अर्पण
मेरे माता-पिता को।
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प्रिय पाठकों को।
आभार
कहानी लिखने में मदद करने वाले, कहानी की भाषा को शुद्ध करने वाले मित्रों का मैं हमेशा आभारी रहूँगा।
मेरी अर्धांगिनी का आभार, जिन्होंने मुझे लेखन की ओर अधिक ध्यान देने में मदद की।
मेरे माता-पिता का आभार, जिन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति के आशीर्वाद दिए।
मेरी बहनों का आभार, जिन्होंने हर कार्य में मुझे प्रोत्साहित किया।
कॉपीराइट
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© युवराजसिंह जादव
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यह कृति काल्पनिक है। नाम, पात्र, संस्थाएँ, स्थान और घटनाएँ या तो लेखक की कल्पना की उपज हैं या काल्पनिक रूप से उपयोग में ली गई हैं।
प्रस्तावना
पश्चिम बंगाल के कोलकाता में स्थित पांडुआ गाँव के जंगल में स्थित चंद्रताला मंदिर में वर्षों पहले राउभान नाम के चंद्रवंशी सामंत ने प्राप्त खजाने को प्रजा के हित में उपयोग किया जाए और जब तक उसकी आवश्यकता न हो, तब तक किसी अन्य राजा के हाथ न लगे, इस हेतु मंदिर में छिपाया। जिसकी रचना उस समय के गिने-चुने महान शिल्पकारों ने की थी। उन्होंने एक रहस्यमयी गुफा बनाकर उस खजाने को वहीं छिपा दिया। उस गुफा को पाने के केवल दो ही रास्ते थे – पहला, सामंत राउभान का खून या उसके वंश का खून मिलने पर ही उस गुफा के अंदर जाने का रास्ता प्राप्त किया जा सकता था।
वर्षों बाद उस खजाने के लिए पागल हुए लोगों में से एक राक्षस बाहर आया। जो सत्ता और शक्ति का लालची था। उसने चंद्रवंशियों के राज्य का विनाश किया और उस खजाने का एक अंश प्राप्त कर आधा जीवन जिया। प्राप्त खजाने से मिली सत्ता और वैभव से वह विदेश चला गया। जब उसे ज्ञात हुआ कि जो खजाना उसे मिला, वह उस अथाह खजाने की तुलना में कुछ भी नहीं है। असली खजाना तो चंद्रताला मंदिर में है। तब तक लगभग दो दशकों का समय बीत चुका था। अब, वही खजाना पाने के लिए वर्षों पहले किया गया विनाश फिर भारत में लौट रहा है – पहले से भी अधिक शक्ति के साथ। क्या फिर से वह खजाना उस राक्षस को मिलेगा? क्या भारत की आज़ादी के बाद भी वह खजाना भारत से बाहर ले जाया जा सकेगा या कोई उसे रोकेगा? यह जानने के लिए पढ़ें कथा “चंद्रवंशी”।
“अनेक असत्यताओं में एक सत्य छुपा होता है।”
लेखक परिचय
नमस्कार मित्रों! मैं युवराजसिंह जादव। सुरेंद्रनगर जिले के वस्तडी गाँव का निवासी। एम.ए की पढ़ाई पूर्ण कर आगे बढ़ रहा हूँ। मेरी रचनाशक्ति कॉलेज के अध्ययन काल में बाहर आई।
जिसमें सबसे पहले मैं प्रतिलिपि का आभार मानता हूँ। क्योंकि यही वह मंच है जहाँ मुझे अपने भीतर की लेखन कला को बाहर लाने का अवसर मिला। मैं पहले से ही लेखन या पठन से थोड़ा दूर रहा हूँ। इसका एक कारण मेरा स्वास्थ्य था और दूसरा मेरे आस-पास का वातावरण भी। जैसे पानी के बिना मछली नहीं, वैसे पढ़ाई के बिना जीवन नहीं – इस बात की जानकारी मुझे कॉलेज के समय में हुई। कॉलेज के उस पहले सेमेस्टर की पहली परीक्षा में मैंने पहली बार मन से किताब उठाई। वह किताब थी विष्णु शर्मा की “हितोपदेश”। तब मेरे पास 3G फोन था, जिसमें मैंने बस यूँ ही टाइम पास के लिए प्रतिलिपि डाउनलोड की थी। जिसमें लोग लिख भी सकते थे – इतनी जानकारी ही मुझे थी। मैंने पूरा हितोपदेश पढ़ा और मन ही मन उसी समय सोचा कि मैं भी कुछ ऐसा ही लिखूँ। जिसका परिणाम स्वरूप मैंने एक छोटी सी कहानी लिखी – “कौए और केंचुए का युद्ध” जो मेरे जीवन की पहली कहानी थी।
मित्रों, उस कहानी को लिखते समय मुझे व्याकरण का बिल्कुल भी ज्ञान नहीं था। लेकिन वह तो समय और कर्म के अनुसार मेरे भीतर एक साहस की हवा चली। उस कहानी की गलतियों को मैंने आज तक नहीं सुधारा। शायद कोई यह मानता है कि जीवन में भाग्य महत्वपूर्ण नहीं होता। उन्हें एक बार ऐसा जरूर सोचना चाहिए कि जिस व्यक्ति को पढ़ने का शौक नहीं था, जिसे व्याकरण नहीं आता, जिसने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि मैं कुछ लिख भी सकता हूँ – वह व्यक्ति अगर आज एक पुस्तक लिख देता है, तो निश्चय ही भाग्य ने ही उसे इस स्थान पर लाकर खड़ा किया होगा। यह मानना ही होगा।
हमें और आपको – हम सभी को एक बात तो माननी ही होगी कि हम सभी की डोर प्रकृति के हाथ में है। उसी ने पूरी सृष्टि की रचना की और वही विनाश भी करेगी। पृथ्वी पर जन्म लेने वाला प्रत्येक जीव किसी उद्देश्य के साथ आता है – जिसे प्रकृति उसी से पूर्ण कराती है। फिर वह कोई महान व्यक्ति हो या वर्षों पुराना वृक्ष। लेकिन उसे उस स्थान तक पहुँचाने वाला केवल ईश्वर ही है। इसलिए कभी किसी को घमंड नहीं करना चाहिए कि आप कितने आगे हैं और आपके साथ रहने वाले कितने पीछे।
मेरी पहली उपन्यास 'चंद्रवंशी' है और इसे आपके समक्ष रखते हुए मुझे अत्यंत आनंद की अनुभूति हो रही है।
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पूरी पुस्तक पढ़ने के बाद अपनी अमूल्य प्रतिक्रिया अवश्य दें – प्रतिलिपि में या मेरे Gmail ID – yuvrajsinhjadav555@gmail.com पर मैसेज लिख कर मुझे अवश्य बताएं।