ज़ब संस्कृति भाषा का प्रचलन भारत में जन भाषा के रूप में समाप्त हो चुका था और हिंदी भाषा साहित्य भाषा संस्कृति के विकृत स्वरूप से निकल कर भारतीय जनमानस कि संवाद संचार के भाषा के रूप में अस्तित्व पा रही थी जो भारतीय क्षेत्रीय भषाओ एवं संस्कृति एवं गुलाम संस्कृति कि भाषाओ कि मिली जुली अक्षर शब्द भाषा साहित्य का मूर्त स्वरूप प्राप्त कर रही थी इसी काल खण्ड में भक्त अपने आराध्य के लिए उनके विराटता के लिए अपनी सरल समझ एवं स्वीकारोक्ति कि अभिव्यक्ति संवाद - संचार का
शसक्त मध्यम बनी जो वर्तमान में आर्याब्रत भारत कि बहुसंख्यक लोंगो कि भाषा है एवं साहित्य कि धरोहर है इसी काल खंड में सूर दास जी, मीरा बाई, तुलसीदास, कबीर, रहीम,रसखान आदि महान भक्तों ने बिभिन्न रस छंदो के माध्यम से अपनी भक्ति भावनाओ कि अभिव्यक्ति कि तुलसी दास जी ने चौपई छंद सोरठा दोहे आदि को माध्यम बनाया तो सूरदास जी एवं मीरा बाई रसखान ने पदों के माध्यम कबीर दास जी ने सामाजिक धार्मिक कुरीतियों पर प्रहार के लिए दोहो को अपनी भवाअभिव्यक्ति का माध्यम बनाया जो निरंतर सतत् अब भी जारी है काशी कि पावन धरती से महान संत विचारक दार्शनिक कबीर दास जी ने गुलामी के कठिन दौर में बेबाक निर्भय निडर रहते हुए अपने व्यवहारिक विचारों को दोहो के माध्यम से तब रखा ज़ब मुग़लशासन अपने उत्कर्ष पर था और इस्लाम के विरुद्ध बोलने कि शक्ति साहस किसी साधारण के बस कि बात नहीं थी।
उस कठिन दौर में शासन कि क्रूर क्रूरता से बेपरवाह कबीर दास जी ने इस्लाम कि कुप्रथाओ पर प्रहार अपने दोहो के माध्यम से किया --
1-
कंकड पत्थर जोड़ के, मस्जिद लिया चुनाय ,
ता चढ़ मुल्ला बाग़ दे, बहिरा हुआ खुदाय!!
2-
मुसलमान के पीर औलिया मुर्गी
मुर्गा खायी खाला केरी बेटी व्याहे घरही करे सगाई!!
(यह रचना एनसीईआरटी कि कक्षा 11 में पढ़ाई जाती है )
हिन्दू धार्मिक मान्यताओं पर भी कबीर दास जी ने करारा प्रहार अपने दोहो के माध्यम से किया है
लेकिन उस दौर में भारत में हिन्दू समुदाय अपने दैनिय दौर से गुजर रहा था हिन्दुओ में धर्मपालयन धर्मान्तरण तेजी से हो रहा था और उनके धार्मिक स्थलों का विध्वंस आम बात थी ऐसे समय में संतशिरोमणि कबीर दास जी द्वारा निष्पक्ष रहकर सामजिक धार्मिक कुरीतियों पर दोहो के माध्यम से प्रहार दोहो का प्रचलन सामजिक धार्मिक राजनितिक सांस्कृतिक प्राइमर्जन के लिए प्राइमर्जक प्रेरक क़े रूप में प्रारम्भ हुआ जो बदस्तूर जारी है!
"21वी सदी में दिनेश गोरखपुरी के दोहे" कबीर कि कड़ी कि वर्तमान लड़ी है मुर्धन्य विद्वान दार्शनिक पूर्वांचल के युवाओ कि दृष्टि दृकोण चिंतक विचारक डॉ उपेंद्र प्रसाद जी ने सत्य ही कहा है कि - यद्यपि वर्तमान कि सामजिक सांसस्कृतिक धार्मिक राजनितिक प्राकृतिक पर्यावरण प्रदूषण एवं कुरीतियों के परिमर्जन हेतु 21 वी सदी के दिनेश गोरखपुरी के दोहे है फिर भी महान संत कबीर दास जी से दिनेश जी कि तुलना नहीं कि जा सकती कारण स्पष्ट है दिनेश गोरखपुरी जी कि प्रेरणा पथ प्रदर्शक कबीर दास जी हो सकते है प्रतिस्पर्थी बिल्कुल ही नहीं आदरणीय उपेंद्र प्रसाद जी कि दृष्टि विचार एवं दृष्टिकोण विल्कुल सहज एवं स्पष्ट है दिनेश गोरखपुरी जी के दोहे कबीर परम्परा के 21 वी सदी के वर्तमान के व्यवहारिक दर्पण है!
