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राजकीय महाविद्यालय अजमेर, (जीसीए), उस वक्त जिसमें करीब पांच हजार नियमित विद्यार्थी, तीन सौ से अधिक प्राध्यापक मौजूद रहते थे। राजस्थान का सबसे पुराना महाविद्यालय था जो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अंग्रेज प्रिंसिपल जॉन साहब के नेतृत्व में आगे बढ़ा।पहले प्रवेश सूचियां यहां की निकलती फिर तीनो में नाम नहीं आता तो बच्चे डीएवी कॉलेज, सावित्री महाविद्यालय और अंग्रेजी माध्यम के सोफिया कॉलेज का रुख करते। आदर्श कन्या महाविद्यालय भी था तो श्रमजीवी महाविद्यालय भी था। उस वक्त जीसीए की आनबान शान यह थी कि जिम, स्विमिंगपुल, बड़ी लाइब्रेरी, खेल मैदान, बोटेनिकल गार्डन, कैफे, गर्ल्स हॉस्टल, बहुत बड़ा, सिनेमाहाल से भी बड़ा ऑडिटोरियम, समृद्ध सेमिनार रूम, विशाल स्टाफ रूम, अलग से विभागों के भी स्टाफ रूम, कॉलेज टाइम्स, मैगज़ीन, जिनका आगे मैं भी स्टूडेंट एडिटर बना से लेकर इंग्लिश, हिंदी प्ले सोसायटी तक सब कुछ था। जिसमें भी आप चाहे, अपना विकास करें, पढ़ाई के साथ साथ।
साइकिल पर आते थे और कॉलेज के विशाल, किले जैसे गेट से अंदर घुसते ही लगता था मानो नई दुनिया में आ गए हैं। ऐसी दुनिया जहां कोई शोरगुल, संकीर्णता, विचारों पर पाबंदी नहीं है। है तो व्यक्तिव निखारने की आजादी, बेहतरीन पढ़ाई का माहौल, विचारों और सोच को निखारने का अच्छा वातावरण। उस वक्त जीसीए की और युवाओं की ऐसी धाक थी कि राजनेताओं को तो कार्यक्रम में बुलाया ही नहीं जाता था। विख्यात साहित्यकार, शिक्षाविद, आईएएस, जिला कलेक्टर ही मुख्य अतिथि होते थे। आज जब हर दूसरे कार्यक्रम में राजनीतिक लोग बुलाए जाते हैं तो आश्चर्य होता है। सबसे बढ़कर ऐसे विद्वान शिक्षाविद महाविद्यालय में थे जिनसे पढ़कर सच में ज्ञान की गंगा बहती थी।वह वास्तव में अद्यतन ज्ञान, विचार से भरे पूरे थे। पढ़ाने और विद्यार्थी में रुचि लेते थे। लाइब्रेरी दो मंजिला और कई खंडों में बटी थी। हर नई से नई पुस्तक और सारी कोर्स की किताबें वहां आती थीं। अथाह और अनंत ज्ञान, साहित्य, विज्ञान, वेदांत आदि सब कुछ था। व्यवस्था सुचारू और समयबद्ध थी।
छात्रसंघ अध्यक्ष एक पतली दुबली लड़की ज्योति तंवर बनी थी। किसी नए गठित दल से।उसके बाद वीपी सिंह का देश की राजनीति में संक्षिप्त कार्यकाल प्रारंभ हुआ था तो कई राज्यों में उथल पुथल हुई थी, राजस्थान भी एक था।फिर तीन चार साल तक छात्र संघ चुनाव नहीं हुए थे।
यह दौर था और मैं विज्ञान गणित लेकर अच्छे अंकों से स्नातक कर चुका था। साथ ही पढ़ने की अपनी रुचि और जिज्ञासु प्रवृत्ति के कारण अनेक किताबें बच्चन की आत्मकथा के चारों खंड, कमलेश्वर, शिवानी, देवकी नंदन खत्री, राजेंद्र यादव, महा श्वेता देवी हजार चौरासी की मां आदि यहीं से लेकर मैंने पढ़े।
क्या भूलूं क्या याद करूं :_
