महाराज, प्रजा में काफी विक्षोभ एवं असंतोष पैदा हो गया है।'नगरश्रेष्ठि प्रियमित्र ने महाजन की ओर से बात का प्रारंभ किया। 'क्यों? असंतोष और विक्षोभ पैदा होने का कारण क्या है?' महाराज पूर्णचन्द्र ने शांति से पूछा।
'महाराज ! राजकुमार गुणसेन पिछले कुछ अरसे से पुरोहितपुल अग्निशर्मा का क्रूर उत्पीड़न कर रहे हैं। उस बच्चे का शरीर बेडौल है, बदसूरत है!''बच्चे ऐसे लड़के को देखें तो उनका हँसना, चिढ़ाना... मजाक करना... यह स्वाभाविक है, पर इसलिए नगर के महाजन को यहाँ मेरे पास शिकायत लेकर आना पड़े, यह समझ में नहीं आता!' महाराज पूर्णचन्द्र ने गंभीर होकर कहा।
'महाराज, बात इतनी होती तो हमें यहाँ तक आने की आवश्यकता नहीं थी, पर बात इतनी ही नहीं है। वरन् काफी हद तक बढ़ गई है। बिना इजाजत के पुरोहित के घर में घुस जाना, पुरोहित एवं उसकी पत्नी को डराना, धमकी देना... जोर जबरन उनके पुत्त्र अग्निशर्मा को उठा ले जाना, गधे पर बिठाना, कांटे का ताज पहनाना... सूपड़े का छत्र रखना... ढोल-काँसे बजाकर पूरे नगर में उसका जुलूस निकालना... फिर अग्निशर्मा को रस्से से बांधकर कुएँ में उतारना... उसे डुबकियाँ लगवाना... महाराज, यह हद हो रही है। यह तो एक नमूना बताया है उत्पीड़न का ! ऐसे तो कई कारनामे हैं राजकुमार एवं उनके दोस्तों के ! राजकुमार पाशविक आनंद मना रहे हैं। जबकि पुरोहित एवं पुरोहित पत्नी, पुल की घोर कदर्थना-पीड़ा से दुःखी-दुःखी हो गये हैं!'
'नगरश्रेष्ठि, तुम्हारी कही हुई बात अत्यंत गंभीर है। राजकुमार का ऐसा बरताव दुष्टतापूर्ण है। मैं उसे उपालंभ दूंगा और अब अग्निशर्मा का उत्पीड़न न हो, वैसी सूचना देता हूँ। तुम सब मेरी ओर से पुरोहित यज्ञदत्त को आश्वासन देना। भविष्य में जिसे प्रजावत्सल राजा होना है... उसे इस तरह की हरकतों से दूर रहना चाहिए!'
महाजन आश्वस्त हुए। महाराज पूर्णचन्द्र ने महाजन का उचित सत्कार करके बिदाई दी। महाजन को बिदा करके महाराज स्वयं रानिवास में पहुँचे। वृद्ध कंचुकी-नौकर ने रानिवास में जाकर महारानी कुमुदिनी को समाचार दिये 'महाराज पधारे हैं।' रानी तुरंत रानिवास के द्वार पर पहुँची। महाराज का स्वागत किया।
महाराज रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठे। रानी ने विस्मय से पूछा :
'क्या बात है नाथ! आज यकायक ऐसे वक्त में आपको यहाँ पधारना पड़ा? आपके चेहरे पर चिंता की रेखाएँ उभरी हुई हैं! क्या कुछ अशुभ...?'
महाराज ने रानी के सामने देखा। दो क्षण खामोश रह कर उन्होंने कहा:
'देवी, कुमार से प्रजा नाराज है!'
'कुमार ने ऐसा कौन सा अकार्य किया है?'
'प्रजाजन का उत्पीड़न...
'किस तरह?'
