जब आरव पाँच साल का था, तब उसकी माँ ने पहली बार उससे कहा, "बेटा, ज़रा ऐसे बैठो, आँखें बंद कर लो और मुस्कराते रहो।" आरव को कुछ समझ नहीं आया, लेकिन उसने वैसा ही किया जैसा माँ ने कहा। माँ ने उसके सामने एक छोटी सी दरी बिछा दी थी, कुछ फूल और मिठाइयाँ रख दी। थोड़ी ही देर में तीन-चार औरतें आईं, जिनमें से एक ने आरव के पैर छुए और बोली, "देखो कितना दिव्य बच्चा है। इसकी आँखों में भगवान बसते हैं।"
आरव डर गया। वो समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा है। उसकी माँ ने प्यार से सिर सहलाया और कान में कहा, "घबराना मत बेटा, बस शांत बैठे रहो। लोग तुमसे खुश होंगे, और भगवान भी।" फिर धीरे-धीरे ये ‘खेल’ हर हफ्ते होने लगा। पहले मोहल्ले में, फिर बगल के कस्बे में, फिर कुछ धार्मिक आयोजनों में। हर जगह आरव को सफेद कपड़े पहनाए जाते, माथे पर चंदन का टीका लगाया जाता, और उसे ‘चमत्कारी बालक’ कहा जाने लगा।
उसकी माँ सुमन और पिता राजीव पहले एक सामान्य परिवार से थे। उनकी छोटी सी सिलाई-बुनाई की दुकान थी, जिससे गुज़ारा मुश्किल से चलता था। लेकिन जब उन्होंने देखा कि लोग बाबाओं को — खासकर अगर वे छोटे बच्चे हों — नोटों की गड्डियाँ चढ़ा रहे हैं, तो उनके मन में लालच घर कर गया और उन्होंने अपने बच्चे को भी इस दलदल में धकेलने का मन बना लिया था।
एक बार किसी महिला ने आरव के चरणों में झुककर यह कहा कि उसका बेटा ठीक हो गया है, और इसका श्रेय उसने आरव को दिया — भले ही उसका बच्चा दवाइयों से ठीक हुआ हो। लेकिन इस घटना ने सब कुछ बदल दिया।
अब आरव एक सामान्य बच्चा नहीं रहा था। वह एक 'चमत्कारी बालक बाबा' बन चुका था। उसके माता-पिता ने उसका सोशल मीडिया अकाउंट बनवाया, यूट्यूब चैनल शुरू किया, जहाँ रोज़ उसके ‘सत्संग’, ‘प्रवचन’ और ‘आशीर्वाद’ वाले वीडियो डाले जाते। अब उसके कार्यक्रमों के लिए बाकायदा मंच बनाए जाते, उस पर रंग-बिरंगे पर्दे, लाउडस्पीकर और माइक होते। आरव के चारों ओर फूल बिछाए जाते और लोग उसकी एक झलक पाने के लिए घंटों लाइन में खड़े रहते।
लेकिन आरव अब भी बच्चा था। उसे समझ नहीं आता था कि उससे लोग क्या उम्मीद कर रहे हैं। वह कभी-कभी मंच पर बैठे-बैठे रोने लगता था। उसे खेलने का मन करता, पतंग उड़ाने का, क्रिकेट खेलने का, लेकिन उसकी माँ उसे डांट देती — "तू अब भगवान है, तेरी हर हरकत देखी जाती है।"
उसके पास ढेरों खिलौने थे, लेकिन कोई दोस्त नहीं। स्कूल कब का छूट चुका था। माँ कहती थी, "तेरा ज्ञान तो ईश्वर प्रदत्त है, तुझे पढ़ाई की ज़रूरत नहीं।" पिता कहते, "बड़े-बड़े संत भी तुझसे जलते हैं। तेरा नाम बहुत ऊपर जाएगा।"
धीरे-धीरे आरव की आँखों की चमक खोने लगी। वह मुस्कुराना भूल गया था। अब जब वह मंच पर बैठता, तो चेहरा सपाट होता, मानो ज़िंदगी थम गई हो। उसे हर दिन कुछ ना कुछ नया 'दिव्य ज्ञान' बोलना होता, जो उसकी माँ और पापा उसे रटवाते थे। "बोलना बेटा — मोह माया छोड़ो, मन को शांत करो, सेवा करो।" लेकिन वो खुद सेवा चाहता था — खेल की, दोस्ती की, खुली हवा में साँस लेने की।
एक बार उसने मंच पर बोलते हुए चुप्पी साध ली। लोगों ने इसे ‘गहन ध्यान’ समझा और तालियाँ बजाईं। लेकिन वो ध्यान नहीं था — वह थक चुका था।
इसी तरह 10 साल बीत गए। उसे अब किसी की परवाह नहीं थी। उस रात उसने माँ से कहा, "माँ, मुझे बाबा नहीं बनना, मुझे बस आरव रहना है।" माँ ने उसे ज़ोर से थप्पड़ मारा और कहा, "बकवास मत कर। तेरी वजह से ही तो ये घर चल रहा है। अगर तू बाबा नहीं रहेगा, तो हम क्या खाएँगे?"