-------------------- ------------ यह शीर्षक हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा के पहले भाग का मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा। गर्मी की छुट्टियों में चारों भाग पढ़ डाले। एमए में प्रवेश करने का मैंने तय किया था। विषय चुनने में कोई अनुभव नहीं न ही किसी से पूछा।क्योंकि तब प्राध्यापकों से भय, सम्मान और क्या पूछ ले कि धुकधुकी किस्म का ही रिश्ता था। तो आराम से पढ़ते लिखते और बाहर दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलते हुए विषय पर चिंतन नहीं किया।इसका अफसोस मुझे सारी जिंदगी होता रहा। विषय सही और सटीक चुना जाए तो वह आपको कहां से कहां ले जा सकता है यह ताकत मैंने बहुत वर्षों बाद महसूस की। मैं निरंतर पढ़ रहा था और पिछले ही वर्ष मेरी पहली कहानी स्थानीय साप्ताहिक में प्रकाशित हुई थी। कुछ समय पूर्व लहर पत्रिका के विख्यात संपादक प्रकाश जैन का निधन हुआ था, उनकी पत्नी मनमोहनी जी नवज्योति, एक लोकप्रिय समाचार पत्र की साहित्य संपादक थीं, उनसे मेरी मुलाकात हुई थी। एक परिचर्चा उनसे कहकर मैंने महाविद्यालय के विद्यार्थियों से की थी और उसे तीन बार लिखा था, जो मेरे नाम के साथ नवज्योति में साहित्यिक पृष्ट प्रकाशित भी हुई थी। एम ए हिंदी में करके आगे उसी राह पर बढ़ना था और मीडिया में जाना था।पर यह सब भविष्य के गर्भ में था।उस पर आगे कभी लिखूंगा।
तृतीय वर्ष से ही मैंने वाद विवाद और काव्य प्रतियोगिता में भाग लेना प्रारंभ किया था। कविता में तृतीय स्थान भी मिला, वह सर्टिफिकेट आज भी रखा है मेरे पास।उसी समय बात है नब्बे के दशक की कॉलेज टाइम्स का मैं स्टूडेंट एडिटर बना। मेरे पूर्ववर्ती स्टूडेंट एडिटर और कॉलेज में वाद विवाद प्रतियोगियों में नाम कमा चुके श्री भूपेंद्र यादव थे, जो आज केंद्रीय मंत्री हैं। उनसे उस वक्त हुई पहचान आगे बहुत दूर तक गई। यह माहौल बना हुआ था तो सिर्फ और सिर्फ ऊर्जावान, प्रतिभाओं को पहचानने वाले सुयोग्य प्राध्यापकों के कारण। कोई भेदभाव नहीं था।आप ग्रामीण क्षेत्र के हो या शहरी आप में प्रतिभा है तो उसे सामने लाने का मौका और मंच सब तैयार थे। ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवाओं का अलग समूह और तेवर थे। वह पढ़ाई के साथ साथ शहर भी देखते और उनका इस्तेमाल राजनीतिक दल अपने कार्यक्रमों और रेलियों में भी करते।
विज्ञान में मुझे याद हैं ए.बी. माथुर, गोखरू सर, रेणु माथुर, अनूप कुमार, गोलस जी यह गणित के महारथी थे। पीसी जैन, बच्छावत जी, विमला माथुर, टंडन चाचा भतीजे, एस एन माथुर रसायन पढ़ाते। बी. के.शर्मा, माथुर जी, एक कोई और थे जो नाम याद नहीं आ रहा तृतीय वर्ष में जिनकी क्लास साढ़े तीन बजे लगती, हम लोग इंतजार करते दो बजे से की घर नहीं जाएंगे, पढ़ेंगे पहले। वह आते पढ़ाते।मुझे याद है मैं बाहर से फिजिक्स पढ़ रहा था और उसी अध्याय को रिवाइज करने क्लास में आता था, तो इत्तफाक से एक लंबा डेरिवेटिव सिद्धांत वह प्रारंभ किए।फिर पूछा कोई जानता है? बिल्कुल मैंने हाथ खड़ा किया। यह स्कूल से है मेरे अंदर की ईमानदारी से जो आता है वह बताता हूं। बिना यह देखे कि सामने वाला औपचारिक ही पूछ रहा। तो बुलाया मुझे आगे और चॉक मेरे हाथ में, "करो पूरा"। उपाध्याय सर थे, मैने कल ही पूरा समझा था एक बहुत बढ़िया फिजिक्स शिक्षक एस एन गौर से, जिनसे मैंने फिजिक्स जो सीखा तो आज तक नहीं भुला।मेरे अस्सी फीसदी अंक तृतीय वर्ष में फिजिक्स में आए थे मैकेनिक्स, थर्मोडायनामिक्स, ऑप्टिक्स सब क्लियर। वह बहुत सरल, बिना भय के फिजिक्स पढ़ाते थे।नहीं जानता था यह अनुभव मेरे अवचेतन में घर कर जाएंगे और मेरी पहली नौकरी आगे फिजिक्स शिक्षक की ही होगी।