'पुरोहित यज्ञदत्त को तू जानती है। उसका पुत्न अग्निशर्मा है। उसका शरीर उसके पूर्वकृत पापकर्मी के कारण बड़ा ही कुरूप है... उस अग्निशर्मा को कुमार एवं उसके दोस्त रोजाना सताते हैं-परेशान करते हैं!'
'आपको किसने कहा यह सब ?'
'महाजन के अग्रणियों ने!'
'महाजन को कुमार के विरुद्ध शिकायत करने के लिए आना पड़ा?'
'हां, प्रजा में इस बात को लेकर काफी असंतोष, विक्षोभ है। महाजन का कर्त्तव्य है कि नगर के वातावरण से मुझे खबरदार रखे!'
रानी कुमुदिनी ने कुछ याद करते हुए कहा :
'हाँ... देव! एक दिन कुमार मुझे बता रहा था... एक ब्राह्मण-पुल है... बड़ा ही बदसूरत है...
तिकोना मस्तक... गोल-गोल भूरी आंख... चप्पट नाक... छेद जैसे कान... लंबे-लंबे दांत... टेढ़े-मेढ़े छोटे हाथ... छोटा... चप्पट सीना... लंबा... टेढ़ा पेट... चौड़े-चौड़े... छोटे से पैर... पीले एवं छितराये-छितराये बाल...
ऐसा कुछ वह बता रहा था उस ब्राह्मणपुत्र के बारे में! और कहता था कि 'माँ, हम रोजाना उसके साथ खेलते हैं! हमें बड़ा मजा आता है...। ऐसे लड़के के साथ खेलने में बच्चों को मजा आये... उसमें शिकायत करने की बात मेरी समझ में तो नहीं आती!'
'देवी, खेलना एक बात है... जबकि खिलौना मानकर उसे इधर-उधर ढकेलना अलग बात है! गुणसेन और उसके मित्न उस ब्राह्मण-पुत्र को पीड़ा दे रहे हैं। उसका मखौल उड़ाते हैं! उसे कुएँ में उतारकर डुबकियाँ खिलाते हैं! उसके माता-पिता को डरा-धमका कर, जोर-जुल्म करके उठा जाते हैं! देवी, यह सब कुमार को शोभा नहीं देता! प्रजा में वह अप्रिय हो गया है...!'
'मेरे प्रजावत्सल महाराज, इतने बड़े नगर में... ऐसे किसी एकाध लड़के के साथ यदि कुमार ने ऐसा-वैसा कुछ बरताव कर भी दिया, तो उसमें आपको इतना उद्विग्न नहीं होना चाहिए ! कुमार ने उस कुरूप बच्चे को मार तो नहीं डाला है ना?'
'क्या आदमी को मार डालना, वही गुनाह है? सताना... उत्पीड़ित करना गुनाह नहीं है? देवी, तुम कुमार का गलत पक्ष लेकर उसके अकार्य की सफाई पेश कर रही हो... यह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है! पुत्र तुम्हें प्रिय है... वैसे मुझे भी प्यारा है, परंतु उसे झूठा और बहुत ज्यादा प्यार-दुलार देने के पक्ष में मैं नहीं हूँ। संतानों को इस तरह दुलारने से माता-पिता स्वयं ही उसे अयोग्य एवं कुपात्ल बनाते हैं।'
महाराज पूर्णचन्द्र खड़े हो गये सिंहासन पर से, और कमरे में टहलने लगे।
एकलौता राजकुमार राजा-रानी की आंखों का तारा था। रानी कुमुदिनी कुमार को बहुत ज्यादा लाड़-प्यार में रखती थी! गलत काम करते हुए कुमार को वह कभी टोकती या रोकती नहीं थी। राजा कभी कुमार को डांटते तो रानी कुमार का पक्ष लेकर उसका बीच-बचाव करती थी। इसलिए राजा ने सीधे कुमार को कुछ भी कहना बंद कर दिया था। जो भी कहना होता वह रानी को ही कहते थे। फिर भी रानी कुमार के विरुद्ध कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। रानी पर राजा का यह ताना तो था ही-'तू कुमार को बिगाड़ रही है... उसके व्यक्तित्व को छिछला बना रही है...।' रानी को यह इल्जाम कांटे की भांति चुभता था।
'तू कुमार को रोकेगी क्या ब्राह्मणपुत्र को सताने से?'
