मुन्ना की चाय
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देवगढ़ एक छोटा-सा कस्बा था, ना ज़्यादा शहरी, ना पूरी तरह ग्रामीण। वहाँ की गलियाँ धूलभरी थीं। बच्चे नंगे पाँव दौड़ते, बूढ़े चौपाल पर बैठकर ताश खेलते और औरतें आंगन में एक-दूसरे को अपने दुःख-सुख सुनातीं। सबके पास समय था—सुनने का, मुस्कुराने का, और सबसे बढ़कर, जुड़ने का।
उस दिन बारिश हो रही थी। हल्की, रुक-रुक कर गिरती बूँदें, जैसे किसी बूढ़ी दादी की उंगलियाँ सिर पर प्यार से फिर रही हों। ना ज़्यादा तेज़, ना ज़्यादा धीमी। बस इतनी कि पुराने ज़ख़्मों को बहा ले जाए, बिना शोर किए। मौसम में एक अजीब-सी उदासी थी, और उसी उदासी में था, एक मीठा-सा सुकून।
मुख्य बाज़ार के कोने पर एक पुराना-सा चाय का ठेला था। नीली टीन की छत, लकड़ी की मेज़ें, और सामने लटका एक मिटा-मिटा बोर्ड जिस पर लिखा था: "मुन्ना की चाय – एक चुस्की में यारी।"
मुन्ना कोई बड़ा दुकानदार नहीं था। उसके पास ना मशीन थी, ना fancy कप, और ना ही कोई चमचमाती दुकान। मगर जो था, वो और कहीं नहीं था—उसकी मुस्कुराहट, उसकी आंखों की चमक और उसकी चाय की खुशबू। मुन्ना की चाय में कोई खास मसाला नहीं था, मगर हर कुल्हड़ में जैसे कोई कहानी पकती थी। वो चाय में उबाल नहीं, लोगों के दिलों में अपनापन उबालता था।
उसी दिन, एक लड़की—नैना—शहर से आई थी। उम्र पच्चीस साल, नई-नई कॉलेज से निकली थी, और एक नामी एनजीओ के साथ काम कर रही थी। उसे गांव में एक शिक्षा प्रोजेक्ट पर कुछ महीनों के लिए भेजा गया था। वो ट्रेन से स्टेशन पर उतरी थी, और फिर बस से धचके खाते हुए देवगढ़ पहुँची थी।
नैना का चेहरा थका हुआ था, और आंखों में झुँझलाहट थी। उसका शहर, उसकी दुनिया अलग थी—जहाँ हर चीज़ तेज़ चलती थी, हर मिनट की गिनती होती थी। देवगढ़ की धीमी रफ्तार, धूलभरी गलियाँ और नेटवर्क की कमी ने उसे पहले ही दिन परेशान कर दिया था।
बारिश से बचने के लिए वो चाय की उस दुकान के नीचे आकर रुकी। सामने एक पुरानी लकड़ी की बेंच थी, जिस पर बैठने में भी उसे हिचकिचाहट हुई। उसने अपने हाथ में पकड़ी नोटबुक संभाली, और मुन्ना से बिना देखे कहा, "एक चाय देना।"
मुन्ना ने मुस्कुराते हुए पूछा, "कुल्हड़ में दूँ या ग्लास में, मैडम?"
"जो जल्दी हो," नैना ने संक्षेप में कहा।
मुन्ना कुछ बोले बिना अंदर मुड़ा। कुछ ही मिनटों में उसने एक गरम कुल्हड़ में चाय थमाई। कुल्हड़ से भाप उठ रही थी, और मिट्टी की सोंधी खुशबू हवा में घुल गई।
नैना ने एक चुस्की ली… और जैसे सब कुछ ठहर गया। वो चाय वैसी नहीं थी जैसी शहर में मिलती थी। उसमें ना ज्यादा चीनी थी, ना ज्यादा दूध—मगर फिर भी वो पूरी थी। उसमें मिट्टी की खुशबू थी, हल्का-सा अदरक का स्वाद, और सबसे बढ़कर—एक अपनापन। जैसे किसी ने उसके काँधे पर हाथ रखकर कहा हो, "सब ठीक हो जाएगा।"
उस एक चाय की चुस्की ने नैना को थोड़ा बदल दिया। अगले दिन जब वो स्कूल का सर्वे कर लौटी, तो बिना सोचे मुन्ना की दुकान की ओर बढ़ गई। "एक चाय देना," उसने इस बार मुस्कुराकर कहा।
मुन्ना ने चाय बनाते हुए पूछा, "काम कैसा चल रहा है मैडम?"
