दहेज की आग में झुलसा एक पिता का अरमान, सुनिए उसकी करुण पुकार.......
न बेटी का दोष, न बाप की भूल,
फिर क्यों सजा मिले ये धधकती धूल?
जन्म लिया बेटी ने जिस क्षण घर में,
वहीं जल उठी चिता बाप के स्वर में।
हर वर्ष गिनता वो साँसों की गिनती,
गहनों में डूबे समाज की नीयती।
बनिए से उधारी, किसान से खेत,
बाप बेच आया सब—खुद की रीत।
नयनों में सपना, हृदय में घाव,
दहेज की रक़म बना बाप का भाव।
घर को जो थामे था दीवार-सा,
वही आज बिखर गया समाचार-सा।
ये कविता नहीं, वो मौन पुकार है,
जो हर पिता के भीतर मारती दहाड़ है।
ये करुण कथा है उस धर्मसंकट की—
जहाँ बेटी की शादी, बाप की शवयात्रा सी लगती है…
ख़ामोशी से सुनिए उस बाप की पुकार,
जिसने बेटी के लिए जिया, पर बेचा गया दहेज की मार।
इस दर्द को समझिए, इस आग को बुझाइए,
मिलकर दहेज की कुप्रथा को खत्म कीजिए।”
"दहेज की मंडी में बिकता बाप"
(एक विवश पिता की अन्तःक्रंदन)
1. बेटी का जन्म और बचपन
घर में घुली मधुर मुस्कान,
आई जैसे साक्षात भगवान।
नन्हीं किलकारी की गूँज,
हर कोना बना हरिद्वार समान।
माँ की लोरी में राग मिला,
बापू की उँगली पकड़ चली।
छोटे-छोटे पाँवों से घर में,
चाँदनी रात उतर चली।
हर पल खिलती, हर दिन निखरती,
जैसे खुशियों का चाँद छपा।
पर किसे खबर थी एक दिन,
दहेज की मंडी में बिकेगा बाप!
2. सपनों की सीढ़ियाँ
"मैं अफ़सर बनूँगी पापा",
बेटी हर शाम दोहराती थी।
बाप भी आँखों में आँसू छुपाकर,
उसका सपना सींचता था।
किताबों में छिपे थे अरमान,
कभी गुड़ियों को पढ़ाती थी।
हर अंक, हर सवाल में वह,
अपना कल तलाशती थी।
उसकी उड़ान के लिए पिता ने,
खुद ज़मीन-सा बिछा दिया।
पर एक वक़्त आया जब —
दहेज की मंडी में बिक गया बाप!
3. उम्र बढ़ी, समाज की लपटें
सावन आया, चूड़ियाँ खनकीं,
पर लोगों की नज़रें बदल गईं।
"अब तो ब्याह करो इसकी",
हर बात तीर सी चुभ गईं।
कभी पड़ोसी, कभी रिश्तेदार,
सबने आँचल खींच दिया।
बाप के सपनों की दीवारों पर,
समाज ने तमाचा जड़ दिया।
हर ताना एक चक्रव्यूह था,
जहाँ पिता अर्जुन बन न सका।
क्योंकि उस युद्ध का वीर नहीं,
दहेज की मंडी में बिकता था बाप!
4. रिश्ते और माँग की बोली
एक रिश्ता आया, अफ़सर बेटा,
बाप के मन में भी उम्मीद जगा।
सोचा- अब तो बेटी बनेगी रानी,
पर किस्मत तो थी जैसे आग सी।
"एक चारपहिया, दस तोले सोना",
लड़के के पिता ने बोली बोली।
"एक फ्रिज, वॉशिंग मशीन, टीवी",
बेटे की माँ ने धीरे से बोली।
बाप का कलेजा काँप उठा,
कहीं बेटी न अपमान झेले।
और झुका वो फिर — क्योंकि
दहेज की मंडी में बिकता था बाप!
5. लाचारी और आत्मघात सा बोझ
खेत बिका, घर गिरवी रखा,
माँ की चूड़ियाँ तक बिक गईं।
बाप की आँखों का वो सपना,
पैसों के आँचल में चिपक गईं।
कितनी रातें बिना रोटी के कटी,
कितनी साँसें गिरवी पड़ गईं।
बेटी की डोली उठाने को,
हर आत्मा तक जल गईं।
जैसे आत्मा को जहर पिलाया हो,
पर फिर भी पिता यूं मुस्काया।
क्योंकि समाज ने फ़ैसला दिया था —
दहेज की मंडी में बिकेगा बाप!