'मैं उससे पूछूँगी!'
'और वह सताता है... यह तय होने पर उसे सजा करेगी?'
'सजा करने का कार्य मेरा नहीं है!'
'वह कार्य मेरा है ना? ठीक है, मैं शिक्षा करूँ... फिर तू नाराज मत होना !'
'आप शिक्षा करोगे और राजकुमार रुठकर भाग गया तो? एकलौते बेटे पर भी तुम्हें दया नहीं आती है?' कुमुदिनी रो पड़ी। इस तरह रोने की उसकी आदत थी। महाराज इस आदत से बखूबी परिचित थे, इसलिए रानी के आंसूओं का उन पर कुछ असर नहीं हुआ !
'भागकर कहाँ जाएगा? जहाँ जाएगा मैं वहाँ से उसे पकड़कर मंगवाऊँगा! पर वह भाग जाने की धुड़की देकर, स्वच्छंद बनकर प्रजा को दुःख दे, वह मैं सहन नहीं करूँगा।'
'तुम्हे उस बदसूरत ब्राह्मणपुत्त्र की दया आती है, पर तुम्हारे खुद के बेटे की दया नहीं आती?'
'दया निर्दोष पर आती है... दोषित या अपराधी पर नहीं! ब्राह्मणपुत्त्र निरपराधी है... इसलिए उस निर्दोष पर दया आती है। निर्दोष-गुनाह प्रजा को सतानेवाला राजा बनने के लिए लायक नहीं है!'
दोपहर के भोजन का समय हो गया था। कुमार गुणसेन महाराज के साथ भोजन करना पसंद नहीं करता था। महाराज भोजन कर ले बाद में ही वह भोजन करने के लिए आता था। पुत्र को खाना खिलाकर रानी भोजन करती थी।
परंतु आज अचानक कुमार रानिवास में आ पहुँचा। वहाँ महाराज को देखकर वह रानिवास के द्वार पर ही ठिठक गया। महाराज ने कुमार को देखा... पिता-पुत्र की दृष्टि मिली। महाराज ने कहा :
'आ, कुमार! अच्छा हुआ तू आ गया... चलो, भोजन का समय हो गया है... हम आज साथ-साथ ही खाना खाएंगे।'
कुमार मना कर नहीं सका। महाराज ने पूछा नहीं था, सीधी आज्ञा ही की थी।
रानी कुमुदिनी का दिल दहल उठा...' जरूर आज बाप-बेटे के बीच झगड़ा होने का है!'
पिता-पुत्र भोजन के लिए पास-पास ही बैठे। कुमुदिनी ने दोनों की थाली में भोजन परोसा। भोजन परोसते-परोसते वह बारबार महाराज के सामने देख रही थी, परंतु महाराज की निगाहें तो खाने की थाली पर स्थिर थी। वे सोच रहे थे 'खाने से पहले बात नहीं करनी है.... भोजन के बाद बात करूँगा। खाली पेट डांट को पचा नहीं पाता! भरा हुआ पेट ही सच्ची बात को पचा सकता है!
पिता-पुत्र ने मौन रहकर भोजन किया। कुमार ने हाथ धोये कि महाराज ने कहा: 'कुमार, मुझे तुझसे एक बात कहनी है!' कुमार खामोश रहा। इसलिए महाराज ने उसके सामने देखा। कुमार ने रानी के सामने देखा।
'कुमार, तू और तेरे मित्न, उस ब्राह्मणपुत्त्र अग्निशर्मा को पीड़ा देते हो... परेशान करते हो.. यह सही बात है?'
'पिताजी, हम उसके साथे खेलते हैं... हमें मजा आता है। खेलने में तो हंसना भी होता है... कभी रोना भी आता है!'
