार ।
भीषण घण्टा-नाद विमूर्छित, किये अनेक दैत्य संहार ।।५६
अगणित बन्धित हुये घसीटे, गये देवि के भीषण पाश ।
अगणित तीक्ष्ण कृपाण बाण से, खण्ड - खण्ड हो हुये विनाश ॥५७
अगणित गदा-घात से आहत
हुए भू-पतित मृतक समान ।
अगणित मूशल के प्रहार से रक्त वमन करते गत प्राण ।।५८
अगणित शूल-बिद्ध क्षतविक्षत, गिरे भूमि हो कवलित काल ।
अगणित छिन्नोदर कटि निपतित, हुये वाण - वर्षा विकराल ।।५६
सुर-पीड़क दुर्दान्त दैत्य-दल,
झपटे अम्बा पर ज्यों बाज ।
किन्तु खो रहे प्राण-खण्ड हो,
छिन्न - ग्रीव, भुज आयुध साज ॥६०
मस्तक छिन्न गिरे कितने, कितने ही मृत थे उदर - विदीर्ण ।
कितने महा - दैत्य हैं सोये,
जंघा छिन्न - भिन्न हो शीर्ण ।।६१
चीर दिये चण्डी ने अगणित,
एक नेत्र पग बाहु विभाग ।
अगणित छिन्न कबन्ध गिरे उठ, रक्त वसा के झरते झाग ।।
कितने ही क्षत-शीस निशाचर, ले आयुध रण रत मैदान ।
कितने ही कबन्ध रण-वाद्यों-की लय पर नर्तित गति - मान ।।६३
शीस-हीन कर खड्ग, शक्ति ले, ऋष्टि दौड़ते कई कबन्ध ।
महा-दैत्य, ठहरो, ठहरो कह,
चण्डी को प्रचारते अन्ध ॥६४
विस्तृत समर-भूमि, आच्छादित, छिन्न-भिन्न रथ गज हय खण्ड ।
मृत असुरों के शव से पूरित, मार्ग रुद्ध भू हुई प्रचण्ड ॥६५
असुर सैन्य-शव मांस वसा का, भूधर सा फैला विकराल ।
शोणित की विशाल सरिताएँ, बहने लगीं वहाँ तत्काल ।। ६६
मां दुर्गा ने असुर - सैन्य का, क्षण में ध्वंस किया कर कोप ।
जैसे तृण औं' काष्ठ पुञ्ज को, वह्नि भस्म कर देती लोप ।।६७
आन्दोलित कर केशर गर्जित, क्रुद्ध युद्ध - रत था वन - राज ।
प्राण चयन करता विचरण कर, भय-पीड़ित था असुर - समाज ॥ ६८
देवी के गण दल ने भीषण, रण कौशल कर, दानव नाश-
किया, प्रसून-वृष्टि करते थे, छाये जो सुर - गण आकाश ॥६६ ।।
इति दूसरा अध्याय ।।
तीसरा अध्याय
[ सेना-सहित महिषासुर का बध ]
ध्यान
उदित सहस्रों भानु - सदृश, तन-कान्ति रेशमी रक्त आवरण ।
मुण्ड-माल ग्रीवा में, मलयज, -रक्त पयोधर चर्चित भूषण ।
माला, वर, विद्या, अरशभीति, मुद्रा-धारित त्रिनेत्र मुख-शोभन ।
सदा प्रणत हूँ महा - देवि ! शशि-मुकुट-धारिणी स्थिति-कमलासन ।।
श्री ऋषि कथन ।॥ १ ॥
महा-देवि के रोष अनल में, भस्मी - भूत हो रहे निशि - चर ।
देख ध्वंस क्रोधित हो दौड़ा, युद्ध हेतु सेना-पति चिक्षुर ॥२
महा-दैत्य चिक्षुर ने आकर, किया अम्बिका पर शर-वर्षण ।
ज्यों उत्तुङ्गः सुमेरु-शृङ्ग पर, भीषण वारि - वृष्टि कर दे घन ॥३
क्रीड़ा करते हुए देवि ने निज बाणों से रिपु सायक दल ।
काट गिराये हय सारथि भी जीवित फिर न रह सके दो पल ॥४