पिता ने उसकी बात को मज़ाक में उड़ाया — "देखो, बाबा अब मना कर रहे हैं। शायद कोई नई लीला है। कल इसे 'मौन बाबा' बना देंगे, और ज्यादा भीड़ आएगी।"
आरव टूट गया। उसे अब अपने कमरे में भी अकेलापन काटने को दौड़ता। उसकी रातें रोते हुए बीतने लगी थी। अब वह कभी हँसता नहीं था, खाना छोड़ने लगा था। कुछ समय बाद उसने काग़ज़ पर लिखना शुरू किया — छोटी-छोटी बातें, जो वो कहना चाहता था।
"मुझे वो लड़का बनना है जो स्कूल जाता है..."
"मैं पतंग उड़ाना चाहता हूँ..."
"मैं सिर्फ आरव हूँ, कोई भगवान नहीं..."
"मैं थक गया हूँ..."
लेकिन किसी ने वो नहीं पढ़ा। किसी ने पढ़ा भी, तो उसे प्रचार का हिस्सा मान लिया। एक बार तो उसकी माँ ने वो पन्ने यूट्यूब पर डाल दिए — "देखिए, हमारे बाबा का रहस्यपूर्ण लेखन।"
आख़िरी बार आरव ने अपने पापा से पूछा, "अगर मैं बाबा नहीं बनूँ, तो क्या आप मुझे प्यार करोगे?" पापा हँस दिए, " तू बाबा है, इससे मुँह नहीं मोड़ सकते बेटा।"
और उसी रात, आरव ने अपने गले में वही सफेद दुपट्टा लपेटा, जो हर कार्यक्रम में उसे ओढ़ाया जाता था। कमरे में किसी को कोई आवाज़ नहीं आई, बस सुबह जब माँ उसे उठाने आई, तो दरवाज़ा बंद था। बहुत देर तक खटखटाने के बाद जब दरवाज़ा तोड़ा गया, सामने जो दृश्य था उसे देखकर उसके मता-पिता के पैरों तले से जमीन खिसक गई, आरव का निर्जीव शरीर कमरे में झूल रहा था।
उसके हाथ में एक आखिरी चिट्ठी थी —
"मैं आरव था, मुझे जीने क्यों नहीं दिया।"
पूरा शहर हिल गया। मीडिया ने हेडलाइन दी — 'चमत्कारी बाबा की आत्महत्या'। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। उसके माता-पिता की आँखों के सामने न सिर्फ उनका बच्चा गया, बल्कि वो दुनिया की नज़रों में गिर चुके थे। जो लोग कल तक उन्हें पूजते थे, अब उन्हें कोस रहे थे — "एक मासूम की जान ले ली पैसे के लिए..."
अब सुमन और राजीव के पास ना दौलत बची, ना सम्मान। चैनल बंद हो गया, आयोजक भाग गए, घर गिरवी पड़ गया। मगर जो सबसे ज़्यादा खला — वो आरव की वो चिट्ठी थी, जो हर रोज़ उन्हें अंदर से मारती रहेगी।
अब जब कोई उनसे पूछता है — "क्या आपका बेटा सच में बाबा था?"
तो सुमन की आँखें भर आती हैं — "वो सिर्फ आरव था... हमने ही उसे कुछ और बना डाला।"
आरव चला गया, लेकिन एक सन्नाटा छोड़ गया — जो हर दिन उनके कानों में गूंजता है। वो हर मुस्कान, जो उन्होंने उस से छीन ली थी, अब उन्हें उम्र भर रुलाती रहेगी।
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