तो इन शिक्षकों के साथ याद आते हैं मुझे गुरुवर प्रोफेसर बद्री प्रसाद पंचोली जी जिनसे मुझे जुड़े करीब तीन दशक हो गए। हमेशा पढ़ने, लेखन को प्रोत्साहन देने वाले। नए नए से नए युवा के बचकाने लेखन को भी थोड़ा सुधार कर प्रकाशित करने वाले बेहद ऊर्जावान और उत्साही व्यक्तित्व के धनी। उनकी सबसे बड़ी विशेषता की कैसी भी सेमिनार, चर्चा हो उसे तुरंत करने वाले। वह भी अच्छे वक्ताओं और श्रोताओं के साथ। पहले प्राध्यापक जो कई बार कक्षाएं बाहर बगीचे में लेते।सहज, सरल और ज्ञानवान संस्कृत और हिंदी के प्रकांड पंडित। शिखा उस वक्त भी और आज भी। उनके साथ बहुत कुछ सीखा, समझा जाना। कई बार ऐसा हुआ कि तुलसी जयंती या निराला जयंती और बसंत पंचमी मनानी है और प्राचार्य को ही सूचना नहीं। डायरेक्टरेट से आदेश आया तो पंचोली जी को बुलाया कहा। आपने बड़े आराम से मुस्कराते हुए कहा हो जाएगा। कब? आज ही होना है और आधा दिन बीत गया। प्राचार्य कक्ष से बाहर आए युवाओं को कहा एक घंटे बाद सेमिनार रूम में आ जाना है। बीस मिनट में विद्यार्थी आने लगे। हॉल फुल और तीन वक्ताओं के साथ रुचिकर कार्यक्रम प्रारंभ।
प्राचार्य खुश, बच्चे खुश। गुरुजी कभी भी बदले में कुछ नहीं कहते न मांगते।नेकी कर दरिया में डाल। यह हुनर बहुत नजदीक से मैंने देखा, जाना क्योंकि आगे राजस्थान के इतिहास की पहली साहित्यिक पत्रिका संचिता के एक पिलर यह भी थे। जो बहुत सफल और युवाओं को दिशा देने वाली रही। उनका कहना है आप रोज जब भी निकले चार नए लोगों को नमस्ते कहते जाइए। सोचें जहां लोग बड़े बड़े इगो पाले रहते, सीधे मुंह बात नहीं करते वहां एक विद्वान प्रोफेसर इसे कर रहा हर एक से दुआ सलाम। बता दूं उस तुलसी जयंती की गोष्ठी में एक वक्ता उर्दू के प्रोफेसर काजमी साहब भी थे। पंचोली जी से धैर्य, क्षमता, साधनों का रोना नहीं रोकर जो है उससे ही अच्छे से अच्छा कार्य करना सीखा । एक और सीख दी उन्होंने की रोज एक पृष्ट लिखो। साथ ही सौ पृष्ट पढ़ो, उसे विश्लेषित करो तब लिखों।आज भी इसी ईमानदारी को अपने में पाता हूं।
कल्पनाशील, सृजनशील और सार्थक दिशा देने वाले प्राध्यापक और वातावरण:_
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जीसीए में सब तरह के लोग थे।मुख्यत राजपूत छात्रों का बोलबाला था। वह नागौर, सीकर तक के थे।चूंकि एकता थी तो उन्हें जीसीए में एक खास दर्जा प्राप्त था।यह जितने खेलकूद में भी अच्छे थे तो दबंगई में भी माहिर हो जाते थे।मुझे याद है, तीन दशक पूर्व जा दृश्य जब शाम को जीसीए प्ले ग्राउंड पर हॉकी मैच के बाद गोल करने वाला युवा बन्ना (राजपूत को बन्ना सम्मानसूचक कहा जाता है) जिस हॉकी स्टिक से गोल किए थे उसी से एक विरोधी छात्र नेता की टांग पर वार करने जा रहा था। आसपास चार प्रथम, द्वितीय वर्ष के युवा ट्रेनिंग कम आनंद ले रहे थे। ताकत से यह मेरी पहली मुलाकात थी।