6. विदाई और अंतिम चोट
मँडप सजा, बेटी सजी,
बाप ने आँसू पी लिए।
कन्यादान करते हुए बोला —
"मैं तुझसे ऋणी रह गया बेटी!"
विदा की घड़ी आई जब,
लाड़ो ने बाप से लिपट कहा —
"पापा अब रोना नहीं",
पर पिता का सीना काँप उठा।
मन में डर, और आँखों में सवाल —
"क्या इज्ज़त मिलेगी उसे वहाँ?"
या फिर वहां भी कहेगा कोई —
"कम दहेज लाई, बाप था बेचारा!"
7. अंत में एक मौन प्रश्न
रिश्तों की नीलामी कब रुकेगी?
बेटियाँ बोझ कब तक रहेंगी?
क्या पैसा बेटी का मूल्य है?
क्या पिता का मान दहेज है?
जो खेत उसने जोते थे,
जो खून बहाया, वो बेकार गया?
क्या वो पिता नहीं था? या
दहेज की मंडी में बिक गया बाप था...
लेखक- अभिषेक मिश्रा बलिया
(समाज का आईना, कलम से प्रहार)
"यह कविता कोई कल्पना नहीं,
बल्कि उस पिता की सच्चाई है जो बेटी के हर सपने के पीछे खुद को मिटा देता है।
जिसने बेटी के खिलौनों से लेकर कन्यादान तक — सबकुछ अपने खून-पसीने से निभाया,
पर अंत में वही पिता दहेज की भट्टी में झोंक दिया गया।
“बेटी के ब्याह में जो बिकता गया,
हर बाप वही था — जो झुकता गया।
इज़्ज़त की गठरी, कर्ज़ का पल्लू,
बोलो कहाँ है समाज का हलू?”
“हँसी की चादर में आँसू सिले हैं,
बापों के सपने कफन में मिले हैं।
कितने कन्यादान की जयकार करोगे?
जब हर दान में इन्सान मार दोगे!”
यह कविता समाज की उस क्रूर परंपरा पर एक भावनात्मक प्रहार है,
जहाँ बेटी के विवाह के नाम पर पिता को अपमान, कर्ज और समझौते की आग से गुजरना पड़ता है।
यह कविता उस घुटन की दस्तावेज़ है,
जो बाप की मुस्कान के पीछे छुपी आँधियों को शब्द देती है।
कवि की लेखनी में यहाँ केवल शब्द नहीं —
बल्कि उस पिता की आह, मजबूरी और मौन चीख भी दर्ज है।
यह कविता उनकी ओर से भी है जो कभी कुछ कह नहीं पाए,
और उनकी ओर से भी जो हर बार कुछ सहते-सहते चुप हो गए।
❗ अब समाज सुन ले—
“कानों में घुँघरू हैं, पर दिल बहरे हैं,
दहेज के भक्त अब भी ज़िंदा हैं तेरे शहर में।
कब तक खरीदेगा यूं रिश्तों की कीमत?
क्या अब भी ज़िंदा है तेरे अंदर इंसानियत?”
“अगर बेटियाँ बोझ हैं और बाप बिकाऊ,
तो तेरे विकास के नारे हैं सब दिखाऊ!
अब नहीं चुप रहेगा कलम का किरदार —
ये कविता नहीं, हैं तेरी तहज़ीब का इन्कार!”
“कब तक बिकेगा बाप बेटी के नाम पर?
कब तक झुकेगा सिर इस झूठी रीत-राम पर?
अगर तुम अब भी खामोश होए,
तो कल तुम्हारा मन भी रोए।
उठो, बदलो, बुझाओ ये आग,
वरना हर घर बनेगा साज़िश का भाग।
दहेज नहीं – ये है क्रूर व्यापार,
जो रोज़ जलाता है एक बाप का संसार!”
इस ज्वलंत सच को देख कर अगर आपकी आँखें भी नम हैं, तो कमेंट में अपनी सोच ज़रूर लिखिए!”