MAN KEE HAAR, ZINDAGI KEE JIT - 1 in Hindi Anything by DHIRENDRA SINGH BISHT DHiR books and stories PDF | मन की हार, ज़िंदगी की जीत - भाग 1

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मन की हार, ज़िंदगी की जीत - भाग 1

© 2025 Dhirendra Singh Bisht

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This work is a product of the author’s original thoughts and creative expression. The views and opinions expressed in this book are solely those of the author.

मन की प्रकृति और उसकी उलझनें

इंसान का मन शायद सबसे रहस्यमयी चीज़ों में से एक है। यह कल्पना करता है, डरता है, सोचता है, सवाल करता है और कई बार ख़ुद ही अपने जाल में फँस जाता है। मन एक ऐसा साथी है जो कभी तुम्हें आसमान तक उड़ाता है और कभी ज़मीन पर गिरा देता है — और सबसे हैरानी की बात यह है कि दोनों ही बार वह तुम्हारा ही होता है।

आपने अक्सर सुना होगा — “सब कुछ मन का खेल है।” लेकिन क्या यह केवल एक कहावत है या इसमें कोई गहरी सच्चाई है?

असल में, जब कोई मुश्किल सामने आती है, तो दिमाग़ सबसे पहले रिस्क को जज करता है। वह सोचता है — “अगर मैं असफल हुआ तो क्या होगा?” और इस सोच की गहराई में उतरते ही मन डर की दिशा में चल पड़ता है। डर को महसूस करना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, लेकिन उसे अपने ऊपर हावी कर लेना, यही वो मोड़ है जहाँ से हम हार मानने लगते हैं।

मन का Default Mode – Safety

इंसान का मस्तिष्क विकास के दौरान लाखों सालों से एक चीज़ के लिए सबसे ज़्यादा ट्यून किया गया है — सर्वाइवल, यानी बचाव। अगर खतरा दिखे, तो भागो। अगर अनजान चीज़ दिखे, तो रुक जाओ। अगर दर्द की संभावना हो, तो कोशिश मत करो।

तो जब हम कोई नया काम शुरू करते हैं —

एक बिजनेस आइडिया, कोई सपना, कोई बड़ा लक्ष्य — तो मन सबसे पहले यह देखता है कि इसमें रिस्क कितना है। 

और जैसे ही वह थोड़ा भी खतरा महसूस करता है (जैसे – लोग क्या कहेंगे, मैं फेल हो गया तो क्या होगा), वह रुकने का इशारा देता है। यह इशारा अकसर बहुत subtle होता है — जैसे कि 

“आज नहीं, कल करते हैं”, या “शायद ये मेरे बस की बात नहीं”, या फिर “मैं इसके लिए बना ही नहीं हूँ।”

यहीं पर इंसान का मन सेक्सटिव (Sensitive) हो जाता है। वह थोड़ी सी भी असुरक्षा को बर्दाश्त नहीं कर पाता, और धीरे-धीरे वह खुद को हराने लगता है — बिना लड़े, बिना प्रयास किए।

एक सवाल: क्या मन हमारा दुश्मन है?

नहीं। मन हमारा दुश्मन नहीं है, लेकिन वह बिना ट्रेंनिंग के एक बच्चा ज़रूर है। और जैसे हर बच्चे को समझाया जाता है, सिखाया जाता है, वैसे ही मन को भी समझाना पड़ता है कि “हर रिस्क जानलेवा नहीं होता”, “हर डर सच्चा नहीं होता”, और “हर असफलता का मतलब हार नहीं होता।”

अगर आप अपने मन को यह सिखा दें कि डर को देखना चाहिए, पर डर कर रुकना नहीं चाहिए, तो आप उसे अपने सबसे बड़े दुश्मन से सबसे बड़े साथी में बदल सकते हैं।

 

मन की उलझनें: खुद से खुद की लड़ाई

कभी आपने गौर किया है कि जब भी आप कोई बड़ा कदम उठाने की सोचते हैं, तो दो आवाज़ें आपके अंदर से आती हैं?❖ एक कहती है, “हाँ, कर सकते हैं! क्या पता यही मौका हो!”❖ और दूसरी कहती है, “नहीं, अगर फेल हो गए तो क्या होगा?”

यह दो आवाज़ें किसी और की नहीं हैं, ये दोनों आप ही के अंदर हैं। फर्क बस इतना है कि आप किसे सुनते हैं — डर को, या उम्मीद को?

मन की उलझनें तभी पैदा होती हैं जब हम दोनों आवाज़ों के बीच फँस जाते हैं। और यही उलझन हमारी ऊर्जा को खा जाती है।

नोट:

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इस किताब में आपको और भी कई प्रेरणादायक कहानियाँ पढ़ने को मिलेंगी — जो ज़िंदगी को देखने का नजरिया बदल सकती हैं।