खण्डित उच्च ध्वजा कर रिपु की, छिन्न धनुष कर डाला सत्वर ।
महा-देवि के तीक्ष्ण शरों से, विद्ध हुआ प्रति अङ्ग निशा-चर ।।५
चाप-हीन, रथ-हीन असुर, अपने हय-रथ-सारथि को खोकर ।
ढाल कृपाण ग्रहण कर झपटा, महा-देवि की ओर कोप कर ॥६
तीक्ष्ण धार की असि से उसने, किया प्रहार सिंह के मस्तक ।
मां अम्बा की वाम-भुजा में, बड़े वेग से वार किया तक ।।७
राजन् ! स्पर्श बाहु का पाते-ही कृपाण शत-खण्ड हुई गिर ।
हो क्रोधान्ध, नयन रक्तिम कर, शूल उठाया चिक्षुर ने फिर ॥८
देवि भद्रकाली के ऊपर, फेंका शूल वेग परिपूरित ।
जैसे सूर्य अपर हो कोई, नभ प्रदेश में ज्वाला ज्योतित ।।९
देख शूल को निज त्रिशूल का-किया प्रहार देवि ने सस्मित ।
निज आयुध के साथ असुर भी, हो शत खण्ड हुआ भू लुण्ठित ।॥१०
महा-बली सेना-पति चिक्षुर-के मरने पर घोर निशाचर ।
देव - प्रपीड़क गजारूढ़ हो, रण - दुर्मद तब आया चामर ।।११
शक्ति कराल हाथ में लेकर, किया प्रहार असुर ने दुर्जय ।
केवल कर हुंकार देवि ने, गिरा शक्ति की निष्प्रभ निष्क्रिय ॥१२
शक्ति अमोघ विनष्ट देखकर, क्रोधोन्मद हो गया निशा - चर ।
शूल प्रहार किया, पर दुर्गा ने, काटा कर सन्धानित शर ।।१३
इसी समय गर्जन कर उछला, चढ़ा सिंह गज के मस्तक पर ।
बाहु-युद्ध मृग-राज और, चामर का होने लगा भयङ्कर ।।१४
दोनों गज से उछल भूमि पर, हुए युद्ध - रत अति ही भीषण ।
दोनों परम कुपित हो दारुण, वार परस्पर करते क्षण क्षण ।।१५
सहसा परम वेग से केशरि, कूदा नभ- पथ आया भू पर ।
'चामर' का मस्तक विदीर्ण कर, डाला नख पंजों से सत्वर ।।१६
अब आया 'उदग्र' भू-निपतित, हुआ शिला तरु से द्रुत आहत ।
फिर 'कराल' मृत हुआ देवि के, दन्त मुष्टिका से क्षत - विक्षत ॥१७
देवि - गदा के एक वार में, उद्धत दैत्य हुआ भू - शायित ।
वाष्कल ताम्र गिरे क्रमशः हो, भिन्दिपाल खर शर से खण्डित ।।१८
देवि त्रिनेत्रा श्री दुर्गा ने निज भीषण त्रिशूल से वेधित ।
किये महा - हनु उग्र - वीर्य, उग्रास्य नाम धारी सेना पति ।।१६
तुच्छ विडाल शीस असि खण्डित किया बढ़े तब दुर्मुख दुर्धर ।
दोनों को कराल विशिखों से, भेजा यम-पुर खण्ड - खण्ड कर ।।२०
देखा महिषासुर ने अपनी, सेना का संहार भयङ्कर ।
लेकर महिष-स्वरूप त्रसित कर-दिया देवि - गण दल को जर्जर ।।२१
मुख-प्रहार से कर कुछ आहत, खुर - क्षेप से कर संक्षोभित ।
पुच्छ-प्रहार - प्रपीड़ित कर कुछ, सींगों से कुछ किये विदीर्णित ॥२२
कुछ को वेग-त्रसित कुछ गण को, गर्जन - विचरण से कर कम्पित ।
कुछ गण को निश्वास-वायु से, किया धरा - शायी कर मूछित ॥२३
