प्रिय मित्रो
स्नेहिल नमस्कार
आज एक बहुत सुंदर पुस्तक की समीक्षा आप सबके लिए प्रेषित कर रही हूँ।
आशा है, साहित्य से गंभीरता से जुड़े मित्रों को बहुत आनंद प्राप्त हो
गा।
नकारती हूँ निर्वासन
=============
नकारती हूँ निर्वासन
===========
प्रभा मुजुमदार को जानना मेरे लिए नया नहीं है, न ही नई है उनके लेखन की गहराई की छुअन मेरे लिए ! बरसों पूर्व सौभाग्यवश जाने किसके माध्यम से हमारा परिचय हुआ और उन्होंने मेरे हाथ में अपना प्रथम काव्य-संग्रह थमा दिया जिसके बारे में उसके लोकार्पण के दिन मुझे कुछ बात करनी थी ।
मेरी स्मृति में आज भी वह जमा - पूँजी है जिसकी बदौलत मेरा प्रभा से परिचय हुआ और उस प्रथम काव्य - संग्रह का लोकार्पण हुआ 'गुजराती साहित्य परिषद में ,जहाँ कई जाने-पहचाने और मेरे लिए कुछ अनजान चेहरे भी थे क्योंकि डॉ. प्रभा मुजुमदार तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम जैसे प्रतिष्ठित महकमे में एक भूवैज्ञानिक के रूप में कार्यरत थीं जहाँ वे चुप्पी साधे केवल अपने कार्य में ईमानदारी से संलग्न रहीं ।मेरे पति भी उसी महकमे में कार्यरत थे अत : स्वाभाविक था कि कुछ पहचाने चेहरे भी इस पुस्तक के लोकार्पण में सम्मिलित हुए थे ।
मैं बहुत ईमानदारी और विनम्रता से कहना चाहती हूँ कि मैं इस पुस्तक पर कुछ कहने योग्य थी भी नहीं ,मैं शुरू से या तो गीत विधा या गद्य लिखती रही थी। शायद मेरी आवाज़ लोगों को पसंद आती थी इसीलिए मुझे मंचों पर बुलाया जाने लगा था। कविता के बदलते दौर में कुछ मित्रों की अच्छान्दस रचनाओं से प्रभावित हो कुछ मुझसे भी लिखी तो गईं गीतों के अतिरिक्त और रचनाएं भी लेकिन मैं उन पर टिकी नहीं रह सकी । बीच-बीच में भीतर से गीत झाँकते ही रहे ।
ये सब संयोग की बात ही होती है जब हमारा जुड़ाव किसी से कब,क्यों और कहाँ होता चला जाता है।
प्रभा के प्रथम संग्रह के लोकार्पण के पश्चात् हम एक -दूसरे को शायद समझने लगे थे इसीलिए हमारी पटरी बैठने लगी जबकि हमारी शैली बिलकुल भिन्न थी । प्रभा को मैंने सदा सहज,सरल लेकिन सुदृढ़ देखा है ,वही दृढ़ता उनकी रचनाओं में भी अनवरत बहती महसूस की है ।ये रचनाएं सप्रयास लिखी जाने वाली जबरदस्त थोपी हुई रचनाएं नहीं हैं ,ये एक गहन चिंतन के बहाव से नि:सृत ऐसी नदियाँ हैं जो कलकल के मधुरिम स्वरों से तो मन को शीतलता प्रदान करती हैं लेकिन इनके साथ बहने वाले झाड़ -झंखाड़ को भी मन की ज़मीन पर थमा जाती हैं और चिंतन के लिए विवश करती हैं ।
उनके लिए कुछ ऐसा महसूस करती हूँ कि वह एक नदिया हैं,जूझती, उफनती,ठहरती,बहती,साथ लेकर चलती अपने साथ सारे धूल -धक्कड़ को, करती रहती हैं प्रयास उसको प्रतिबिंबित करने का और रोक लेती हैं अपने भीतर मीठा पानी । नहीं साथ चलना है उन्हें लेकर अपने साथ उन सभी मृगतृष्णाओं को जो उन्हें रानी की उपाधि से कर दें विभूषित ! अपने हाथ-पैर ,गले में बांध रत्नजटित घंटियाँ वह मुस्कुराकर झलती रहे पंखा और वह कहे दिन को रात है,वह हिला दे गर्दन अपनी! उसकी हामी में एक नटनी सी ?रानी होने का खिताब नहीं ज़रूरी है उनके लिए !
