The soil of my yard in Hindi Love Stories by Sharovan books and stories PDF | माटी मेरे आंगन की

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माटी मेरे आंगन की

माटी मेरे आंगन की/ कहानी
शरोवन

दूर क्षितिज में एक किनारे खिसकते हुये जब सूर्य की अंतिम रश्मि ने भी बेबस होकर अपनी आखिरी सां*स ले ली तो इसके साथ ही विशाल नदी कीटम के पुल पर बैठे हुये अर्चन का भी दिल डूब कर रह गया। उसने सोचा कि, कितनी आसानी से बगैर किसी भी संवेदना और दर्द के, चाहे कुदरत हो और चाहे मनुष्य ही क्यों न हो, रोशनी का गला दबा कर अंधकार फैलाने की आदत से कोई भी चूक नहीं सका है. वातावरण पर रात के आने वाले अंधकार की चादर फैलने लगी थी। दिन भर से जी­भर के शोर मचाती हुई कीटम नदी की लहरें अब शांत होकर अपने ही स्थान पर मानो धीरे-धीरे थिरक रहीं थीं। शाम होने लगी थी। सूरज बुझ चुका था। पक्षी अपनी बसेरों की तरफ भागे चले जाते थे। दिन भर के थके-थकाये काम करने वाले मजदूर घर लौट रहे थे। कीटम के सहारे से जाता हुआ राजमार्ग काफी व्यस्त हो चुका था। हर किसी को अपने निवास और अपने ठिकाने पर लौटने की शीघ्रता थी, पर अपने ही ख्यालों से जूझता हुआ बेहद उदास और निराश सा अर्चन का मन अपना स्थान छोड़ने का फैसला नहीं कर सका। कितने ही दिन बीत चुके थे और वह रोज़ ही यहां आकर बैठ जाता था। मन को समझाने के लिये या फिर मन में बसी हुई स्मृतियों को दोहराने के लिये? यह बात तो वही बता सकता था। वह सोचता था कि, क्या से क्या सोचा था उसने? लेकिन क्या से क्या हो गया हो गया था? कितने अरमानों से वह अपने प्यार की नदिया में जीवन की किश्ती खेता चला जा रहा था, पर अचानक ही एक बद­मिजाज़ लहर सी आई और पल भर में ही उसके सपनों की दुनियां का चित्र ही बदल गया। कोई खुद ही अपने प्यार के नग्मों को बेच दे या दूसरे की बेबसियां खरीदकर अपने जज़बात का सौदा कर ले तो और बात है, मगर यहां तो उसकी हसरतों को बेदर्दी से निचोड़कर दम तोड़ती आस्थाओं के कफ़न में जानबूझ कर बंद कर दिया गया था। खुद उसके ही अपनों ने उसकी चाहत और भावनाओं का गला बे-रहमी से घोंटा था। वह किसको दोष देता? कहां जाता? किससे शिकायत करता? अपनी ज़िन्दगी के हसीन प्यार की बाज़ी उसने हारी नहीं थी बल्कि जान­बूझकर दांव पर लगाई थी। उसके जीवन का चैन तो गया ही था और सपनों के महल भी चकनाचूर हुये थे, मगर इसके साथ ही किसी की परेशान हसरतें अब सारी उम्र उसके पीछ-पीछे भी भागती रहेंगी; ऐसा तो उसने कभी ख्यालों में भी नहीं सोचा था।

सोचते हुये अर्चन, जिसको उसके जानने वाले उसको उसके घर के नाम ‘काका’ से भी बुलाया करते थे, को महसूस हुआ कि कोई उसके पीछे जैसे बहुत देर से खड़ा हुआ है। उसने अपनी गर्दन घुमाकर अपनी पीठ के पीछे झांककर देखा, लेकिन देखकर वह फिर दूर तक कीटम की लहरों को पुन: बे-मन से ताकने लगा तो उसे अचानक ही अपने नाम का संबोधन सुनाई दिया,

‘काका!’