इस प्रकार गण-सेना को कर-दिया पराजित अतुलित विक्रम ।
झपटा मृग-पति करने आहत, कुपित हुई अम्बिका निरख क्रम ॥२४
महिषासुर ने रुद्र - कोप से, क्षुर - क्षुण्ण कर डाला भू- तल ।
उच्च भू-धरों को शृङ्गों से, फेंक गरज उठा भीषण बल ।।२५
उसकी उग्र वेग-मय गति से, संक्षोभित भू हुई विदीरित ।
पुच्छ - प्रहार मथित सागर, धरणी को लगा डुबोने दोलित ।।२६
भीम शृङ्ग के चपल-घात से शत-शत खण्ड हुए दल बादल ।
चण्ड प्रश्वास वेग से अगणित, भू-धर उड़ उड़ गिरते पल-पल ।।२७
उग्र वेग से आते सम्मुख, देखा क्रोधोन्मत्त निशाचर ।
देवि चण्डि ने रुद्र कोप कर,की दनुज नाश को होकर तत्पर ॥ २८
फेंका पाश कराल कर लिया, महिषासुर का सत्वर बंधन ।
पाश - बद्ध होने पर उसने, महिष-रूप तज किया प्रगर्जन ॥२६
तत्क्षण सिंह बना देवी भी, हुई शीस - छेदन को उद्यत ।
पलट स्वरूप खड्ग कर-धारी, पुरुष हो गया तेज - दीप्त द्रुत ॥३०
महा-देवि ने कर शर-वर्षण, ढाल - कृपाण युद्ध से अविरत ।
विद्ध किया मायावी को, वह-बना महा- गज रूप मदोन्मत ।।३१
शुण्ड विशाल प्रसारित कर वह, लगा सिंह को करने कर्षण ।
महा-देवि के असि-प्रहार से, शुण्ड छिन्न हो गई उसी क्षण ॥३२
किन्तु असुर फिर बना महिष द्रुत, वज्र-पात सम कर घन-गर्जन ।
अखिल विश्व कम्पित, त्रिलोक के स-चराचर का कर क्षोभित मन ॥३३
दानव-माया निरख चण्डिका, क्रोधित-अरुण नयन अति-शोभन ।
आसव पान लगीं करने, लीला-रत-विहंसित था दिव्यानन ।।३४
क्रोध अन्ध भीषण-बल-दानव, शक्ति - गर्व से मेघ - निनादित ।
वर्षा करने लगा शिखर-गिरि, निज शृङ्गों से कर उत्थापित ॥३५
करती हुई शरों से चूणित, महा-देवि शिखरों को उस क्षण ।
बोली वाणी थी, विह्वल था-
अरुणोत्पल मुख मद के कारण ॥३६
मूढ़ ! गरज ले और स्वल्प-क्षण, जब तक मैं मधु - पान क्रिया-रत ।
शीघ्र देव - गण भी गरजेंगे, निरख तुझे मेरे हाथों मृत ॥३८
श्री ऋषि कथन ॥३९॥
तडित्-वेग से देवि चण्डिका, उछलीं चढ़ीं दैत्य के ऊपर ।
चरण-भार से उसे दबा कर, किया त्रिशूलाघात कण्ठ पर ।।४०
पदाक्रान्त होने पर भी, दानव माहिष मुख से हो निर्गत ।
अन्य रूप धर लगा निकलने, महा-देवि ने वहीं किया स्थित ।।४१
दैत्य अर्ध प्रकटित आनन से, अति प्रचण्ड हो गया युद्ध-रत ।
ले कराल असि शीश काटकर, फेंक दिया देवी ने अद्भुत ।।४२
महिषासुर का मरण निरख, भागे सब दानव द्रुत हा हा कर ।
हुए प्रफुल्लित सारे सुर-गण, पुष्प - वृष्टि करते जय गाकर ।।४३
वर-दायिनि का स्तवन लगे, करने ऋषि-गण सुर अति आनन्दित ।
आ गन्धर्व लगीं लगे गायन में, अप्सरा होने नर्तित ॥४४
।। इति तीसरा अध्याय ।।