उस वक्त तक दर्शनशास्र मुझे अच्छा और पसंद आ गया था। हरिशंकर उग्रा, कुसुम पालीवाल, चित्रा अरोड़ा और व्यास जी हमें पढ़ाते थे। खूब अच्छे से पढ़ते थे । तभी मेरे प्रथम श्रेणी के अंक आते थे।उन्हीं दिनों दिलीप कुमार और राजकुमार की सौदागर फिल्म भी लगी थी। हमारे वरिष्ट वर्ग ने एक छोटी सी वेलकम पार्टी रखी थी। सभी को कुछ न कुछ एक्ट करना था। गाना, डांस या कुछ भी। मुझे याद है पहली बार उसमें मैंने तुरंत एक प्ले का आइडिया सोचा और मेरे साथी उदयसिंह के साथ एक्ट किया।वह यह था कि एक विद्यार्थी को प्राध्यापक डांटता है कि तुम पढ़ाई पर ध्यान दो। विद्यार्थी और निर्देशक मैं बना और प्राध्यापक उदयसिंह जो आज उसी महाविद्यालय में प्रोफेसर है। उसी वक्त संवाद जो मन में बने वह मैंने बोले, उदय की रचनात्मकता मोन थी, फिर भी वह सोच सोच कर बोलता रहा, एक्ट खत्म हुआ। सभी ने तारीफ की।मेरे संवाद कुछ चुटिले थे तो वह सराहे गए। उसके बाद जिंदगी की मंच पर आगे बढ़ चले। एम ए फाइनल ईयर तक आते हुए मैं जूनियर को पढ़ाने लगा था। क्या प्राध्यापक क्या छात्र सभी कहते फिलोसॉफी में कोई दिक्कत हो मेरे पास पढ़ लो। बाद में यही अनुभव एक बेहतरीन सुव्यवस्थित कोचिंग संस्थान का आधार बना। यूजीसी नेट, बैंक, रेलवे, एसएससी की बेहतरीन कोचिंग जिसमें मेरे पढ़ाए बहुत सारे लोग पास हुए। उस पर आगे कभी ।
तो पंचोली जी से मिलने क्लास के बाद जाता था स्टाफ रूम में तो एक धीर गंभीर व्यक्तित्व से उनको सम्मान से बात करते पाता था।एक बार उन्होंने मुझसे पूछा नाम, क्या पढ़ते हो क्या लिखते हो? बताया मैंने।
वह प्रभावित हुए। फिर कुछ दिन बाद कॉलेज में कुछ नेता किस्म के विद्यार्थी परीक्षा खिसकाने की बात को लेकर स्ट्राइक पर थे। कोई छात्र संघ चुनाव नहीं होते थे।क्योंकि मंडल कमीशन के हंगामे के आसार थे।तो जीसीए, और अजमेर की भी यही प्रकृति है, हर दल के नेता मिल गए और स्ट्राइक की।परीक्षा खिसकाई जाए।वह अभयदेव शर्मा संस्कृत के प्रकांड विद्वान और गंभीर अध्येता, डीन स्टूडेंट्स कमेटी थे, जो मैं नहीं जानता था।बहुत सी बातें मुझे पता नहीं थी। मैं क्लास में पढ़ता, फिर डिबेट, साहित्य में मन रमता तो वह करता बस। राजनीति और गुटबाजी, दादा लोग कौन क्या है, कोई मतलब नहीं। गीता दर्शन पढ़ा था कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं। उसे मानता था। तभी जो विद्यार्थी खंगारोत बीएससी में मेरे साथ था, आगे बहुत बड़ा दादा बना, वह मेरे लिए सामान्य दोस्त था क्योंकि हम साथ पढ़ें। ऐसे ही कई सारे, मित्र तो नहीं कहूंगा, से अच्छी ट्यूनिंग थी। क्योंकि उनके और मेरे दायरे एकदम अलग अलग थे।बाद में कॉलेज छोड़ने के दशक भर बाद मुझे मालूम पड़ा कि वह कितने बड़े दादा थे और रविंदर पर तो कई केस थे। सुना कि किसी विवाद में उसकी भी जान चली गई थी। पर बहुत साफ दिल का और अच्छा इंसान था। सिर्फ़ गलत बातों और अन्याय पर उसे गुस्सा आता था। पांच हजार से अधिक छात्र छात्राएं और सैकड़ों प्राध्यापक वाला जीसीए भविष्य की नर्सरी था, हर क्षेत्र की।यहां से कई अर्जुन अवॉर्डी, साहित्यकार, आईएएस, आरएएस, राजनेता निकले हैं।
वर्तमान केंद्रीय श्रम और पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव जी और बीजेपी के उपमहापौर नीरज जैन, उस वक्त भी, तीन दशक पूर्व, संघ की शाखाओं में निरंतर जाते थे और उसी गणवेश में कई बार कॉलेज में दिखते थे।