‘!!’

अर्चन ने सुना तो लेकिन जब कोई प्रत्योत्तर नहीं दिया तो उसके पीछे खड़ी झिलमिल ने उससे बहुत ही धीमे स्वर में उदासी से आगे कहा कि,

‘ऐसे कब तक सोचते रहोगे तुम? इंसानी ज़िन्दगी के ज़नाजे, यदि कभी भी किसी कब्रिस्थान या शमशानों ने लौटाये होते तो मैं सचमुच तुम्हारा सारा दुख अपने दामन में बांध लेती। खुद ही सोचो जब मजबूरियां दीवार बन कर सामने आ जाती हैं तो मनुष्य को कोई न कोई फैसला तो इस संसार में अपना जीवन व्यतीत करने के लिये करना होता ही है।’

‘!!’ अर्चन ने सुनकर तब भी कोई उत्तर नहीं दिया। वह अपनी पूर्व मुद्रा में ही शांत और ख़ामोश बैठा रहा। तब झिलमिल ने उससे फिर कहा,

‘धूलिका तो सदा के लिये चली गई है, पर जो गुबार तुम्हारे सामने छोड़ गई है, मैं नहीं समझती हूं कि तुम उसमें अब कौन सी नई आशा के साथ क्या और कब तक कुछ ढूंढ़ते रहोगे? ज़रा सोचो कि कितने ही लोगों की खुशियां केवल तुम्हारे दो होठों की मुस्कान से जुड़ी हुई हैं?’

झिलमिल की बात को सुनकर भी अर्चन कुछ कह नहीं सका। उसने केवल एक नज़र उठाकर झिलमिल को देखा; उसके लंबे, काले और घनेरे बालों की कुछेक मनचली लटें नदी की लहरों से नहाती हुई वायु के सहारे उसके चेहरे को चूमने का जैसे बार­बार प्रयास किये जा रही थीं। अर्चन पर झिलमिल की सुन्दरता का भी जब कोई प्रभाव नहीं हुआ तो वह बे-मन से नदी के उस पार की तरफ उन लहरों को देखने लगी जो अनायास ही नदी का किनारा तोड़कर दूसरे पार चली जाना चाहती थीं। लेकिन लहरें तो नहीं जा सकीं, पर हां अर्चन जरूर ही उठ कर वहां से चल दिया था। नदी के दूसरे छोर की तरफ और झिलमिल की निराश आंखें उसे जाते हुये केवल देखती ही रहीं। अर्चन चला जा रहा था। अचानक ही एक स्थान पर आकर वह ठहर गया और उस जगह को वह बड़े ही ध्यान और गंभीरता से देखने लगा। यह वह जगह थी जहां से लगभग दो महीने पहले धूलिका की क्षत्­विक्षिप्त लाश नदी के तल से पुलिस की निगरानी में खींच कर बाहर निकाली गई थी। देखते ही अर्चन की आंखों में शबनमी मोती तैरने लगे। दिल में कहीं एक आह सी आकर तड़पने लगी। कितना जुर्म सा करके गई है धूलिका, अर्चन के अभागे जीवन पर? इस प्रकार कि वह क्या टूटा, उसकी तो ज़िन्दगी का सारा ढांचा ही दरक चुका था। सोचते हुये अर्चन अपना सिर पकड़कर वहीं बैठ गया।

