The Eternal Emperor - Kalchakra ka Pukar - 1 in Hindi Love Stories by Hemang Patel books and stories PDF | अनश्वर सम्राट: कालचक्र का पुकार - 1

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अनश्वर सम्राट: कालचक्र का पुकार - 1

अध्याय 1: पुनर्जागरण की मंद शांति

(भूमिलोक, शिवधाम क्षेत्र — वर्ष 2025)


रात्रि का अंधकार धीरे-धीरे शिवधाम की घाटियों पर उतर रहा था। चांद की दूधिया रोशनी उस शांत नदी पर पड़ रही थी, जो सदियों से इस भूमि को पवित्र बनाती आई थी। यह वह जगह थी जहाँ ऋषि अत्रि ने तपस्या की थी, जहाँ माना जाता है कि स्वयं भगवान शिव कभी प्रकट हुए थे।
पर आज की शिवधाम वैसी नहीं रही।
अब वहाँ योगा सेंटर थे, वेलनेस रिट्रीट थे, और भक्ति भी थी — मगर सिर्फ दिखावे की। भीतर से सब कुछ खोखला था।

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शिवधाम आश्रम के पीछे एक पुरानी गुफा थी। लोग कहते थे वहाँ कोई नहीं जाता, क्योंकि वहाँ की हवा भारी थी। वहाँ का पत्थर कुछ अलग बोलता था — जैसे हर कण में कोई प्राचीन स्मृति बसी हो।

आज उसी गुफा में एक अनोखी घटना घटी।

गुफा के केंद्र में, एक गोलाकार मंच था। उस पर एक कंकाल बैठा था — पद्मासन में, जैसे मृत्यु में भी तपस्या में लीन हो।

हवा में कंपन था। पत्थरों की सतह पर कुछ शब्द उभरने लगे — संस्कृत में, लेकिन जीवित शब्द जैसे:

"यः कालं अतिक्रम्य, पुनः धर्ममार्गं स्थापयेत्, स एव अनश्वरः।"

और तभी—
कंकाल की भुजाएँ धीरे-धीरे हिलने लगीं। एक निःशब्द ऊर्जा गुफा में फैलने लगी, जो शब्दों से नहीं, आत्मा से अनुभव की जा सकती थी।
फिर एक तेज़ प्रकाश फूटा — न सफेद, न नीला, बल्कि कोई दिव्य रंग, जो साधारण नेत्र नहीं देख सकते।

वहाँ अब एक बालक था।

लगभग अठारह वर्ष का, किंतु उसकी आँखों में ऐसा तेज था जो समय को भी रोक सके।
वह धीरे-धीरे खड़ा हुआ।
उसके चेहरे पर कोई घबराहट नहीं, कोई भ्रम नहीं।
बस मौन।
और वह मौन बोल पड़ा —

"मैं... फिर से जीवित हूँ।"

आरव की आत्मा जागती है
आरव वर्धन।

कभी भूमिलोक का महानतम सम्राट। उसे “अमृत सम्राट” कहा गया क्योंकि वह मृत्यु के पार ज्ञान ले गया था। उसकी अंतिम लड़ाई में, उसके ही शिष्य कौशल ने उसे विश्वासघात कर मृत्यु को निमंत्रण दिया था।
मगर मृत्यु ही तो उसे अमर बना गई।
“पाँच हज़ार वर्ष... कालचक्र पूरा हुआ।” आरव ने गहरी साँस ली।
अब वह इस नवयुग में था, एक सामान्य मानव रूप में, पर आत्मा वही थी — तपे हुए लोहा जैसी।
उसे पता था — यह समय, यह युग, उसे पुकार रहा है। वह युग जहाँ धर्म का अर्थ खो गया है, जहाँ अधर्म ने वस्त्र बदल लिए हैं।
वह गुफा से बाहर आया।
पहली बार उस हवा को महसूस किया, जिसमें मोबाइल टावरों का कंपन था, और घड़ी की टिक-टिक मानवता की गति निर्धारित कर रही थी।