'राजा ने कहा 'रात है
रचना का व्यंग्य देखें, उसमें धकेवल राजा तक ही सीमित न रखकर पूरी बिरादरी को समेट लिया गया है ।
सुबह की चाय का पहला घूँट भरते हुए ,
तो ताज्जुब नहीं हुआ था ।
राजा तो आखिर राजा है
क्यों नहीं कह सकता है ,
दिन को रात ।
इस रचना में न केवल राजा ,महामंत्री,सेनापति सभी तो घेरे में लिपटे हैं।
अपेक्षाओं के ढोल गले में लटकाकर कवयित्री उन यंत्रणाओं से गुजरती हुई जो जगमगाती दीवारों की जगह फफूंद और जालों को देखकर चुप्पी नहीं साध पाती।
स्तब्ध होती है ---
अपने ही कटघरे में खड़ी हूँ ।
जीवन की आपाधापी में सब मिलते हैं खड़े एक कतार में ,वह कोई अनोखी नहीं लेकिन वह स्वयं को देखना चाहती हैं अपने आईने में और तभी कह पाती हैं इतनी शिद्दत से ;
'नकारती हूँ निर्वासन '
मैं कभी दावा नहीं कर सकती समीक्षा का क्योंकि मैं समीक्षक हूँ ही नहीं। हाँ,जब कुछ अक्षर आँखों के द्वार से निकलकर सीधे दिल के गहन,गंभीर समुद्र में डुबकी लगाने लगते हैं, वे उछलते हैं
दिल से दिमाग तक और करते हैं बाध्य कुछ सोचने को,कहने को,संभवत: मैं उसे प्रतिक्रिया भर कह सकती हूँ ।जो देना बन जाती है मजबूरी ,स्वयं भी तो झाँकना पड़ता है खुद के आईने में! स्वयं को भी तो साधना पड़ता है ।
डॉ. प्रभा मुजुमदार ! मेरे लिए सिर्फ़ गहन रचनाएं लिखने वाली कवयित्री का नाम भर नहीं है ,उनकी प्रथम रचना की गवाही मेरे मन के झरोखे में से वर्षों पूर्व से झाँकती है और उनके मूल अस्तित्व की याद दिलाती है ।
छोटे सी कद-काठी की नाज़ुक सी ,एक युवती जैसी प्रभा गहन स्तर तक पहुँचने वाली बिना किसी लाग-लपेट के पाठक के मन में गंभीर लकीरें खींच देने वाली प्रभा के साथ बरसों पूर्व से एक ऐसी अंतरंगता से जुड़ गई थी जो मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी । यहाँ अहमदाबाद में कार्यरत रहते हुए वे कुछ ऐसी साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ीं जिनके साथ मेरा जुड़ाव भी था । कहीं जाना होता तो यह नाजुक सी प्रभा कार ड्राइव करके मेरे घर से मुझे ले लेती। मैं तो ड्राइव करती नहीं थी । उन दिनों ऑटो चलते थे ,मुझे तो उन्हीं में जाना होता और इनके घर के लगभग बीच में मेरे घर का पड़ना मेरे लिए एक आशीर्वाद बन गया । इसी बीच कई अंतरंग बातों पर चर्चा होने के कारण कई सामाजिक विषयों पर भी थोड़ी बहुत चर्चा होती रही ।
मुझे इस बात की तसल्ली रही कि प्रभा ने मुझ पर शुरू से ही विश्वास दिखाया है और अपने प्रत्येक संग्रह को ये मेरे पास पहुँचाती रहीं । जब हम किसी के मूल स्वभाव से परिचित हो जाते हैं तब उसकी बातें हमारे मन में बिना किसी श्रम के लिए पहुँचने लगती हैं ।प्रभा की रचनाओं से गुजरते हुए मेरे साथ यह सहजता बनी रही यद्धपि रचनाएं इतनी सरल भी नहीं थीं कि उनकी तह तक बिना चिंतन के पहुँच जा सकता ।