'बेटा, ऐसे खेल नहीं करने चाहिए जिसमें औरों को सताया जाता हो... तुम उस अग्निशर्मा को उत्पीड़ित करते हो... उसे संत्त्रास देते हो!'
'चूंकि वह सब करने में हमें मजा आता है। जवानी की दहलीज पर पैर रखनेवाला गुणसेन, पिता की मर्यादा का उलंघन कर बोल बैठा, और आसन पर से खड़ा हो गया।
'औरों को संत्रास देने में तुझे मजा आता है? मैं कहूँगा... 'तुझे पीड़ा देने में मुझे आनंद आता है... तो तू मान लेगा मेरी बात?'
कुमार खड़ा हुआ, कुछ देर मौन रहकर, उसने रानी से पूछा :
'माँ, यह बात पिताजी तक लाया कौन?'
'महाजन!' रानी के मुँह से निकल गया।
'मैं उन महाजन के बच्चों को देख लूँगा!' हवा में मुठ्ठी उछालता हुआ कुमार दहाड़ा।
'कुमार... अभी तू महाजन की शक्ति से परिचित नहीं है! इसलिए ऐसे कटु और अयोग्य वचन बोल रहा है! महाजन चाहे तो राजा को राजसिंहासन पर से नीचे उतार सकता है! राजा को देश निकाल की सजा दे सकता है... ऐसे महाजन का तू क्या कर लेगा? क्या औकात है तेरी?'
'बेटा, महाजन के विरुद्ध एक भी शब्द ज्यादा मत बोलना.. वर्ना अनर्थ हो जाएगा।' रानी ने गुणसेन के सिर पर हाथ रखते हुए उसे रोका।
'सच बात कहनेवाले पर गुस्सा करना, यह आदमी की कमजोरी है। तू और तेरे मित्र उस बेचारे ब्राह्मणपुत्र पर अत्याचार करते हो, यह सही बात है ना?' महाराज ने कुमार से सीधा स्पष्ट सवाल किया :
'हम खेलते हैं। उसके साथ खेलने में हमें मजा आता है... इससे ज्यादा मुझे कुछ भी नहीं कहना है!'
'और, मैं कहता हूँ कि यह खेल बंद करना होगा, तो?'
महाराज ने कुमार के सामने उसके नजदीक जाकर कड़क होकर कहा। परंतु गुणसेन मौन रहा। उसने अपनी निगाहें जमीन पर स्थिर कर दी।
महाराज वहाँ से अपने शयनखंड की ओर चले गये। माता और पुत्र उन्हें जाते हुए देखते रहे।
रानी कुमुदिनी कुमार को अपने कक्ष में ले गई। उसे अपने पास पलंग पर बिठाकर उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरने लगी। कुछ देर खामोशी में घुल गई। आखिर रानी ने खामोशी को तोड़ते हुए कहा :
'बेटा, तेरे पिताजी के सामने तुझे इस तरह नहीं बोलना चाहिए था! तूने उनको नाराज किया, यह मुझे अच्छा नहीं लगा!'
'मेरे पिताजी को मुझ पर प्रेम नहीं!'
'गलत बात है!'
'बिल्कुल सही बात है, वर्ना लोगों की बातें सुनकर वे मुझे इस तरह डांटते नहीं!'
'लोगों की बातें सुनकर नहीं कहा है। महाजन की बात सुनकर कहा है। और महाजन की बात को सुनना ही पड़ता है...। महाजन को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता ! महाजन को संतोष देना ही होता है!'
तू भी क्या... माँ! पिताजी के पक्ष में बैठ गई?'
'नहीं, तू खुद जानता है... कि हर बात में तेरा पक्ष लेकर मैं तेरे पिताजी को अप्रिय हो गई हूँ। फिर भी मुझे इसकी परवाह नहीं है! मुझे चिंता है तुम पिता-पुत्र के संबंध की! तुझे उनकी बात सुन लेनी चाहिए थी। सामने जवाब नहीं देना चाहिए था। और बाद में तो मैं खुद ही सम्हाल लेती!'