झिलमिल, छरहरे बदन की दुबली-पतली, लंबे बालों वाली, बचपन से ही अर्चन के साथ-साथ एक ही स्थान, एक ही स्कूल और कालेज में पढ़ती आई थी। हांलाकि, दोनों ही एक ही साथ और एक संग पढ़ते-खेलते आये थे, लेकिन फिर भी न जाने क्यों अर्चन झिलमिल को उस नज़र से नहीं देख सका था जिस प्रकार की अपना बनाने वाली दृष्टि से वह खुद अर्चन को देखने लगी थी। ज़िन्दगी के किस मोड़ पर कब और कैसे अर्चन झिलमिल को अपने भावी जीवन साथी के रूप में नज़र आने लगा था, इस बात का एक बड़ा आघात् उस समय झिलमिल को लगा था जब कि उसे यह पता चला था कि अर्चन सूबे कांचेवाली गली की एक नामी वेश्या बिंदिया की लड़की धूलिका से प्रेम करने लगा है। वह बिंदिया, जिसके आंगन की मिट्टी को पवित्र जानकर लोग उसके यहां आते थे और उस मिट्टी को खरीद कर, उससे अपनी देवी की प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा किया करते थे। अर्चन की तकदीर कहिये या फिर उसके प्यार के अंजुमन में चुपके से सेंध लगाकर आई हुईं बे-मुरब्बत तकदीरों की बिगड़ी हुईं लकीरें, कि जब वह धूलिका से प्रेम की कई सीढ़ियां लांघ गया तब भी वह यह नहीं जानता था कि धूलिका उसी के शहर में रहने वाली सूबे कांचेवाली गली की वेश्या बिंदिया की लड़की है। वह तो धूलिका को एक बड़े परिवार के अच्छे घर की खाती­पीती लड़की समझता आ रहा धूलिका भी अपने शहर से बहुत दूर एक दूसरे शहर में अर्चन के साथ-साथ कालेज में पढ़ा करती थी। अपनी लड़की धूलिका को अपने ही शहर से बहुत दूर पढ़ाने में बिंदिया की जो दूरदर्शिता थी वह यही कि वह जिस कीचड़ में रह कर अपना जीवन काट रही थी, कभी भी नहीं चाहती थी कि उसकी बेटी भी वही करे।

‘...ख्यालों में सोचते हुए सहसा ही अर्चन को याद आया जब नदी किनारे किसी दिन धूलिका के सामीप्य में बैठे हुए उसके बदन से उड़ती हुई किसी मंहगे परफ्यूम की मन को विचलित कर देने वाली खुशबू में सराबोर होते हुए उसने कहा था कि,

‘एक साल की और बात है। जीव विज्ञान में स्नातकोत्तर पूरा करते ही मैं बाकायदा तुमको, तुम्हारे घर अपनी मम्मी और पापा के साथ मांगने आऊंगा।

‘?’

सुनते ही धूलिका के जैसे कान खटक गये। शीघ्र ही उसने नदी के किनारे बैठे हुये अपने पैर जल से बाहर निकाले और पानी को झाड़ती हुई खड़ी हो गई। खड़ी होकर वह बहुत दूर जाती नदी की धाराओं को भागते हुये गंभीरता से देखने लगी। सोचने लगी कि वह भी कहां से कहां चली आई? बगैर सोचे-समझे कहां के सपने बनाने लगी? अर्चन से कॉलेज में पढ़ते हुये पहले उसने मित्रता की। मित्रता तक तो सब अच्छा था, लेकिन इससे आगे की सीढ़ी पर उसने कदम क्यों रख दिया? क्यों वह उस प्यार­मुहब्बत के चमन में आ गई, जहां पर आकर उसे अपनी पसंद की कलियां चुनने तो क्या देखने का भी हक नहीं है?

‘!!’

धूलिका के चेहरे की भावनाओं में फर्क देखा तो अर्चन ने उसे टोक दिया। वह बोला,

‘ये अचानक से क्या हो गया है तुम्हें? मैंने तुमसे कुछ कहा था?’

‘हां, मैंने सुन लिया है।’ धूलिका ने जैसे निर्लिप्त भाव से कहा।

‘तो फिर...?’

‘मैं सितारों की दुनियां में इतना ऊंचा नहीं उड़ सकती।’ धूलिका ने दूर क्षितिज की तरफ देखते हुये कहा तो अर्चन चौंक गया।

‘अगर मैं पूछूं कि क्यों?’ अर्चन ने एक संशय से धूलिका को देखते हुये कहा तो वह बोली,

‘शायद नहीं।’

‘नहीं?’