प्रभा के जीवन के कुछ अपने नियम हैं जिनसे कंप्रोमाइज़ करना उनके लिए असंभव है ।
एक शिद्दत से जीवन जीने की उनकी साधना इन रचनाओं को जन्म देती है इसीलिए ये रचनाएँ गहन दृष्टि की मांग करती हैं ।
इस संग्रह की रचनाओं में उनके अपने परिवेश से जुड़ी सारी बातें संग्रहीत हैं । उनकी संवेदना सरल,सहज शब्दों का चयन करती है जो पाठक को अभिभूत कर देते हैं । उनकी रचनाओं को पढ़ना नहीं होता ,उन सरल शब्दों के भीतर दूर गहराई तक की यात्रा करनी होती है ।
इस संग्रह में कई रचनाओं के शीर्षक को दो-दो भागों में बाँटकर एक ही भाव को भिन्न आकार देने की सहज प्रस्तुति है ।
प्रभा की कंप्रोमाइज़ न कर पाने को संभवत : ज़िद का जामा भी पहनाया जा सकता है लेकिन यह ज़िद उनके व्यक्तित्व के लिए ज़रूरी भी प्रतीत होती है ।
ज़िद ;एक
ज़िद;दो
शब्दों की रोशनी में ;एक
शब्दों की रोशनी में ;दो
वसंत ;एक
वसंत ; दो
इसी प्रकार अन्य कई शीर्षक हैं जो एक के बाद दूसरे कथन को जानने की प्रतीक्षा में एक उत्सुकता जागृत करते हैं ।
सभी रचनाएं दो भागों में विभक्त नहीं हैं ,उनके सरोकार सीधे-सीधे टहोके मारते हैं जो प्रभा के लेखन की वास्तविक पहचान है ।
इस संग्रह में माँ पर भी दो भागों मे विभाजित रचना है, जिनमें माँ ही आधार शिला है किन्तु एक है उनकी भौतिक देह से जुड़ी हुई सहज स्मृति,
छियासी की उम्र में भी
तेज चौकन्ना दिमाग,सौगात है ,
गज़ब का आकलन और निरीक्षण।
मुझे महसूस होता है आकलन और निरीक्षण वाली यह सौगात प्रभा को माँ से ही सहज रूप से अपने आँचल में आशीर्वाद के रूप में प्राप्त हुई है ।
माँ ; दो में माँ के नश्वर शरीर की समाप्ति की एक सहज पीड़ा के साथ ब रक्त के रिश्ते की कसकती स्वाभाविक पीड़ा है ;
चिता पर
एक देह ही नहीं जली थी
कितना कुछ
राख हुआ था उसके साथ ।
धुंधला गए थे
कितने ही प्रतिबिंब ,
आवाज़ें डूब गईं थीं
न मालूम किस दिशा में ।
अपने कार्यकाल में वे कई बार दूसरे स्थानों पर स्थानांतरित हुईं । नए लोग,नए परिवेश,और पुरानों का छूटना टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित होकर रचनाओं के रूप में सिमटा है ।
इतना करीब से जानने बल्कि पहचानने के बावज़ूद न जाने क्यों मैंने कभी ऐसा महसूस नहीं किया था कि इस स्थानांतरण को लेकर भी उनकी संवेदना इतनी गहरी हो सकती है !
;'नकारती हूँ निर्वासन ' की रचनाओं के साथ की बार यात्रा करते हुए मुझे इस बात का एहसास हुआ कि यह भूल थी मेरी !
