Banaras ki Ghat aur wo Ladki.. - 2 in Hindi Love Stories by DR SONIKA SUMAN books and stories PDF | बनारस का घाट और वो लड़की - भाग 2

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बनारस का घाट और वो लड़की - भाग 2

कुछ रिश्ते शब्दों से नहीं, चुप्पियों से गहराते हैं।

अवनि और आरव का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही था।

घाट की सीढ़ियों पर बैठी अवनि की डायरी अब आरव के लिए जिज्ञासा बन चुकी थी।
वो जानता था कि उसमें कुछ खास लिखा है—कुछ ऐसा, जो सिर्फ़ लिखा जा सकता है, कहा नहीं।

एक दिन उसने हिम्मत जुटाई और पूछ ही लिया—

"आप हर दिन डायरी में क्या लिखती हैं?"

अवनि ने कुछ पल आरव की आंखों में देखा, फिर शांत स्वर में कहा—

"चिट्ठियाँ।"

"किसे?" आरव का अगला सवाल।

अवनि की आंखें हल्की-सी नम हो गईं।
उसने कहा—

"कभी एक ऐसे को, जिसे मैंने खो दिया…
और कभी एक ऐसे को, जिसे शायद मैंने अभी तक पाया नहीं।"

वो चिट्ठियाँ प्यार की थीं—पर उनमें "प्रिय" शब्द नहीं होता था।
वो चिट्ठियाँ शिकायतों से भरी नहीं थीं—पर हर पंक्ति में अधूरी कसक होती थी।

वो डायरी किसी का नाम नहीं लेती थी, पर हर शब्द किसी को पुकारता था।

अवनि ने कहा—
"मैंने बहुत कुछ कहा, लेकिन सामने वाला कभी सुन नहीं पाया। अब मैं लिखती हूँ… ताकि कम से कम मैं खुद को सुन सकूँ।"

आरव समझ गया—यह लड़की टूटी नहीं है, बस बहुत कुछ सह चुकी है।

वो अब उसके लिए सिर्फ़ एक घाट पर बैठी लड़की नहीं थी—वो एक किताब बन चुकी थी, जिसे वो हर शाम एक पन्ना पढ़ता… बिना डायरी खोले।


🫖 चाय और उसकी चुप्पियाँ

उन दिनों की चाय अब महज़ एक पेय नहीं रही थी।
वो एक अहसास बन गई थी—जो दोनों के बीच के मौन को मिठास देता था।

चाय के साथ अब शब्द कम और मौन ज़्यादा होते थे।
कभी दोनों साथ बैठते, और आरव पूछता—

"क्या आज भी कोई चिट्ठी लिखी?"

अवनि मुस्कुराकर कहती—
"हाँ। पर जवाब अब भी नहीं आया।"

आरव जानता था, वो जवाब चाहती नहीं है।
उसकी उम्मीद अब किसी जवाब में नहीं, बल्कि उस लिखने की आदत में थी जो उसे ज़िंदा रखे हुए थी।


📖 एक शाम, एक सवाल

एक दिन, घाट पर हल्की बारिश होने लगी।
लोग छतरियाँ खोलने लगे, मगर अवनि वहीं बैठी रही, भीगती रही।

आरव दौड़ता हुआ छाता लेकर आया।
छाता सिर पर ताना और कहा—

"कभी-कभी लगता है, तुम खुद से भी भाग रही हो।"

अवनि ने कुछ देर चुप रहकर कहा—

"मैं बस कुछ भूलना चाहती हूँ… पर दिल, दिमाग से तेज़ भागता है न।"

आरव ने पूछा—

"क्या मैं कभी तुम्हारी किसी चिट्ठी का किरदार बन सका?"

अवनि ने उसकी ओर देखा—गहराई से।
फिर धीमे से बोली—

"तुम पहले किरदार नहीं थे।
पर शायद आख़िरी हो…"


💬 उनकी चुप्पियाँ बोलने लगी थीं

अब शब्द ज़रूरी नहीं रह गए थे।
आरव रोज़ वही चाय लाता, उसी चुपचाप मुस्कान के साथ।
और अवनि… उसी गंगा के किनारे बैठकर चिट्ठियाँ लिखती, जिनमें अब एक नया नाम था—

जिसे शायद उसने कभी कहा नहीं, पर हर पन्ने में बसा लिया।


कुछ रिश्ते आवाज़ नहीं माँगते… बस एक छाँव माँगते हैं, एक सुकून…
और कभी-कभी… एक चाय की प्याली।

कभी-कभी, सबसे लंबा इंतज़ार उस इंसान का होता है, जो कल तक रोज़ मिला करता था।


बनारस की सर्द शामें धीरे-धीरे ठंडी होने लगी थीं।
घाट पर बैठने वालों की संख्या घट रही थी, मगर आरव का इंतज़ार… बढ़ता जा रहा था।

उस शाम कुछ अलग था।

घड़ी ने पाँच बजा दिए थे।
गंगा बह रही थी अपनी गति से… नावें आ-जा रही थीं… पर अवनि नहीं आई।

आरव ने चाय का कप बनाया—उसके लिए, बिना चीनी वाला।
जैसे रोज़ बनाता था।

उसने घाट की हर सीढ़ी पर नज़र डाली…
हर आते-जाते चेहरे को गौर से देखा…
पर वो चेहरा नहीं दिखा, जिसकी वो सबसे ज़्यादा आदत डाल चुका था।