‘कभी नहीं।’

‘मेरी आंखों में गौर से खूब देर तक देखो और तब कहो कि, कभी नहीं?’ अर्चन ने एक संशय से भेदभरी निगाहों से धूलिका को देखते हुए उसे झिंझोड़ते हुए पूछा.

‘?’ अर्चन मुहं फाड़ता हुआ, बड़े ही आश्चर्य से धूलिका का चेहरा बहुत देर तक देखता ही रह गया। इस तरह कि धूलिका की इस अप्रत्याशित बात पर वह सहज ही विश्वास भी नहीं कर सका. उसने अपना संदेह दूर करने के लिए फिर एक बार धूलिका को निहारा तो उसने भी अपना चेहरा नीचे झुका लिया. तब अर्चन ने जैसे अपनी दिल की सारी उबलती हुई भावनाओं का गला दबाते हुए भरे गले से कहा कि,

“मुझको ज़िन्दगी की इतनी सख्त और कड़वी सजा सुनाने से पहले अपनी मजबूरी और मेरा गुनाह तो बता दिया होता?’

अर्चन के गंभीर चेहरे पर उदासी के धुंएँ फैलने लगे। धूलिका ने अर्चन के उदास मुखड़े को निहारा तो वह भी तड़प गई। तुरन्त ही वह उसके करीब आई और उसकी आंखों में देखते हुये उससे बोली,

‘देखो काका! मेरी बात को समझने की कोशिश करो। बहुत सी बातें इस संसार के लोग करने की इजाजत नहीं देते हैं। मैं तुम्हें चाहती हूं, पसंद करती हूं, इसका आशय यह नहीं कि मैं सारी सीमायें लांघ कर तुमसे सदा को बंध भी जाऊं। मेरी मजबूरी को समझने की चेष्टा करो। मैं नहीं चाहती हूं कि मेरी वास्तविकता जानकर तुम्हें कोई ऐसा आघात् लगे कि तुम बर्दाश्त भी न कर सको।’ कहते हुये धूलिका सिसकियां भरने लगी तो अर्चन भी गंभीर हो गया।

बाद में अर्चन ने धूलिका से कुछ भी नहीं कहा। वह चुप हो गया, यही सोचकर कि इस गंभीर मुद्दे पर वह फिर कभी उससे सहजता से बात कर लेगा। धूलिका भी ख़ामोश हो गई। कोई भी आपस में कुछ नहीं बोला तो शाम डूबने से पहले ही दोनों ही नदी की लहरों को अंतिम बार निहारकर चले आये। बाद में परीक्षायें हुई। कॉलेज बंद हुआ और गर्मी की छुट्टियों में दोनों ही अगले वर्ष फिर से मिलने का वचन लेकर अपने­अपने घर चले आये। लेकिन इस बीच दोनों की मुलाकात टेलीफोन और ई­मेल के द्वारा होती रही।

इसी बीच अर्चन के परिवार में एक पर्ब्ब आया। रिवाज़ के अनुसार परिवार वालों को वेश्या के आंगन की मिट्टी से देवी की प्रतिमा बनाकर उसकी पूजा और उपासना करनी थी। अर्चन अपने परिवार में अकेला लड़का था। उसकी मां ने सोचाथा कि जवान लड़के को वेश्या के घर से मिट्टी लेने न भेजा जाये, पर उसके पिता दौरे पर थे, यथासमय वे आ नहीं सके थे। सो अर्चन को ही जाना पड़ा। फिर जब अर्चन बिंदिया के घर गया तो वहां पर और भी लोग उसी के समान मिट्टी खरीदने गये हुये थे। अर्चन ने सोचा कि वह सबसे बाद में ही जाये तो बेहतर होगा। तब बिंदिया के घर के आंगन की मिट्टी लेने का जब उसका नंबर आया तो आंगन में चारों तरफ गड्ढे देखकर वह चौंका तो लेकिन उससे भी अधिक वह वहां पर धूलिका को देखकर आश्चर्य से गढ़ गया। साथ ही धूलिका भी आश्चर्य में पड़ गई। दोनों ही ने आंखों ही आंखों में क्या कुछ कहा? कोई नहीं समझ सका। केवल कुछेक प्रश्न दोनों ही की आंखों में तैरते रहे। उसके पश्चात अर्चन ने धूलिका को एक निश्चित स्थान पर मिलने के लिए बुलाया। वह उससे अतिशीघ्र ही मिल लेना चाहता था। धूलिका अर्चन से पहली बार अपने ही शहर में कीटम नदी के तीर पर मिली तो उसे देखते ही वह छूटते ही बोली,