मेरी बुनियादी शिक्षा रीजनल कॉलेज से थी। जो उस वक्त भी स्टेट स्कूलों और कॉलेजों से आगे था, उस वजह से थोड़ा विचारों में सुलझाव था। तो अभयदेव जी बोले, "संदीप यह सब बेकार की बातों पर स्ट्राइक करते हैं। असली मुद्दे उठाएं तो हम भी साथ दें।" मैं सुनता रहा वह आगे बोले, " स्टूडेंट्स वेलफेयर फंड से साफ पीने के पानी का इंतजाम होना चाहिए नहीं हो रहा। जिस पानी को आप लोग पीते हो उसकी टंकी की सफाई पांच साल से नहीं हुई। कई कीड़े मकोड़े उसने मरे मिलेगे, वह पानी आप सभी पीते हो।" स्टॉफ रूम की खिड़की से मेरी निगाह सीधी गई, सामने लाइन से पांच नल लगे थे और ऊपर सीमेंट की बनी दस बाय बारह की टंकी रखी हुई थी।अभी कुछ देर पहले मैं भी वहीं से पानी पीकर आया था, जिसमें मुझे बदबू महसूस हुई थी। अभी भी वहां कई युवा लाइन से पानी पी रहे थे। वह चेहरे पर वितृष्णा के भाव लाकर बोले, "जगह जगह दीवारों पर गंदगी है। इन्हें कौन साफ करेगा? यह क्यों गंदी होनी चाहिए? यह शिक्षा का मंदिर है। मैने बातें नोट की। फिर मैंने कहा कि, "दर्शनशास्र की एक किताब, सी. एच.कार की हिस्टरी ऑफ फिलासफी, पुस्तकालय में नहीं है।वह मुझे कहां मिलेगी?"
इस पर वह, ईमानदार और गंभीर व्यक्तित्व, जिसे सब बहुत सख्त समझते थे, बच्चे दूर रहते थे, वह छात्र हित में जो बोले मुझे अभी तक याद है। "सारी किताबें प्राध्यापक ले जाते हैं। बिना वजह। एक एक के पास सत्तर अस्सी किताबें इश्यू हैं।कुछ के पास डेढ़ सौ होंगी। और विज्ञान का प्राध्यापक है फिर भी आर्ट्स की पचास किताबें इश्यू किए बैठे हैं? उधर कॉमर्स का प्राध्यापक आर्ट्स और विज्ञान की किताबें लिए बैठा है। बताएं किताबें आप बच्चों के लिए हैं या हम प्राध्यापकों के लिए?हमारे पास किताबें होनी चाहिए। चाहिए तो खरीदें अथवा एक सप्ताह बाद वापस कर दें।यह क्या महीनों, सालों लिए बैठे हैं?"
अपनी खास, पतली पर स्पष्ट और ईमानदारी से भरी खनकती आवाज में वह बोले। मैं हैरान रह गया।क्योंकि यह तो बहुत बड़ा स्कैम था। मुझे समझ आ गया कि संदर्भित किताबें पढ़ने के लिए क्यों नहीं उपलब्ध होती थीं ?
"कई छात्र नेताओं को कहा पर किसी की भी ध्यान देने की फुर्सत नहीं। यह बेकार की बातों पर और कल्चरल नाइट पर ही पूरे साल फोकस करते हैं बस।" मुझे समझ आ गया, पिछले चार साल से मैं भी देख रहा था कि प्राचार्य एक सांस्कृतिक कमेटी बनाते जिसमें अध्यक्ष आदि सभी गुट और जाति विशेष के छात्र होते।जिन्हें हमने कभी देखा नहीं होता। क्योंकि उसका काफी बजट होता और कई सारे रंगीन और आगे भी लाभ वह जुगाड लेते। यह चुनावों की जगह अपनी ताकत दिखाने का उन लोगों का ढंग था। शर्मा जी बात कहके, स्टाफ रूम के मटके से, फ्रिज, कुलर तब नहीं था, पानी पीकर, मेरे साथ बाहर आ गए। मैने भी घर की राह ली।अगले माह परीक्षा थी फिर फाइनल ईयर में आ जाता मैं। इन बातों ने काफी उद्देलित किया मुझे।क्योंकि सीधे सीधे सभी से जुड़ी बात थी। पर छात्र नेता ही ध्यान नहीं दे रहे थे? परीक्षाएं सिर पर थीं तो मैंने सिर झटका और पढ़ाई में जुट गया। पांच से आठ घंटे रोज पढ़ना। उस वक्त वन वीक सीरीज, गाइड का नाम तक नहीं सुना था।बस जो पढ़ा, लिखा पूरे वर्ष उसका अच्छे से दोहराव।चूंकि समझ आता था विषय और गणित की बैकग्राउंड थी तो सभी में अच्छे नंबर आए और लॉजिक में सबसे अधिक अस्सी। उधर हमारे अनुज मनोज वह पूरे वर्ष खेलते, टीवी देखते और परीक्षा से एक दिन पहले पढ़ते।वह भी बीए पार्ट थर्ड में फर्स्ट डिविजन ले आते।पता नहीं उसके दिमाग में क्या था कि जो पढ़ता हाल याद हो जाता ।वह प्रोफेसर हैं राजनीतिशास्त्र के।
