फ़िल्म रिव्यु : कोर्ट, स्टेट v/ नोबडी
ताकतवर के सामने एक कंगाल, आम व्यक्ति की लड़ाई
----------------------------------------
हमारे आसपास हमेशा दो वर्ग साफ साफ दिखते हैँ. एक अभिजात, उच्च वर्ग और दूसरा सामान्य वर्ग. दोनों की सोच, हैसियत अलग अलग है. लेकिन दोनों अक्सर एक ही समय और माहौल में एक दूसरे के साथ होते हैँ.परन्तु एक मालिक के रूप में और दूसरा सेवक के रूप में.दिक्कत तब आती है जब निम्न वर्ग के लोग दूसरे वर्ग को फलते फूलते एक आंख नहीं सुहाते।
कोर्ट फ़िल्म इन्ही दो वर्गों की बात करती हुई एक बेहद गंभीर विषय, पोक्सो एक्ट,को बहुत सलीके से उठाती है.जरुरी भी है और जिसका बहुत दुरूपयोग भी होता है.किस तरह पोक्सो एक्ट में घिरे आरोपी लड़के चंद्र शेखर, चंदू को नब्बे दिन तक रिमांड पर रखकर अगले हफ्ते फैसला सुनाया जाना है. कहानी में हमारे आसपास के सभी पात्र हैं।एक कट्टर जमींदार पिता है जो घर में भी सभी को दबाकर रखता है। उसके घर की स्त्रियां और बुजुर्ग भी उसकी बात मानने को मजबूर होते हैं।
कहानी और उसका कहने का ढंग
---------------------------------------
हाल ही में आई फिल्म अभी प्राइम वीडियो पर देखी जा सकती है। निर्देशक राम जगदीश इस पूर्व तय और सभी को मालूम पोक्सो एक्ट की कहानी को इस सच्चाई और रोचकता से बयां करते हैँ की हम बंधे रह जाते हैँ. अनेक जगह दोनों वर्गों में हम अपने आसपास के और खुद के भी चेहरे देख सकते हैँ.
पूरी फ़िल्म में कहीं भी अति हिंसा, फ़िल्मी माहौल नहीं बल्कि यथार्थ परकता रखी है. जो फ़िल्म कों ऊंचाइयों पर ले जाती है.
कई बार दिखने वाले सच से हम किस प्रकार गलत निर्णय निकाल लेते हैँ, यह जरुरी संदेश फ़िल्म देती है. और हमें जागरूक करती है की हम अन्याय के खिलाफ आख़री दम तक लड़े भले ही हम कितने भी कमजोर क्यों न हो.न्याय पालिका,भले ही अभी अभी नोटों की बोरियां मिली हैँ, पर फिर भी विश्वसनीय है. बस आपको लड़ने में और सही व्यक्ति का साथ मिले. क्या यथार्थ में मिलता है या नहीं यह आप पढ़कर खुद को बताना.
यह कहानी शक्तिशाली चावल मिल के मालिक और कस्बे के मुखिया की एक चौकीदार और उसके परिवार के खिलाफ कोर्ट केस की है. मुखिया घर में भी बच्चियों तक को पूरे बाहं के कपड़े पहनाने वाली सोच और समाज के ठेकेदार सोच का है. उसकी लड़की किसी आम व्यक्ति के लड़के से प्यार करे यह उसे सहन नहीं होता। पुलिस और वकील का सहारा ले वह नाबालिग लड़की के रेप केस में उसे पोक्सो में गिरफ्तार करवा देता है। पुलिस आखिरी क्षण तक लड़के के घरवालों को गुमराह करती है कि "बस रात को छोड़ देंगे " पर उसे पोक्सो लगा दिया जाता है।
लड़के के बेहद गरीब पिता माता सब जगह गुहार करते हैं पर कोई सुनवाई नहीं। बड़े वकील के पास जाते हैं तो वह दो दिन बाद मिलने का समय देता है। जबकि उनके पास केवल तीन दिन हैं फिर पुलिस कोर्ट में केस लगा देगी। दो दिन बाद वकील अपने युवा सहायक को केस पढ़कर कहता है ,तुम इसे वापस कर दो, हम केस नहीं ले रहे,व्यस्त हैं।
यह दिखाता है किस तरह न्याय व्यवस्था आम आदमी की पहुंच से दूर है।क्यों हजारों लोग जेलों में वक्त पर सुनवाई नहीं होने से वर्षों से कैद में हैं। वकील का युवा सहायक इसे लड़ने का फैसला करता है। उसका यह पहला केस है। वह तैयारी करता है तथ्यों को देखता है पर सामने वाले का बहुत बड़ा वकील सभी पर पानी फेर देता है वीडियो प्रमाण पेश करके।
बाइस साल के कॉलेज के युवा लड़के का भविष्य बर्बाद हो रहा है। लड़की का पिता लड़की के बयान की जगह लड़की की मां के बयान करवा देता है।डॉक्टर प्रमाणपत्र देता है कि लड़की की हालत अभी स्थिर नहीं है। अब सब उम्मीदें खत्म लेकिन युवा वकील न्याय के लिए लड़ता है। लड़के के घर वालों पर दबाव होता है कि अपनी गलती माने l पर वह अपने निर्दोष बच्चे के लिए खड़े हैं।
यह दिखाता है कि हिम्मत कभी नहीं हारनी चाहिए। वरिष्ठ वकील की जानकारी के बिना उसका जूनियर यह केस लड़ रहा,लेकिन वकील गुस्सा होने की जगह केस को समझ अपने जूनियर को कानूनी मदद करता है।
अंत में वीडियो में दिखाए कमरे के अंदर की सच्चाई खुद लड़की बयान करने कोर्ट आएगी या नहीं उस पर बात टिकती है।लड़की आती है और सच्चाई बताती है कि कुछ ऐसा नहीं हुआ था,जो दिख रहा है वह सच नहीं है। लड़के के गरीब मां बाप युवा वकील के पैर पकड़ लेते हैं कि उसने उनके बेटे को बाइज्जत रिहा करवाया।
फिल्म में आखिर में लिखा हुआ आता है पिछले वर्ष बीस हजार पोक्सो एक्ट के मामले दर्ज हुए। जिनमें नब्बे प्रतिशत,लड़कों को सजा मिली।आंकड़ा चौंकाने वाला है।क्योंकि जेलों की हालत छुपी नहीं है।यह किशोर जब सात या दस साल जेल में रहेंगे और बाहर आएंगे तो क्या बनेंगे? एक शरीफ शहरी या अपराधी?. बहस को फिल्म उठाती है कि एक्ट का दुरुपयोग और सही क्रियान्वयन में काफी अंतर है। एशियाई देशों में जहां गरीबी, अशिक्षा और बेरोजगारी है वहां अक्सर "इधर के लोग उधर " पहुंच जाते हैं। फिर क्या होता है यह फिल्म बताती है।
यह भी उतना ही सच है कि बच्चियों और किशोरियों के साथ यह मामले काफी हो रहे ।हमें जागरूक करती है दोनों तरफ से की हम ध्यान भी दें और कभी किसी निर्दोष को फंसने न दें।
फिल्म की कहानी, संवाद और अभिनय सभी बेमिसाल हैं। फिल्म एक उम्मीद जगाती है कि रात कितनी ही घनी, अंधेरी हो उसका खत्म होना और सूरज की रश्मियों का आना तय है।
------------------------
(डॉक्टर संदीप अवस्थी, आलोचक,फिल्म लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।संपर्क 7737407061,8279272900)