‘अब भी शादी करोगे तुम मुझसे?’

‘हां।’

‘सोच लो? ज़िन्दगी का ये फैसला कोई नर्म सौदा नहीं है। तुमसे शादी करके तुम्हें महज बदनामी के अलावा और क्या दे सकूंगी मैं?’ धूलिका बहुत ही मायूस और उदास स्वर में बोली तो अर्चन ने कहा कि,

‘मुझे तुम मिल जाओगी, इससे ज्यादा मुझे और क्या चाहिये होगा?’

‘मैं तुमसे बहस नहीं कर सकती। ठीक है, पहले अपने घर में मेरा ज़िक्र करके देखो। उसके पश्चात ही कुछ सोचा जायेगा।’ सीधी-सीधी अपनी बात कहते हुये धूलिका ने अपने हथियार डाल दिये।

‘ज़िक्र क्या करना। अगले सप्ताह मेरे घर में तुम्हारे घर से जो मिट्टी लेकर आया हूं, उसी की बनाई हुई देवी की उपासना का कार्यक्रम है। तुम्हें अभी से निमंत्रण दे रहा हूं। घर आ जाना। तभी मैं तुम्हारे बारे में सबको बता भी दूंगा।’

अर्चन ने आत्म-विश्वास से कहा तो धूलिका तुरंत ही उसके गले से लग गई। बाद में वह अर्चन से बोली,

‘ईश्वर की बनाई हुई नदी की यह बहती हुई लहरें ही हमारे पवित्र प्रेम की साक्षी हैं।’

उसके बाद अर्चन के घर में कार्यक्रम हुआ। अन्य मेहमानों के साथ धूलिका भी आई। निहायत ही साधारण वस्त्रों में वह खुद भी एक देवी समान प्रतीत होती थी। लेकिन अर्चन जब तक उसका ज़िक्र कर पाता, उससे पहले ही धूलिका को देखते ही वहां पर आई एक स्त्री उसे देखते ही जैसे चीख़ पड़ी. अपना गला फाड़कर वह चिल्लाई,

‘हे, भगवान? गजब हो गया? यह तो बिंदिया के घर की तवायफ़ है?’