'पर मैं उस ब्राह्मण के बच्चे को छोड़नेवाला नहीं! उसके साथ खेलने में... क्रीड़ा करने में मुझे बड़ा मजा आता है! रोजाना हम नई-नई तरकीबें लड़ाकर खेलते हैं! अरे माँ! तू खुद भी यदि उस विदूषक को देखेगी तो तू भी पेट पकड़कर हँसती ही रहेगी!'
'तूम खेला करना! मैं तेरे पिताजी को समझा दूँगी। मना लूँगी। पर तुझे उनके सामने नहीं बोलने का! उनकी मर्यादा को भंग करने की नहीं!'
'परंतु... तू पिताजी को समझाएगी! उस महाजन को कौन समझाएगा? वह हमारे खेल में झमेला पैदा करेगा तो? रोजाना पिताजी के पास आकर शिकायत करते रहेंगे तो ?'
'इसलिए तो कहती हूँ... कुछ दिन के लिए उस ब्राह्मणपुत्र का नाम लेना ही छोड़ दो, उसके साथ खेल बंद कर दो। इससे महाजन को भरोसा हो जाएगा... फिर तुम तुम्हारे खेल खेलते रहना!'
पुत्र को खुश रखने के लिए माता खुद पुत्र को अकार्य में सहमति देती है। पुतत्र को गलत रास्ते पर जाने में सहायता देती है!
'महाजन की घुड़की से डरकर मैं मेरा खेल रोकनेवाला नहीं! पिताजी को जो भी करना हो सो कर ले ! मुझे यहाँ से निकाल देंगे तो देश छोड़कर चला जाऊँगा ! परंतु उस अग्निशर्मा को साथ लेकर जाऊँगा ! उसके बगैर मुझे चैन नहीं मिलने का! वह रोता है तो मुझे मजा आता है! वह चीखता है तो मेरा तन नाच उठता है! वह जमीन पर लोटता है... गिड़गिड़ाता है... तो मुझे आनंद मिलता है! उसे सताने में... पीड़ा देने में मुझे खुशी मिलती है... और मैं वह करूँगा ही। फिर जो चाहे हो जाए !'
वह खड़ा हुआ और कमरे के बाहर निकल गया।
वह सीधा पहुँचा कृष्णकांत की हवेली। कृष्णकांत भोजन करके खड़ा हुआ ही था। कुमार ने उसका हाथ पकड़ा और उसके कान में कहा 'इसी वक्त अभी शत्रुघ्न और जहरीमल को बुला ला। हमें जरूरी बात करनी है!'
'कुमार कृष्णकांत के भीतरी कमरे में जाकर बैठा। कृष्णकांत दोनों दोस्तों को बुलाने के लिए गया। कुमार के मन में पिता के प्रति एवं महाजन के लिए गुस्से का लावा उफन रहा था।
मोह और अज्ञान से घिरा हुआ आदमी और कर भी क्या सकता है?
कृष्णकांत, शलुघ्न और जहरीमल को साथ लेकर आ पहुँचा।
गुणसेन तीनों मित्नों से गले मिला। चारों मित्र वर्तुल में बैठे।
गुणसेन बोला :
'दोस्तों... बात अब महाराज तक पहुँच गई है। महाराज ने आज मुझे जिन्दगी में पहली बार डांट पिलाई है! और अग्निशर्मा के साथ किसी भी तरह की ज्यादती नहीं करने की कड़क आज्ञा की है!'
'जहरीमल ने पूछा : 'महाराज से कहा किसने ?'
गुणसेन ने कहा :
'महाजन ने।'
शलुघ्न बोला : 'नगर में सर्वत्र अपनी ही चर्चा हो रही है। मुझे भी मेरे पिताजी ने इस बारे में पूछा था।'
'तूने क्या जवाब दिया?' कुमार ने पूछा।
'मैंने कहा कि बात सही है, परंतु हम तो राजकुमार जैसा कहेंगे वैसा करेंगे।'
'तुम तीनों मेरे परम विश्वस्त मित्र हो!'