इसका प्रभाव किस प्रकार से उनके संवेदनशील मस्तिष्क पर पड़ा है उसका सहज चित्रण रचनाओं में अनायास ही प्रदर्शित होता है और पाठक स्वयं को उससे रिलेट करने लगता है।
स्थानांतरण को प्रभा ने चार भागों में विभाजित किया है जिनमें विभिन्न दृश्यों का परिवेश एक वातावरण बना लेता है मानो पाठक स्वयं उन मार्गों से गुज़रे है----
हँसी,कहकहे,शिकायतें,रुलाई
तिलमिलाहट और वेदनाएं ----
समझता-ज़ब्त करता ,
घर का कोना कोना ----और
'नकारती हूँ निर्वासन'
=================
कई दिनों से प्रभा के आने की बात तो हो रही थी ,मैंने कहा था कि गर्मी बहुत है ,आराम से आना और पहले बता देना
हो नहीं पाया ऐसा और अचानक दस तारीख को प्रभा अपनी नव-प्रकाशित पुस्तक के साथ थीं ।
मुझे पता भी नहीं था कि उस दिन उनका जन्मदिन था ।
जब हाथ में पुस्तक आ गई तो पन्ने पलटने से रुका नहीं जा सकता था ।
प्रभा की रचनाएं पन्ने पलटने से समझ में तो आने वाली थीं नहीं
सो---एक बार ,दो बार,तीसरी बार उनके साथ यात्रा करने पर लगा कि अब शायद चंद शब्द उकेरे जा सकते हैं
फिर भी इन चिंतनशील रचनाओं में से गुजरने का मोह अभी शेष है ।
कुछ रचनाएं जानी-पहचानी भी हैं किन्तु कुछ बिल्कुल ही नवीन पोशाक में सुसज्जित हैं ।
यही था कभी अपना घर ,
अपने लोग,अपना शहर। बस्ती और मोहल्ला , जहाँ परिचय का कोई चिन्ह,
पहचाना कोई चेहरा ढूंढती हूँ मैं आज ।
'रिश्ते' कविता की अंतिम पंक्तियों की ओर एक दृष्टि --
ज़िंदगी भर
कितनी ही पाठशालाओं के बावजूद
पहेली ही बने रहे
रिश्तों के सूत्र और समीकरण।
संग्रह की सभी रचनाएं उनकी लेखनी का गंभीर दस्तावेज़ है ---
शब्द चितन को मजबूर तो करते ही है कभी भी पीड़ित करते हैं तो कभी व्यंग्य से मन का द्वार खोलकर भीतर प्रवेश कर जाते है --
;रेवड़ियाँ' रचना की मरुभूमि की सच्ची सड़क पर चलते हुए कितनी संवेदना के झरोखे खुलते हैं ---
आदिम बर्बर कबीले में बदलकर
विवेक को खो देने के बाद ,
प्रतिशोध के सैलाब में
सोच और विचार के बुर्ज
ढहने के बाद ,
रेवड़ियाँ ---ही तो हैं
जो अनुगृहीत कर
हमें बाँटी जा रही हैं,
हमारी ही लूटी संपदा से ।
ढेरों ढेर असहाय परिस्थितियों से गुजरते हुए भी जिजीविषा झाँकती है गुजरने के उपरांत भी
उम्मीदों के दीपों से देती हैं---
कभी -कभी
जीतने के लिए जरूरी नहीं होती
जीत।
और यहीं आरंभ होती है
इतिहास के निर्णायक मोड़ तक ,
पहुँचने की संभवना।
उभर आते हैं
उम्मीदों के असंख्य द्वीप।
आग,राख और धुआँ ---
गीली लकड़ी की आँच
सुलगने के क्रम में,
आँखों में देती है जलन,
घुटन और कसैलापन,
जलने और बुझने के बीच
इम्तिहान ले डालती है।
फिर भी उसका सुलगना ,
आश्वस्ति है
किसी हांडी में
चावल पकने की ।
बिम्ब,प्रतिबिंबों से सहज सरल सजी रचनाएं
आह्वान देती हैं
एक विश्वास भरी चुनौती भी है कि
मौसमों की इतनी बदहवास छेड़छाड़ों के बाद भी जीवन है ,
श्वासें हैं और गति है जो हमें ले चलती है कदम दर कदम
बोधी प्रकाशन से प्रकाशित सुंदर मुखपृष्ठ से सुसज्जित संग्रह अपनी ओर आकर्षित करता है ।
कवयित्री प्रभा मुजुमदार को ढेरों स्नेहिल बधाइयाँ,साहित्य-जगत में इन सारगर्भित रचनाओं का स्वागत तो होना ही है ।
प्रतीक्षा है बस चिंतनशील पाठकों के हाथों में पहुँचने की --
सस्नेह
प्रणव भारती