********* जीसीए में ही नहीं हर कॉलेज को इंतजार होता है नए सत्र और नए प्रथम वर्ष के युवाओं के आगमन का। उनकी बड़ी अच्छी रैगिंग भी होती तो कई बार रैगिंग करने वाला आगे मदद भी करता। सब रंग थे इस विशाल कॉलेज में। एम ए फाइनल के आरम्भिक दिन।फिर पढ़ने और साहित्यिक समूह को सक्रिय करने का वक्त ।
पिछले ही वर्ष जब कॉलेज पत्रिका का मुझे स्टूडेंट एडिटर बनाया था तो मैंने नवाचार किया था। वह यह की फर्स्ट ईयर से ही विज्ञान, कला, कामर्स की कक्षाओं में जाकर जिन जिन युवाओं की रुचि पढ़ने, कविता, साहित्य, जीके में थी उनके नाम आदि उन्हीं के एक साथी के साथ नोट करके एक खाली हॉल में क्लास के बाद आमंत्रित किया था। अलग अलग दिन विज्ञान, कॉमर्स, आर्ट्स के युवा। उद्वेश्य था कि एक सकारात्मक, सही सोच और जागरूक युवा बने जो मौलिक सोच से आगे बढ़ें। साहित्य जोड़ता है, सोचने की समझ और सही गलत का भेद विकसित करता है। सबसे बढ़कर अपनी आवाज को उठाने का हौंसला देता है। तो समूह सक्रिय हो गए थे पिछले ही वर्ष।उनके नाम, आज दे तीन दशक पूर्व बना रखे थे पहल, आर्ट्स के युवाओं का, प्रयास विज्ञान के युवा, समानांतर, कॉमर्स युवा दोस्त। एक से सवा घंटे का समय मैं उनके लिए निकालता था, हफ्ते में तीन बार। प्रारंभ पुस्तकालय हॉल से किया फिर आगे दोपहर को खाली पड़े पीजी ब्लॉक के कक्ष से।
इतना अच्छा और शानदार रिस्पॉन्स दिया फर्स्ट ईयर के इन युवाओं ने की पूछो मत। पूरी निष्ठा से अपनी साहित्यिक, सांस्कृतिक रुचि को विकसित करते। चूंकि मेरे पास अनुभव था अनेक किताबों और लोगों से मिलने का तो मैने इसी में आधे घंटे की सामान्य ज्ञान की क्विज भी जोड़ दी। उस वक्त सिद्धार्थ बसु का क्विज कार्यक्रम टीवी पर बहुत लोकप्रिय था।किया हमने क्विज प्रोग्राम जो और अधिक लोकप्रिय हुआ युवाओं में। इसमें स्पोर्ट्स, साहित्य और सामान्य ज्ञान की हर विधा शामिल होती।
वह दौर युवा भूले नहीं।मुझे आज भी उनके मैसेज, संदेश आते हैं। बहुत ही अच्छा माहौल था।कोई छात्र संघ चुनावों की आहट नहीं थी। न ही मेरा कोई उद्देश्य था। बस रचनात्मकता बढ़े और युवाओं में अच्छे संस्कार बढ़ें। वह बेहतर इंसान और एक दूसरे की मदद करने वाले बने।
बांधो न नाव इस ठोर बंधु
--------------------------------दो वर्षों तक लगातार चलाए गए यह समूह। फिर मेरी पीएचडी की व्यस्तता बढ़ी पर युवाओं की डिमांड के आगे और चलाए।हुआ यह अब इन समूहों में नए फर्स्ट ईयर भी जुड़ते और सेकंड ईयर में आ चुके युवा भी रहते। सभी के लिए ओपन मंच था। जीसीए में ऐसा माहौल था उन दिनों की प्राचार्य पदक, प्रिंसिपल गोल्ड मैडल के लिए मेरा नाम लगातार दो बार गया। डीन, छात्र अधिष्ठाता शिव कुमार शर्मा, हिंदी के प्रोफेसर थे उससे पूर्व सम्मानित गुरुजी पंचोली जी, आज के बड़े पत्रकार और संपादक इंदुशेखर पंचोली के बाबूजी, वह डीन थे। तो मेरे प्रोत्साहन से युवा अपनी रचनाएं कॉलेज टाइम्स, मैगज़ीन हेतु देते तो उसके ऊपर "पहल", समानांतर, प्रयास " लिख देते की यह इस वर्ग से हैं।शिवकुमार जी उसे चुनते तो वह नाम देखकर हैरान होते की यह देश की जानी मानी पत्रिकाओं के नाम अभी अभी पढ़ने आया युवा कैसे जानता है? यह तो पता होना ही चाहिए कि कहीं निर्मल वर्मा, परसाई, ज्ञानरंजन, पंकज बिष्ट तो हमारे मध्य नहीं हैं? खोजी प्रवृत्ति के वह मुझ तक पहुंचे। मिले, पूछा " यह क्या है कि हर रचना पर अलग अलग नाम हैं?"