"काम नहीं, सिरदर्द कहो। बच्चे डरते हैं, मास्टर लोग शिकायत करते हैं, और ऊपर से नेटवर्क भी नहीं आता," नैना ने हँसते हुए कहा।
"तो फिर चाय से रिश्ता जोड़ लो। काम आसान लगने लगेगा," मुन्ना ने कहा और कुल्हड़ उसकी ओर बढ़ा दिया।
धीरे-धीरे ये शामों की आदत बन गई। हर दिन की थकावट के बाद, नैना मुन्ना की दुकान पर बैठती, एक कुल्हड़ चाय पीती, और गांव की चुपचाप सांस लेती जिंदगी में खुद को घुलता महसूस करती। अब वो बच्चों से बातें करती, औरतों से सीखती, और अपने ऑफिस वाली नोटबुक में अब सिर्फ आंकड़े नहीं, कहानियाँ भी लिखती थी।
मुन्ना ने कभी उसके बारे में ज़्यादा नहीं पूछा, ना उसने अपनी जिंदगी की परतें खोलीं। मगर दोनों के बीच एक खामोश समझ बन गई थी। कभी-कभी मुन्ना कहता, “मैडम, ये चाय नहीं, रिश्ता है। चुस्की लो, तो दूरियाँ गल जाती हैं।” और नैना बस मुस्कुरा देती।
एक दिन, बारिश फिर से हुई। इस बार तेज़। नैना भीगते हुए दौड़ी और दुकान के छज्जे के नीचे आकर खड़ी हो गई। मुन्ना ने उसके लिए चाय बना दी। दोनों कुछ देर तक चुप बैठे बारिश को देखते रहे। फिर नैना ने पूछा, “मुन्ना, तू हमेशा इतना खुश क्यों रहता है?”
मुन्ना ने मुस्कुराकर कहा, “क्योंकि मैंने ज्यादा कुछ चाहा नहीं। जो है, उसी में चुस्की लेता हूँ। और जब लोग मेरे पास आते हैं, तो उनकी थकान मेरी चाय में घुल जाती है, और मेरे लिए वही बहुत है।”
नैना ने उसकी तरफ देखा। वो कोई दार्शनिक नहीं था, बस एक चायवाला। मगर उसकी बातों में जो सच्चाई थी, वो किसी किताब में नहीं मिलती।
समय बीतता गया। नैना अब गांववालों के लिए सिर्फ 'मैडम' नहीं थी। बच्चे उसे दीदी कहने लगे थे, और औरतें उसके साथ बैठकर अपने जीवन के दुख-सुख साझा करती थीं। वह अब गांव को देखने नहीं, महसूस करने लगी थी।
छह महीने बाद, जब उसका प्रोजेक्ट खत्म हुआ और शहर लौटने का समय आया, तो वो भारी मन से पैकिंग कर रही थी। उसने अपना लैपटॉप, डॉक्युमेंट्स, रिपोर्ट सब संभाला, मगर सबसे आखिर में एक चीज़ उठाई—एक मिट्टी का कुल्हड़, जो उसने मुन्ना की दुकान से माँगा था, याद के तौर पर।
जाते वक़्त वो आखरी बार मुन्ना की दुकान पर रुकी।
"एक चाय देना, मुन्ना," उसने कहा, इस बार रुक कर।
"आखिरी वाली?" मुन्ना ने पूछा।
"अभी के लिए," नैना ने हल्के से जवाब दिया।
मुन्ना ने चाय दी। दोनों ने साथ में चुस्की ली। इस बार चाय में हल्की कड़वाहट थी— शायद जुदाई का।
नैना उठी, और कहा, “तुम्हारी चाय ने मुझे बदल दिया, मुन्ना। मैं यहाँ काम करने आई थी, लेकिन तुमने मुझे जीना सिखा दिया।”
मुन्ना मुस्कुराया, “और तुमने मुझे यकीन दिलाया कि एक कुल्हड़ चाय भी किसी की ज़िंदगी बदल सकती है।”
नैना बस में बैठ गई। गांव की गलियाँ पीछे छूट रही थीं, मगर उसका दिल वहीं कहीं अटका था—मुन्ना की दुकान पर, उस चाय की चुस्की में।
शहर लौटकर उसने अपनी रिपोर्ट जमा की, मीटिंग्स की, लेकिन अब वो वैसी नहीं रही थी। अब वो भागती नहीं थी। हर शाम अपने घर की बालकनी में बैठकर एक कुल्हड़ में चाय बनाती थी—मिट्टी वाली, हल्की अदरक वाली। और जब कोई पूछता कि इसमें क्या खास है, तो वो बस मुस्कुरा देती थी:
"कुछ नहीं, बस एक रिश्ता है।"
कभी-कभी, वो चाय पीते हुए खिड़की से बाहर देखती थी, और मन ही मन मुन्ना की बात दोहराती थी—
“चाय नहीं, रिश्ता है ये। चुस्की लो, तो दूरियाँ गल जाती हैं।”
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