उसने सोचा—शायद बारिश की वजह से नहीं आई होगी। या कोई ज़रूरी काम होगा।

पर वो दिन बीता।

और फिर दूसरा दिन…
और तीसरा…
अवनि नहीं आई।


😔 तड़पते हुए दिन और खाली शामें

आरव अब वो चायवाला नहीं रहा था, जो लोगों को सिर्फ़ चाय देता था।

अब वो घाट पर एक खाली जगह को देखता रहता…
जहाँ वो लड़की बैठा करती थी, जो चिट्ठियाँ लिखती थी…
जिसने कभी कुछ कहा नहीं, पर बहुत कुछ छोड़ गई।

उसने कई बार उस जगह को छुआ, जहाँ अवनि बैठती थी—जैसे कोई गर्माहट ढूँढ रहा हो, जो अब ठंडी हो चुकी थी।

उसने डायरी में कुछ नहीं लिखा…
बस पन्ने पलटता रहा—जैसे अवनि की चिट्ठियाँ बिना पढ़े महसूस करना चाहता हो।


💌 कुछ हफ़्तों बाद… एक वापसी

एक शाम… जब घाट पर बसंत की पहली हवा चली,
आरव चाय की केतली के पास बैठा था—थोड़ा थका हुआ, थोड़ा खोया।

और तभी…

एक धीमा स्वर आया—

"एक चाय… ज़रा मीठी हो आज।"

आरव ने सिर उठाया।

अवनि सामने थी।

थोड़ी कमज़ोर… आँखों के नीचे हलके गड्ढे… होंठ सूखे, पर मुस्कान वही।

"कहाँ चली गई थीं?"
आरव ने खुद को रोक नहीं पाया।

अवनि ने जवाब दिया—

"कभी-कभी ज़िंदगी इतनी भारी हो जाती है कि उससे भागने का मन करता है।
मैं भागी… पर फिर उसी घाट पर लौट आई जहाँ सबसे ज़्यादा सुकून था।"

आरव चुप रहा।
फिर चाय का कप उसकी तरफ़ बढ़ाया।

"आज की चाय मेरी तरफ़ से… और ये भी,"
उसने एक लिफ़ाफ़ा आगे किया।

अवनि ने चौंककर पूछा—
"ये क्या है?"

"तुम्हारी चिट्ठियों का जवाब।
मैंने हर शाम तुम्हारे बिना लिखा… तुम्हारी मौजूदगी को महसूस करके।"

अवनि की आंखों से आंसू टपक पड़े।
उसने लिफ़ाफ़ा पकड़ा… और अपने सीने से लगा लिया।


🌕 चुप्पियों का अंत नहीं हुआ… बस एक नई शुरुआत हुई

उस शाम गंगा की लहरों में कुछ खास था।
जैसे वो भी गवाह बन रही थी एक अधूरे रिश्ते के धीरे-धीरे मुकम्मल होने की।

अवनि ने पूछा—

"क्या मैं फिर से बैठ सकती हूँ यहाँ… तुम्हारे पास?"

आरव ने मुस्कराकर कहा—

"अब ये जगह तुम्हारे बिना अधूरी लगती है।"


कभी-कभी लोग लौट आते हैं…
न खत्म करने के लिए कहानी,
बल्कि एक नया पन्ना जोड़ने के लिए।

 

कुछ कहानियाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं।
वे शहर की दीवारों पर, हवा की महक में और उन घाटों की सीढ़ियों पर हमेशा ज़िंदा रहती हैं…
जैसे बनारस।


अब घाट पहले जैसा नहीं रहा, और शायद वही रहा।

आरव अब भी चाय बनाता है, लेकिन अब उसके ठेले पर "काशी चाय भंडार" के नीचे एक छोटी-सी पट्टी जुड़ गई है—

"चाय और चिट्ठियाँ – ख़ामोशी में डूबी कहानियाँ"

लोग आते हैं वहाँ… सिर्फ़ चाय के लिए नहीं।
वो आते हैं उन एहसासों को महसूस करने, जिनकी महक अब उसकी चाय में बस गई है।

घाट पर अब भी एक कुर्सी खाली रहती है—अवनि की कुर्सी।

कभी-कभी वो आती है—धीरे से, चुपचाप।
बैठती है, डायरी खोलती है।
आरव चाय रख देता है—अब बिना पूछे, बिना बोले।

उन दोनों के बीच अब ज़रूरत नहीं कि कोई कुछ कहे।

उनकी चुप्पियाँ ही उनकी बातचीत बन चुकी हैं।
उनके बीच अब शब्द नहीं चलते—बस समझ होती है, अपनापन होता है।


📜 एक नई शुरुआत

एक दिन, एक युवती घाट पर आई।
उसने अवनि को देखा और पूछा—

"क्या आप ही वो हैं जिनके बारे में सब कहते हैं कि आपकी चिट्ठियाँ किसी लेखक की चाय में घुली थीं?"

अवनि मुस्कुराई और कहा—
"नहीं… वो चायवाले की कहानियाँ थीं।
मैं तो बस एक किरदार थी,
जो वक़्त के साथ… उसकी कहानी में शामिल हो गई।"


🌠 कहानी चलती रहती है…

अब अवनि और आरव मिलकर घाट पर बैठते हैं।
अवनि अब भी लिखती है, पर अब उसकी चिट्ठियाँ अधूरी नहीं होतीं।

और आरव अब सिर्फ़ लेखक नहीं—एक पूरा इंसान बन चुका है, जिसकी हर चाय एक कहानी सुनाती है।


💫 अंत नहीं…

"चाय और चिट्ठियाँ" कोई साधारण प्रेम-कहानी नहीं थी।
यह उन अनकहे लम्हों की बात करती है,
जहाँ प्रेम चिल्लाता नहीं, बस ठहरता है।

जहाँ दो लोग बिना कहे समझते हैं कि—
"तुम अगर हो, तो कहानी अब भी चल रही है..."