उस स्त्री का इतना कहना भर था कि, सारे घर में जैसे बवाल मच गया। पूजा, उपासना और अर्चना तो अलग, सब ही धूलिका के बारे में जो कह सकते थे, अपने-अपने ढंग से कहने लगे। अर्चन ने यह सब देखकर बहुतों को डांटा और चुप रहने को कहा तो उसके परिवार वालों ने उसे ही ले डाला। धूलिका यह सब सुनकर बर्दाश्त नहीं कर सकी और अपने कानों पर हाथ रख कर घर से वापस निकल आई। सड़क पर भागती हुई आई और उसने एक टैक्सी रोकी और फिर सीधी अपने घर जाकर अपने बिस्तर पर गिर कर फूट-फूटकर रो पड़ी। आज की घटना ने उसे यह समझा दिया था कि चूने से पुती हुई कब्रों समान आज के सभ्य समाज में उसे प्रेम करने की तो क्या, खड़े होने की भी इज़ाजत नहीं है। बाद में अर्चन ने बहुत चाहा कि वह धूलिका से मिले, उससे बात करे, पर धूलिका ने ही उससे मिलना न चाहा। वह उसके घर भी गया, पर अपना सा मुंह लेकर वापस हुआ। इसी उहापोह में अर्चन के कई दिन यूं ही निकल गये। वह चुप रहा, किसी से उसने बात नहीं की। अन्दर ही अन्दर घुलता रहा। और फिर एक दिन उसे धूलिका मिली भी तब, जब कि उसके क्षत्­विक्षित शरीर को कीटम नदी की विशाल लहरों में से पुलिस की निगरानी में निकाला जा रहा था। भले ही उसको समाज में सम्मान से खड़े होने का हक न मिला हो पर अपनी जान गंवाने का अधिकार उससे कोई नहीं छीन सकता था। अपनी खुदकशी करके धूलिका ने ये बात साबित कर दी थी। कितनी अजीब बात है कि जिसके आंगन की मिट्टी पवित्र मानकर उससे एक देवी बनाकर पूजा जाता है, उसी के घर की देवी को लोग हिकारत से देखा करते हैं? आज के सभ्य समाज का ये वाक्य संकीर्ण रिवाज़ों की दीवार पर हर किसी के सामने लिखा हुआ है, पर प्रश्न है कि पढ़ता कौन है? यही हमारी विडम्बना है। दुर्भाग्य है कि, रिवाजों की इस दुनियां में रस्में और रीतियाँ ही जीता करती हैं, चाहे वे कितनी ही जालिम क्यों न हों? अपने पहले-पहले प्यार की दुनियां में सपनों की गुनगुनाती हुई कहानियाँ रचाते हुए धूलिका ने चाहे कितने ही पन्ने लिख दिए हों, पर उसकी कहानी के एहसासों और भावनाओं को इस जमाने की कातिल छुरी ने जिस बे-दर्दी से खुरच दिया था, उसका दुःख और दर्द तो केवल अर्चन और धूलिका ही जानते होंगे.

शाम गहराने लगी थी। बढ़ते हुये अंधेरे के आलम में आती हुई मनहूस रात की अबाबीलों जैसी काली परछाइंयां कीटम की लहरों पर तैरने लगीं थीं। अर्चन अभी तक बैठा हुआ था। अपनी उसी उदास मुद्रा में। बहुत ख़ामोश और तन्हा सा। तभी उसके कंधों पर झिलमिल ने धीरे से अपना हाथ रखा और कहा कि,

‘रात बहुत बढ़ने लगी है। काका, अब तो उठ चलो। चाहे, कल फिर आकर बैठ जाना। मेरी किस्मत में यदि यही है तो मैं तुम्हें रोज़ाना यहाँ बुलाने चली आया करूंगी।’

‘हर रोज़ नहीं, केवल कुछ ही दिनों की बात है।’ कह कर अर्चन उठ कर झिलमिल के साथ चल दिया।

समय का चक्र या तकदीर का फ़साना? कुछ दिनों के बाद इसी कीटम नदी के गर्भ से अर्चन की भी लाश निकाली जा रही थी। धूलिका, अर्चन और झिलमिल, तीनों ही ने आपस में एक-दूसरे को सदा के लिए खो दिया था। पहले के दो, संसार, समाज और उसके उसूलों से नहीं लड़ सके थे और तीसरी झिलमिल, अपने प्यार की एक झूठी आस में मजबूरी के हाथ मलकर ही रह गई थी। शायद यही प्यार है और प्यार का गुणा-भाग भी। हरेक पल, दिन-रात और जीवन की तमाम प्यार की महकती, मुस्कराती रातों में इस प्यार के समीकरण को हल करने की कोशिश में प्रेम करने वाले परिश्रम करते रहते हैं और शेष में शून्य मिलने के लायक भी नहीं रह पाते हैं।

-समाप्त.