freedom from bondage in Hindi Motivational Stories by Dayanand Jadhav books and stories PDF | बंधन से मुक्ति

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बंधन से मुक्ति

"जीवन एक नदी की तरह है, अगर इसे बाँध दिया जाए तो यह सड़ जाती है।" राजेश की डायरी में लिखी यह पंक्तियाँ उसकी ज़िंदगी का सार बन गई थीं। सुबह का वक्त था, अभी पाँच बजे थे। दिल्ली की सर्द हवाएँ खिड़की से आकर उसके चेहरे को छू रही थीं। वह चाहता था कि थोड़ी देर और सो ले, लेकिन उसकी आंतरिक घड़ी ने उसे जगा दिया था।

बगल में मीरा गहरी नींद में थी। कल रात को वह देर तक बच्चों की परीक्षा की तैयारीकरवाती रही थी। राजेश ने धीरे से उठकर अपनी दिनचर्या शुरू कर दी। जॉगिंग के लिए तैयार होते हुए उसने खिड़की से बाहर देखा। सोसाइटी में कुछ लोग टहल रहे थे, सभी एक ही रफ़्तार में, एक ही दिशा में, जैसे कोई अदृश्य ताक़त उन्हें नियंत्रित कर रही हो।

 "हम सब किसी न किसी पिंजरे में क़ैद हैं, कुछ पिंजरे लोहे के हैं, और कुछ सामाजिक प्रथाओं के," मीरा की यह बात अक्सर उसके दिमाग़ में घूमती रहती। शायद वह सही थी। उनकी ज़िंदगी एक पैटर्न में बँध गई थी - सुबह जल्दी उठना, बच्चों को स्कूल भेजना, ऑफ़िस जाना, शाम को लौटना, बच्चों की पढ़ाई, डिनर, और फिर सोना। यह सचमुच"एक ही राग में बँधी हुई धुन" थी।

राजेश ने अपनी नौकरी में पिछले दस साल बिता दिए थे। एक मल्टीनेशनल कंपनी में सीनियर मैनेजर का पद, अच्छी सैलरी, और सम्मानजनक स्थिति। लेकिन क्या वह ख़ुश था? यह सवाल उसे अक्सर परेशान करता।

 एक सुबह ऑफ़िस में एक नई लड़की की एंट्री ने सब कुछ बदल दिया। निशा, जो बेंगलुरु से ट्रांसफ़र होकर आई थी, उसमें कुछ अलग था। जब सभी लोग रात आठ-नौ बजे तक ऑफ़िस में बैठे रहते, वह ठीक छह बजे अपना लैपटॉप बंद कर देती। "ज़िंदगी बहुत छोटी हैइसे दूसरों की उम्मीदों पर जीने के लिए," उसका यह वाक्य ऑफ़िस में चर्चा का विषय बन गया।

 "तुम इतनी जल्दी चली जाती हो, काम कैसे पूरा होता है?" एक दिन राजेश ने पूछा।

 निशा ने मुस्कुराकर जवाब दिया, "मैं समय का बेहतर इस्तेमाल करती हूँ। जब काम करती हूँ तो पूरी एकाग्रता से करती हूँ। फिर शाम को अपने लिए समय निकालती हूँ - पेंटिंग के लिए, संगीत के लिए, और अपने परिवार के लिए।"

 धीरे-धीरे निशा की बातें राजेश के दिमाग़ में घर करने लगीं। "क्या हम वाक़ई में जी रहे हैं, या सिर्फ़ जीने का नाटक कर रहे हैं?" यह सवाल उसे रात में सोने नहीं देता।

 एक शाम, जब वह देर से घर लौट रहा था, उसने देखा कि उसका बेटा आदित्य बालकनी में अकेलाबैठा है। "क्या हुआ बेटा?" उसने पूछा।

 "पापा,आज मेरा बास्केटबॉल मैच था। मैंने विनिंग शॉट मारा। मैं चाहता था कि आप वहाँ होते..." आदित्य की आवाज़ में निराशा थी।