मैं उस वक्त दैनिक नवज्योति में एक आलेख देने जा रहा था, तो स्टाफ रूम के पास वाले गेट पर बात हो रही थी। मैने बताया कि यह अलग अलग स्ट्रीम, विज्ञान, आर्ट्स, कॉमर्स के रचनात्मक युवाओं के समूह हैं। वह बेहद प्रभावित हुए और मेरी तरफ प्रशंसा की दृष्टि से देखा, बोले, " बहुत अच्छा काम कर रहे हो। युवा पीढ़ी को लोग मिसगाइड करते हैं तुम सही दिशा में ले जा रहे।" मैने उन्हें धन्यवाद दिया।वह बोले इस पर एक लेख लिखो, सब जाएंगे। मैने विनम्रता से मना किया कि अपने कार्य को क्या बखान किया जाए? सब ठीक है जी। रचनाधर्मिता में ईश्वर का वास होता है तो वह ईश्वर ही मुझसे करवा रहे और कुछ देना होगा वह आगे दे देंगे।मैंने यह सब किसी फल की इच्छा से तो किया नहीं।
बाद में पता चला मेरा नाम प्राचार्य पदक के लिए उन्होंने भी रेफर किया। एक बार तो मैडल मिलने वाला था पर एक मित्र सम अग्रज, जो छात्र राजनीति में चाणक्य माने जाते थे, के कहने पर मैंने नाम वापस लिया।"यार मेरा, अंतिम वर्ष है लॉ का आपको तो अगले साल फिर मिल जाएगा। देख लो, कुछ हो जाए।" वाद विवाद प्रतियोगिताओं का चर्चित मित्र कुछ मांगे और हम क्यों नहीं दें? तो अपन ने नाम वापस ले लिया और संतोष रहा कि मित्र के काम आए।
हालांकि आगे जिंदगी इतनी तेज चली कि दुबारा मौका नहीं मिला।
आज भी दोनों गुरुवर से मेरा बराबर मिलना जुलना होता है।
एक रोशनी सी उठती है आज तलक
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मेरे प्रिय आलोचक रामविलास शर्मा की इन पंक्तियों से प्रेरणा मिलती है नया कुछ करने की...