"आपका नाम क्या है बालक?" — एक वृद्ध सन्यासी ने पूछा।
आरव कुछ पल रुका, फिर बोला, "आरव शर्मा।"
वह झूठ नहीं बोल रहा था। उसका नया नाम यही था। यही पहचान उसे इस युग में यात्रा करने देगी।
गुरुजी मुस्कराए। "तुम्हारी आँखों में अग्नि है, और ह्रदय में मौन। क्या तुम ध्यान कर सकते हो?"
"ध्यान तो मेरा जन्म है," आरव ने उत्तर दिया।
उसे शिवधाम गुरुकुल में एक स्थान मिला — बाकी अनाथ बालकों के साथ।
वह अब यथार्थ में पुनर्जन्मित था — लेकिन उसका यथार्थ उस गुरुकुल की सीमाओं में नहीं बँधा था।
तीसरे दिन शाम को, वह ध्यान-कक्ष के एक कोने में बैठा था। सूर्यास्त की लालिमा उसकी त्वचा पर एक तेज़ आभा फैला रही थी।
तभी किसी की उपस्थिति का अनुभव हुआ।
एक युवती — शांत, सुंदर, और उसकी उपस्थिति में कोई रहस्य। उसका नाम था माया।
"तुम यहाँ नए आए हो?" उसने पूछा।
आरव ने सिर हिलाया।
"तुम्हारी आँखें… समय से परे देखती हैं," माया बोली।
आरव ने पहली बार उसे ध्यान से देखा। कुछ था उसमें — कोई अनकहा संबंध। जैसे वह किसी और युग से आई हो।
"तुम कौन हो?" उसने पूछा।
"शायद तुम्हारी तरह... कोई भूला हुआ अतीत," वह मुस्कराई।

गुरुकुल के चौक में सभी छात्रों को एकत्रित किया गया। आज ध्यान-शक्ति का अभ्यास था।
गुरु अच्युतानंद ने आदेश दिया: "हर कोई अपनी ऊर्जा को अपने भीतर केंद्रित करे।"
सभी ने आँखें बंद कीं।
आरव भी बैठ गया। मगर उसके भीतर ऊर्जा का समंदर था।
उसने अपनी साँस पर ध्यान लगाया।
धीरे-धीरे उसके चारों ओर की हवा भारी होने लगी। धूल उठने लगी, घास झुकने लगी, और कुछ क्षणों में, उसके चारों ओर ऊर्जा का एक गोलाकार क्षेत्र बन गया।
गुरु अच्युतानंद की आँखें खुल गईं। उन्होंने देखा — वह बालक कोई साधारण नहीं।
“यह शक्ति... यह तो वैदिक ऊर्जा है!” उन्होंने सोचा।
"कृपया ध्यान रोकिए!" उन्होंने घोषणा की।
सभी ने आँखें खोलीं।
माया बस उसे देखती रही — उसकी आँखों में विस्मय नहीं था, बल्कि स्वीकृति थी।


रात गहरी हो चुकी थी। आरव एकांत में बैठा था, शिव प्रतिमा के सामने।
उसके हाथों में राख की एक छोटी पुड़िया थी — वही राख जो उसके पूर्व शरीर की अंतिम स्मृति थी।
"धर्म का स्वरूप विकृत हो गया है," उसने कहा।
"जो शिष्य एक समय मेरी शक्ति थे, वे अब संसार के शासक बन चुके हैं। लेकिन मैं लौट आया हूँ। और इस बार..."
उसने आँखें बंद कीं।
"इस बार मैं किसी पर विश्वास नहीं करूँगा। न मित्र पर, न कुल पर। केवल धर्म... और न्याय।"
माया दूर खड़ी सब सुन रही थी।
और ऊपर आकाश में एक अज्ञात तारा चमका — जैसे कोई पुरानी शक्ति जाग रही हो।


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अध्याय 1 समाप्त।