Kaathagodaam Ki Garmiyaan - 3 in Hindi Fiction Stories by DHIRENDRA SINGH BISHT DHiR books and stories PDF | काठगोदाम की गर्मियाँ - 3

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काठगोदाम की गर्मियाँ - 3

रिश्तों की परछाइयाँ

काठगोदाम की सुबहें जितनी शांत थीं, रोहन का घर उतना ही हलचल भरा था। घर में बहन की शादी की तैयारियाँ चल रही थीं—माँ रसोई में हल्दी के पकवानों में व्यस्त थीं, छोटी बहन रंग-बिरंगे सजावटी आइटम्स को व्हाट्सएप पर भेज-भेजकर सबकी राय ले रही थी और पापा थोड़े बीमार होकर कमरे में लेटे रहते थे।

रोहन सब कुछ देख रहा था। वह कहीं भाग लेना चाहता था, लेकिन हर ओर से खिंचता चला जा रहा था। वह छत की ओर देखने लगा—जहाँ उसे अपनी साँसें थोड़ी खुली सी लगती थीं।

“भैया, हल्दी में कौन-कौन आएगा? लिस्ट चेक कर लो,” बहन की आवाज़ आई।

“हाँ, देखता हूँ,” रोहन ने फोन उठाया। स्क्रीन पर एक नाम चमक रहा था—कर्निका। कुछ पल उसने स्क्रीन को देखा, कॉल करने की इच्छा हुई, लेकिन फिर फोन वापस रख दिया।

उसी समय दूसरी ओर कर्निका अपने ऑफिस में बैठी ईमेल्स देख रही थी, लेकिन मन कहीं और था।

अब वह समझने लगी थी कि काठगोदाम सिर्फ एक स्थान नहीं था, बल्कि उसकी जिंदगी का एक हिस्सा बनता जा रहा था। रोहन भी… कहीं न कहीं उसके विचारों में रहने लगा था। वह अब उसे महसूस करने लगी थी—कभी बहुत पास, तो कभी एकदम अनजाना।

तभी सचिन ऑफिस में आया।

“चलो आज एक प्रोजेक्ट साइट पर जाना है। शायद रास्ते में रोहन से भी मुलाकात हो जाए,” उसने मुस्कुरा कर कहा।

कर्निका ने कुछ नहीं कहा, बस बैग उठाकर तैयार हो गई।

प्रोजेक्ट साइट का काम ज़्यादा नहीं था। लौटते हुए सचिन ने गाड़ी रोक दी।

“उधर मंदिर के पास शादी की दुकानें लगी हैं। चलो थोड़ी देर घूम लेते हैं।”

कर्निका ने देखा, रंग-बिरंगे दुपट्टे, हल्दी की चुड़ियाँ, शादी के गोटेदार कपड़े—हर कोना उत्सव से भरा था।

वहीं उसने रोहन को आते देखा—हाथ में डेकोरेशन का सामान, आँखों में थकान और सोच की रेखाएँ।

“लगता है ये जगह हमारी कॉमन हो गई है,” रोहन ने मुस्कुराकर कहा।

“या शायद हम दोनों को अकेलापन एक जैसे जगहों पर खींच लाता है,” कर्निका ने जवाब दिया।

दोनों कुछ देर चुप रहे।

फिर रोहन बोला, “घर में बहुत काम है। बहन की शादी है लेकिन सब कुछ संभालना अकेले मुश्किल होता है। पापा की तबीयत, बजट का प्रेशर, माँ की उम्मीदें… कभी-कभी लगता है कि सब कुछ मेरी जिम्मेदारी है।”

कर्निका ने पहली बार उसकी आँखों में गहराई से देखा। वहाँ थकान थी, लेकिन कोई शिकायत नहीं। बस एक इच्छा थी—कि कोई उसे सुने।

“तुम चाहो तो मदद ले सकते हो,” कर्निका ने धीरे से कहा।

“अभी तो नहीं,” रोहन मुस्कुराया, “लेकिन अगर शादी में आओगी तो बड़ी मदद होगी।”

कर्निका ने कुछ नहीं कहा, बस हल्का सा सिर हिला दिया।

कुछ रिश्तों को नाम नहीं चाहिए होता, वे मौन में भी जुड़ जाते हैं।

“कुछ रिश्ते अचानक नहीं बनते, वो वक़्त की परतों में चुपचाप आकार लेते हैं। ना कोई बड़ी शुरुआत होती है, ना कोई शोर — बस कुछ मौन लम्हे, कुछ अनकही बातें, और वो एक चेहरा जो हर बार अलविदा कहकर भी मन के सबसे कोमल कोने में रह जाता है। ‘काठगोदाम की गर्मियाँ’ वैसी ही एक याद है — जो बीत भी जाती है, मगर भीतर कुछ हमेशा के लिए ठहर जाता है।”

— धीरेंद्र सिंह बिष्ट, “काठगोदाम की गर्मियाँ”

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शुभ पठन!