जहरीमल ने कुमार से पूछा 'अब हमें करना क्या है यह बात करें।'
'हमें हमारा खेल चालू रखना है!'
'पर महाराज...
'महाराज को मेरी माता सम्हाल लेगी। माता अपनी तरफ है, इसलिए ज्यादा चिंता नहीं है!'
'पर महाजन ने रोड़ा अटकाया तो?' कृष्णकांत ने पूछा।
'नगर के ब्राह्मण भी बिफर चुके हैं!' शत्रुघ्न ने कहा।
'महाजन और ब्राह्मणों की जमात को उस अग्निशर्मा के लिए काफी प्यार उभर आया है... पर तुम चिंता मत करो... उन लोगों को तो मैं देख लूँगा!'
गुस्से से गुणसेन का चेहरा रक्तिम हो उठा था।
तीनों मित्र मौन हो गये थे। कुमार बोला :
'मैंने तो उस पुरोहित-पुत्न के साथ खेल करने की कई नई-नई तरकीबें सोच रखी है। और इस तरह हमें खेलने की भी स्वतंत्रता न हो, तब फिर इस राज्य में क्यों रहना चाहिए?'
तीनों मित्र कुछ बोल नहीं रहे थे। जमीन पर नजरें गड़ाये वे बैठे रहे। कुमार ने कहा :
'कल शिकारी कुत्ते के साथ अग्निशर्मा को भिड़ाना है! अग्निशर्मा को कटारी देने की... और शिकारी कुत्ते को उसकी ओर खुला छोड़ देने का! वह युद्ध देखने में मजा आएगा!'
कृष्णकांत ने मौन तोड़ा। उसने कहा: 'शिकारी कुत्ता ब्राह्मण-पुत्त्र को बुरी तरह घायल कर डालेगा... उसके शरीर को क्षत-विक्षत कर डालेगा, इससे तो ब्राह्मण लोगों का गुस्सा और खौल उठेगा। महाजन भी झुंझला उठेगा... इसका परिणाम अच्छा नहीं आएगा!'
'परिणाम चाहे जो आये... देखा जाएगा... परंतु यह खेल तो हमें कल हर हाल में करना ही है!' कुमार ने मजबूती से अपना इरादा दोहराया।
कृष्णकांत बोला : 'मैंने सुना है कि अग्निशर्मा को अब महाजन की सुरक्षा में रखा जाएगा... या तो पुरोहित के घर के इर्दगिर्द पांच सौ ब्राह्मण जवान रात-दिन चौकन्ने होकर बैठे रहेंगे... फिर ऐसे में अग्नि को उठा लाने का कार्य?'
'तेरे से नहीं होगा' यही कहना है ना तेरा ? ठीक है, इसकी फिक्र मत करो... मैं खुद लेने जाऊँगा उसे! किसी भी तरह से उसे उठा लाऊँगा! तुम तो बस गधे को सजाकर तैयार रखना!'
पाँच सौ ब्राह्मण जवानों के समक्ष तू अकेला क्या कर सकेगा? किसी भी कीमत पर वे लोग तुझे अग्निशर्मा के पास नहीं जाने देंगे! क्या तू हाथापाई करेगा? उन पाँच सौ से तू अकेला निपट लेगा?' कृष्णकांत ने साफ-साफ शब्दों में कहा :
'तब फिर क्या करेंगे?' 'कुछ दिन यूँ ही बीतने दें!' 'इसका मतलब महाजन की जीत... और अपनी हार!'
'नहीं... यह समयसूचकता होगी। लंबी छलांग भरने के लिए पीछे दौड़ लगानी पड़ती है, वैसे !'
'मुझे फालतू की दलीलें पसंद नहीं है!'
'ठीक है.. आप जैसा कहें... वैसा करेंगे।'
'यदि मुझे कुछ रास्ता सूझता होता तो तुम तीनों को यहाँ एकत्र क्यों करता?'
