यह कहानी एक इमोशनल ड्रामा है जिसमें प्यार, बलिदान और एक माँ-बेटी के रिश्ते की गहराई को दिखाया गया है।
राजस्थान के एक छोटे से गाँव ‘खेतसर’ में, मिट्टी की खुशबू और सूखे की मार के बीच, एक औरत रहती थी – सरोज देवी। सरोज 35 साल की एक विधवा थी, जिसकी जिंदगी उसके खेत और उसकी 10 साल की बेटी गुड़िया के इर्द-गिर्द सिमटी थी। सरोज का पति, विक्रम, एक ईमानदार किसान था, जिसने सूखे से जूझते हुए कर्ज़ में डूबकर आत्महत्या कर ली थी। उसकी मौत के बाद सरोज टूट गई, लेकिन गुड़िया के लिए जीने लगी।
गाँव वाले सरोज का बहुत सम्मान करते थे, लेकिन उसकी गरीबी और मजबूरी का कई लोग फायदा उठाना चाहते थे – खासकर गाँव का सरपंच रतनलाल, जो एक लालची और भ्रष्ट इंसान था। रतनलाल चाहता था कि सरोज अपनी ज़मीन उसके नाम कर दे, लेकिन सरोज हर बार मना कर देती थी।
गुड़िया एक होशियार बच्ची थी। उसे डॉक्टर बनना था। सरोज ने ठान लिया था कि वह अपनी बेटी को पढ़ाएगी, चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न आएँ। वह लोगों के कपड़े सिलती, खेतों में मजदूरी करती और कभी-कभी शहर जाकर बर्तन मांजने का काम भी करती।
एक दिन, स्कूल से लौटते समय गुड़िया को सड़क दुर्घटना में चोट लग गई। डॉक्टर ने बताया कि उसकी रीढ़ की हड्डी को गहरा आघात लगा है और वह अब चल नहीं पाएगी। यह सुनते ही सरोज के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। उसके सारे सपने एक पल में चकनाचूर हो गए।
सरोज ने हार नहीं मानी। उसने अस्पताल में दिन-रात सेवा की, गुड़िया को फिर से चलने की उम्मीद दिलाई। वह हर रात उसके पैरों की मालिश करती, भजन गाती और उसके चेहरे पर मुस्कान लाने की कोशिश करती। लेकिन गुड़िया धीरे-धीरे अंदर से टूटने लगी। वह माँ से कहती, "माँ, अगर मैं डॉक्टर नहीं बन पाई तो क्या आप मुझसे उतना ही प्यार करेंगी?"
सरोज की आँखों से आँसू बह निकले – "तू मेरे जीने की वजह है, गुड़िया। तेरा सपना मेरा सपना है। अगर तू नहीं चल पाई तो मैं तुझे उड़ना सिखाऊँगी।"
सरोज ने शहर के एक NGO से संपर्क किया जो विकलांग बच्चों की पढ़ाई और इलाज में मदद करता था। वहाँ उसे बताया गया कि गुड़िया की सर्जरी हो सकती है लेकिन खर्च करीब 2 लाख रुपये होगा। सरोज के पास तो कुल मिलाकर 5000 रुपये भी नहीं थे।
उसने अपनी ज़मीन बेचने का फैसला किया, लेकिन रतनलाल ने सस्ते में ज़मीन लेने के लिए दबाव बनाना शुरू किया। सरोज ने मना कर दिया। फिर एक रात, जब सरोज खेत से लौट रही थी, कुछ गुंडों ने उस पर हमला किया। सरोज किसी तरह बच गई, लेकिन अब वह और ज्यादा डर गई थी।
वह शहर आई और वहाँ एक फैक्ट्री में मजदूरी करने लगी। दिन में काम, रात में बर्तन और हर महीने गुड़िया की दवाइयों और इलाज में खर्च। उसकी आँखों के नीचे काले घेरे गहरे होते गए लेकिन उसके हौसले और भी मजबूत होते गए।
कुछ महीने बाद, NGO के माध्यम से एक डॉक्टर ने मुफ्त सर्जरी की पेशकश की, लेकिन शर्त यह थी कि माँ और बेटी को छह महीने अस्पताल में रहना होगा। सरोज ने तुरंत हाँ कर दी। अस्पताल में गुड़िया की सर्जरी हुई, और फिर फिजियोथेरेपी शुरू हुई। दर्दनाक लेकिन उम्मीद भरे दिन थे।
फिर एक दिन, डॉक्टर ने कहा, “अगर सब कुछ ठीक रहा तो एक साल में गुड़िया चलने लग जाएगी।”
यह सुनकर सरोज फूट-फूटकर रोने लगी। इतने वर्षों की तपस्या जैसे रंग लाने लगी थी।
लेकिन इस बीच गाँव में रतनलाल ने उसकी ज़मीन पर कब्जा कर लिया। जब सरोज गाँव वापस आई, तो उसकी झोपड़ी तक तोड़ दी गई थी। अब उसके पास रहने की कोई जगह नहीं थी। सरोज ने केस लड़ने की सोची, लेकिन वकील ने कहा, "मुकदमा लंबा चलेगा, और खर्चा बहुत होगा।"
सरोज ने हार नहीं मानी। वह एक लोकल न्यूज़ चैनल के पास गई और अपनी कहानी बताई। चैनल ने सरोज की पूरी कहानी को कवर किया – कैसे एक माँ ने अपनी बेटी को बचाने के लिए सब कुछ खो दिया।
उस स्टोरी को देशभर में देखा गया। कई लोगों ने मदद भेजी। सरकारी अधिकारियों ने रतनलाल के खिलाफ कार्यवाही की। ज़मीन वापस मिल गई। और साथ ही सरोज को एक सरकारी योजना के तहत सिलाई सेंटर खोलने की अनुमति मिली।
अब गुड़िया चलने लगी थी। वह स्कूल जाने लगी। और सरोज – वह गाँव की प्रेरणा बन चुकी थी।
अंतिम दृश्य:
गुड़िया मंच पर खड़ी है, डॉक्टर की ड्रेस में। उसके हाथ में एक ट्रॉफी है – “बेस्ट मेडिकल स्टूडेंट ऑफ द ईयर”। नीचे दर्शकों में सरोज बैठी है, आँखों में आँसू, होंठों पर मुस्कान।
गुड़िया कहती है: “अगर मेरी माँ न होती, तो मैं आज यहाँ नहीं होती। उन्होंने मुझे चलना नहीं, उड़ना सिखाया है।”
फेड आउट:
स्क्रीन पर लिखा आता है –
"यह कहानी उन सभी माँओं को समर्पित है, जो अपने बच्चों के सपनों के लिए खुद को भुला देती हैं।"