कबीर दास जी के जीवन दर्शन
का पूर्वांचल पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है क्योंकि वाराणसी एवं मगहर दोनों ही पूर्वांचल में आते है वाराणसी प्राचीन सांस्कृतिक विद्वानो कि नगरी है किन्तु मगहर जो गोरखपुर का हिस्सा था किन्तु महत्वपूर्ण तब बना ज़ब कबीर दास जी ने यहां शरीर का त्याग किया दिनेश गोरखपुरी भी दोहो कि कबीर पथ उद्देश्य से अछूते नहीं रहे है!
जो उनके लेखन विशेष कर दोहो
में यहां
"जो नर देखत पाप है, वो भी करता पाप!
भागी बनते पाप के, करे पाप का जाप!!
जिसमे समाज राजनीति युवा संस्कृति स्वंय को निहार कर क्रान्तिकारी सकारात्मक परिवर्तन का शांतिपूर्ण क्रांति का संकल्प लेकर एवं शसक्त राष्ट्र समाज का निर्माण करने में सक्षम हो सकती है!!
संत यही सोचा करें सबका हो कल्यान, सभी लालसा दूर हो, कभी ना चाहे मान!
दिनेश गोरखपुरी जी संत प्रवृति के विनम्र व्यक्ति व्यक्तित्व है उनके अंतर्मन में समाज में फैले सांस्कृतिक विकृति से आहत एवं आंदोलित है जिसके कारण उनके भावो का प्रस्फुटन तलवार कि धार कि तरह --
पहले अपने जानिए, फिर बोले तब वैन, सत्य सत्य को आँकिए, तभी मिलेगा चैन!
आदरणीय दिनेश गोरखपुरी जी दोहरे और द्वेष दम्भ छल प्रपंच कपट कि कलयुगी संस्कृति से अलग शांति सौहार्द एवं प्रगति प्रतिष्ठा के समाज राष्ट्र निर्माण के लिए समय काल कि चेतना को जागृत करने कि साहित्यितिक क्रांति है!!
निंदा बस इतनी करे ,सजग होवें समाज,
सत्य राह सब चल पड़े ,जाए सभल समाज!
दिनेश गोरखपुरी जी ने अपनी अभिव्यक्ति तेज धार के साथ सामाजिक चिंतन के धरातल से किया है जिसमे आदरणीय विद्वान दार्शनिक श्री उपेंद्र जी कि प्रेरणा का मार्गदर्शन का महत्वपूर्ण योगदान है निश्चित रूप से दो संतो कि सयुंक्त चिंतन शीलता का परिणाम है सामाजिक परमार्थ का साहित्यिक शंखनाद है दिनेश गोरखपुरी जी 21वीं सदी के दोहे जो मानव मन को सोचने को विनम्र आमंत्रण देता है --
खेला जिसकी गोद में, बालक हर दिन रात
आज उसी को देरहा,बृद्धाआश्रम सौगात!!
दिनेश गोरखपुरी जी ने समाज के सर्वांगीण व्यावहारिक आचरण को अपनी लेखनी का प्रवाह बनाया है उनका प्रयास है समाजिक विकृति जो नए नए स्वरूपों में समय समाज वर्तमान को कलंकित करती हुई भविष्य कि पीढ़ी को निरर्थक नकारात्मक सन्देश देने का प्रयास कर रही है उसके आरम्भ को ही समाप्त करने का साहित्यिक पथ पराक्रम निशब्द निःसंदेह समाजिक जागरण का अभिवादन है --
करे न इज्जत और की ,बोलत कटु जब बैन,
छूटे निज पथ लक्ष्य की, भागे दिल से चैन!!
अपनी बात बघारते, कहते मद ना कोय,
बिना बात चिग्घाड़ते ,ऐसे मनु जो होय!!
दिनेश गोरखपुरी जी ने समाज के सर्वांगीण व्यावहारिक आचरण को अपनी लेखनी का प्रवाह बनाया है उनका प्रयास है समाजिक विकृति जो नए नए स्वरूपों में समय समाज वर्तमान को कलंकित करती हुई भविष्य कि पीढ़ी को निरर्थक नकारात्मक सन्देश देने का प्रयास कर रही है सोच को उसके आरम्भ को ही समाप्त करने का साहित्यिक पथ पराक्रम निशब्द निःसंदेह समाजिक जागरण का अभिवादन है ।
नन्दलाल मणी त्रिपाठी पीताम्बर