कृष्णकांत ने कहा : 'मुझे कुछ उपाय नहीं सूझ रहा है।'
जहरीमल ने कहा : 'मेरा दिमाग भी काम नहीं करता है।'
शलुघ्न बोला : 'मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या किया जाए !'
कुमार ने तीनों मित्रों के सामने देखा और वह खड़ा होकर कमरे में टहलने लगा।
महाजन महाराज से मिलने के बाद महामंत्री और सेनापति से भी मिले थे। कृष्णकांत के पिता से मिलकर भी सारी बात कही थी। इसलिए उन लोगों ने अपने-अपने पुत्नों को समझाया था एवं कुमार को ऐसे दुष्कार्य में साथ नहीं देने की कड़क सूचना दी थी।
कुमार ने तीनों मित्रों को संबोधित करते हुए कहा :
'ठीक है, जैसी तुम्हारी इच्छा ! मैं ढूंढता हूँ कुछ उपाय मिल जाए ! यदि कुछ सूझा तो तुम्हें बुला लूँगा। फिलहाल तो इस बात को यहीं पर समाप्त करें।'
गुणसेन कृष्णकांत के घर से निकलकर राजमहल में आया। उसे लगने लगा था कि मित्रों ने उसका साथ छोड़ दिया है। उसका मन गुस्सा, हताशा.. और असहायता की भावना से उद्विग्न हो उठा था। वह सीधा अपने शयनखंड में पहुँचा। कपड़े बदलकर पलंग में ढेर हो गया।
नगरश्रेष्ठि की हवेली में महाजन एकल हुआ था। सभी के चेहरे पर गंभीरता छाई हुई थी। सभी चुप्पी साधे हुए थे। कुछ देर में पाँच ब्राह्मण अग्रणियों के साथ पुरोहित यज्ञदत्त ने हवेली के मंत्रणाखंड में प्रवेश किया। नगरसेठ ने स्वागत करते हुए यज्ञदत्त को अपने समीप बिठाया और कहा :
'पुरोहितजी, अब तुम निश्चिंत रहना। तुम्हारे पुत्त्र की सुरक्षा का पूरा प्रबंध हमने कर लिया है! अब शायद राजकुमार सताने की हिम्मत तो नहीं करेगा। हम महाराज से रुबरु मिलकर ही आ रहे हैं। महाराज को राजकुमार की ऐसी घिनौनी हरकतों के बारे में कुछ मालूम ही नहीं था। उन्होंने हमारी बात शांति से सुनी एवं हमें पूरी तरह आश्वासन देकर भेजा है।'
'नगरश्रेष्ठि, शायद कुमार मान जाएंगे। पर उसके दोस्त तो शैतान के अवतार से हैं... वे लोग...?'
'पुरोहितजी, हमने उन मित्नों के पिता से भी भेंट की है एवं उन्हें भी सावधान कर दिया है। वे मित्र राजकुमार को सहयोग नहीं देंगे।'
'तब तो आपका महान उपकार...।'
'एक ब्राह्मण अग्रणी ने कहा 'हम भी पुरोहित परिवार की रक्षा के लिए कटिबद्ध हैं। जवानों को सावधान कर दिया है। पुरोहित के घर के आगे सौ-सौ शस्त्रसज्ज युवान चौकन्ने होकर बैठे रहेंगे। खुद कुमार आये या उसके दोस्त आयें... किसी को पुरोहित के घर में प्रविष्ट नहीं होने दिया जाएगा! यदि मौका आया तो लड़ने की भी तैयारी है!'
'तुमने भी अच्छा सतर्कतापूर्ण व्यवस्था की है। हालाँकि कुमार या उसके मित्न अब आयेंगे ही नहीं!' नगरश्रेष्ठि ने कहा।
पुरोहित यज्ञदत्त बोला :
'आप सब ने मेरे परिवार के प्रति अत्यंत सहानुभूति जताई है, पीड़ा व संत्रास से हमें मुक्त करने की कोशिश की है। मैं आप सबका उपकार... कभी नहीं भुला सकता !'