 उस रात राजेश सो नहीं पाया। उसने मीरा से बात की। "मैं सोचता हूँ कि हमें कुछ बदलाव करने की ज़रूरत है।"

 मीरा ने उसकी तरफ़ देखा। "मैं भी यही सोच रही थी। कल सोनल की मम्मी कह रही थीं कि हमें बच्चों को और ट्यूशन भेजना चाहिए। लेकिन मुझे लगता है कि बच्चे पहले से ही बहुत दबाव में हैं।"

 अगले दिन राजेश ने एक बड़ा फ़ैसला लिया। "मैं अपनी ज़िंदगी का मालिक ख़ुद हूँ, कोई और नहीं," उसने ख़ुद से कहा और अपने बॉस से मिलने चला गया। "सर, मैं रात को देर तक नहीं रुक सकता। मेरे बच्चों को मेरी ज़रूरत है।"

 उसके बॉस ने उसे ग़ौर से देखा। "राजेश, तुम हमारे बेस्ट परफ़ॉर्मर्स में से एक हो। लेकिन मैं समझता हूँ। कल मेरी बेटी की शादी है, और मैं महसूस कर रहा हूँ कि मैंने उसके साथ कितना कम वक्त बिताया।"

 घर परभी बदलाव आने लगे। मीरा ने बच्चों की कुछ एक्स्ट्रा क्लासें बंद कर दीं।"हमारे बच्चे रोबोट नहीं हैं, उन्हें भी जीने का हक़ है," उसने कहा। शाम को परिवार साथ बैठकर खाना खाने लगा। वीकेंड पर पिकनिक जाने लगे।

 लेकिन यह रास्ता आसान नहीं था। समाज के लोग टिप्पणियाँ करने लगे। "इतनी जल्दी घर आजाते हो, प्रमोशन कैसे मिलेगा?" "बच्चों को इतनी छूट दोगे तो बिगड़ जाएँगे।" "लोग क्या कहेंगे?" यह सवाल हमेशा सामने आता।

 एक दिन राजेश की मुलाक़ात अपने कॉलेज के दोस्त अनिल से हुई। अनिल ने अपनी स्टार्टअप कंपनी शुरू की थी। "दुनिया तुम्हें वही बनाएगी जो वह चाहती है, लेकिन तुम वही बनो जो तुम चाहते हो," उसने कहा। "मैंने भी यही किया। लोगों ने कहा था कि नौकरी छोड़कर ग़लती कर रहा हूँ। लेकिन आज मैं ख़ुश हूँ।"

 धीरे-धीरे परिवार में ख़ुशी लौटने लगी। बच्चों के नंबर कम नहीं हुए, बल्कि उनका आत्मविश्वास बढ़ा। राजेश का काम भी पहले से बेहतर होने लगा। "हर सुबह एक नई शुरुआत है, और हर शुरुआत एक नया अवसर," मीरा ने अपनी डायरी में लिखा।

 एक साल बाद, जब राजेश के ऑफ़िस में एक नया कर्मचारी आया, तो राजेश ने उससे कहा,"ज़िंदगी में सबसे बड़ी ग़ुलामी वह है जो हम ख़ुद अपने ऊपर थोप लेते हैं।"

 आज राजेश और मीरा अपनी ज़िंदगी से संतुष्ट हैं। वे समाज का हिस्सा हैं, लेकिन उसके ग़ुलाम नहीं। "ख़ुशी कहीं बाहर नहीं है, वह हमारे भीतर है, बस उसे पहचानने की ज़रूरत है," वे अक्सर कहते हैं।

 उनकी कहानी उन सभी लोगों के लिए एक प्रेरणा है जो समाज की प्रवृत्तियों की ग़ुलामी मेंअपनी ज़िंदगी खो रहे हैं। "बदलाव की शुरुआत हमेशा एक छोटे से क़दम से होतीहै," राजेश कहता है। यह सिखाती है कि बदलाव मुश्किल हो सकता है, लेकिन असंभव नहीं है। बस ज़रूरत है हिम्मत की, और अपने आप पर विश्वास की।