'पुरोहितजी, देखा जाए तो यह प्रसंग तुम्हारा है! परंतु परोक्षरूप से यह प्रश्न समग्र प्रजा का है। आज तुम्हारी बारी है... कल मेरी भी आ सकती है। राजा प्रजा को सुख देता है... दुःख नहीं! राजा प्रजा की सुरक्षा करता है... प्रजा का उत्पीड़न नहीं कर सकता ! इसलिए राजा पर भी अनुशासन जरूरी है। हालाँकि, महाराज पूर्णचंद्र प्रजावत्सल राजा हैं! कुमार कौतूहल प्रिय होने से एवं ऐरे-गैरे गलत दोस्तों की संगति में रहकर गलत रास्ते पर चढ़ गये हैं...। महाराज उन्हें अनुशासित करके सही रास्ते पर ले आएंगे। वैसे तो कभी व्यक्ति का तीव्र पापोदय होता है तब अच्छा आदमी भी गलती कर बैठता है! औरों पर अन्याय करता है! आप तो शास्त्रों के ज्ञाता हो। अपने पुत्र को धर्म का उपदेश देकर सांत्वना देते ही होंगे।'
'नगरश्रेष्ठि, जब वेदना की तीव्रता से मनुष्य कराहता हो... कुलबुलाता हो, उस समय उसे धर्म का उपदेश शांति नहीं दे पाता ! उस समय उसकी वेदना को दूर करना या कम करना, यही एक शांति देने का सही रास्ता होता है। और, आप महाजन ने सचमुच, मेरे पुत्र की घोर असहनीय पीड़ा और व्यथा को दूर करने के लिए सक्रिय कदम उठाया है...। हमारे ऊपर यह आपका महान ऋण है!'
'फिर भी, निश्चिंत न होकर, जागृत रहना! जवानी का उन्माद कभी अनुशासन की जंजीरों को काट डालता है! मर्यादा की रेखाओं को मिटा देता है। राजकुमार और उसके मित्र कभी भी हमला करके तुम्हारे बेटे को उठा ले जा सकते हैं!'
नगरश्रेष्ठि ने सभी का उचित आदर-सत्कार करके प्रेम से सब को बिदाई दी।
सारांश: राजा से शिकायत
यह अध्याय उस मोड़ को दर्शाता है जहाँ अन्याय के विरुद्ध एक समाज खड़ा होता है।
राजकुमार गुणसेन का क्रूर व्यवहार अब व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक पीड़ा बन चुका है।
महाजन, नगरश्रेष्ठि, ब्राह्मण समाज और पुरोहित — सभी मिलकर राजा से न्याय की अपेक्षा करते हैं।
और राजा... पुत्र और प्रजा के बीच फँसकर विवेक के पलड़े में निर्णय लेने की कोशिश करता है।
इस अध्याय (Chapter) में एक पिता की दुविधा, एक रानी का मोह, और एक बालक की निर्दोषता के बीच टकराते हैं — धर्म और अधर्म।
यह प्रश्न अब केवल अग्निशर्मा का नहीं रहा... यह एक पूरी प्रजा का प्रश्न बन चुका है:
“क्या सत्ता का उत्तरदायित्व रक्त-संबंधों से ऊपर होता है?”
NEXT PART- शतानियत की हद !
कहाँ तक जा सकती है निर्दयता?
राजकुमार को दी गई चेतावनी क्या सचमुच असर करेगी?
या मोह और मद में डूबा हुआ यह राज युवक अब अपनी क्रूरता की पराकाष्ठा दिखाएगा?
क्या पाँच सौ ब्राह्मणों की रक्षा भी अग्निशर्मा को बचा पाएगी?
या अब होने जा रही है...
शतानियत की हद...!
क्या आप जानना चाहते है ?
तो जानते हैं अगले Chapter में !