"विंध्य के सागौन वन को भेदकर/ झील के निष्कंप जल को लांघ/ चुन रही महुआ/ उत्तरायण सूर्य की तिरछी किरण/ आ रहा पूरब क्षितिज से।"
वह सुनहरा दौर था और मैं कॉलेज मैगज़ीन का स्टूडेंट एडिटर नियुक्त किया गया था। प्राचार्य बादशाह के नाम से प्रसिद्ध पी एन माथुर साहब थे।अच्छे इंसान थे।उनके भरोसेमंद लेफ्टिनेंट थे प्रोफेसर डी सी मेहता, बहुत ही व्यावहारिक। तो जब यह चला दौर बड़ी ही शांति से तो मुझे मिले एक दिन अभय देव जी शर्मा, बोले, अपनी अपनत्व भरी आवाज में, "तुम्हे कुछ बताया था।तुमने कुछ किया नहीं?" मैं उस वक्त तक कलम और किताब वाला लड़का था।पर यह एक सम्मानित प्रोफेसर कह रहे और सही, वाजिब बात कह रहे तो कुछ करना ही था। "जी करता हूं कुछ।" उस वक्त अधिक नहीं सोचता था और सही बात है तो एक्शन तुरंत।कौन साथ देगा कौन नहीं यह कभी सोचा नहीं। अगले ही दिन क्लास के बाद के फ्री कालांश में जीसीए की विशाल लाइब्रेरी में बैठा पढ़ रहा था तो एक दो को बताई यह बातें। वह हैरान रह गए।बोले भैया यह तो सभी को बताओ, सब साथ देंगे।
युवा मेरा साथ देंगे यह अपन ने सोचा नहीं था। मुझे आज भी याद है यह विचार आते ही अगले दिन जीसीए के विशाल पुस्तकालय के लॉ सेक्शन की लंबी मेजों और कुर्सियों पर यह छात्र बैठक हुई। अनुज सम भूपेंद्र सिंह राठौर, बीए, द्वितीय वर्ष, सभी को वहां ले आए। पहला मौका था, वह भी सामाजिक सरोकार और छात्र हित के कार्यक्रम का।
भरा हुआ हॉल और वक्ता मैं।बिना माइक के ही आवाज स्कूल से ही बुलंद है, डीएवी स्कूल में तो सुबह न्यूज भी पढ़ता था। मैने यही कहा, जो प्रोफेसर अभयदेव शर्मा जी से सुना और देखा था। "आप कीड़े और छिपकली गिरा पानी रोज पीते हैं। वर्षों से पानी की टंकियों की सफाई नहीं हुई। कौन कहेगा? एक भी छात्र नेता का ध्यान इस तरफ क्यों नहीं जाता? कॉलेज में पढ़ाई के साथ साथ अपनी जिम्मेदारी महसूस करना और गलत बातों के खिलाफ आवाज उठाना भी आना चाहिए।" प्रभाव इतना पड़ा कि सौ, डेढ़ सौ छात्र छात्राएं बिलकुल खामोश। लाइब्रेरी के अन्य कर्मचारी और आगंतुक छात्र छात्राएं भी आ गए।
मुझे भीड़ की आदत नहीं। पर माहौल सकारात्मक और जोश भरा था।
आगे की बात जो बोली, उसने तो पूरे जीसीए में तहलका मचा दिया।ऐसा कभी हुआ नहीं था जीसीए के इतिहास में। वहीं आगे एक छात्र, एमए पूर्वार्ध राजनीति विज्ञान, कम बोलने और खूब किताबों को पढ़ने वाला भी सुन रहा था। भैया सही कह रहे के भाव के साथ।
" आप सभी पुस्तकालय में किताबें पढ़ने और कोर्स की संदर्भ पुस्तकें पढ़ने आते हैं।ढूंढते हैं पर मिलती नहीं। नॉन लैंडिंग सेक्शन, यहां हर कोर्स और संदर्भ किताब विद्यार्थी आई कार्ड दिखाकर, वहीं हॉल में बैठ पढ़ने के लिए ले सकता है, में भी नहीं मिलती।क्यों?"
कहकर मैं दो पल मौन हुआ, प्रभाव देखा।
" जबकि सभी नई से नई और जरूरी किताबें आपके हमारे लिए ही यहां आती हैं। परंतु वह प्राध्यापकों के घर चली जाती हैं।आपको नहीं मिलती। एक एक प्राध्यापक पचास से डेढ़ सौ तक इन जरूरी किताबों को लिए पता नहीं क्यों बैठे हुए हैं? हद यह है कि कॉमर्स का व्यक्ति विज्ञान और आर्ट्स की और विज्ञान का प्राध्यापक आर्ट्स की पुस्तकों का क्या कर रहा है?"
बात सही, सच्ची और सबके हित की थी, सीधे दिल पर असर कर गई। "हम इन किताबों को वापस मंगवाने को कहेंगे जिससे आप सभी को मिले।" सुनते ही जोरदार तालियों की ध्वनि मेरे कानों में गूंजी। बता दूं यह सब निस्वार्थ अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए किया था। जीसीए में भी यह खास बात थी और आज भी शायद होगी, कि यह समय के साथ चलता था।इसके प्राध्यापक और विद्यार्थी दोनों अद्यतन ज्ञानवान और अपडेटेड रहते थे।गलत बातों का तुरंत विरोध होता था।युवा बेहिचक साथ देते थे।आज तो युवा भी पार्टियों के खेमों में बंट गए हैं। एक बात का विरोध करता है तो दूसरा साथ नहीं देता।पर उस वक्त ऐसा नहीं था।पार्टी गौण थी और मुद्दे जरूरी यदि आप उन्हें छात्रों तक ले जा सकें।हमारा यही उद्देश्य था।
तो उसी वक्त आवेदन तैयार हुआ।पीने के पानी की टंकी की सफाई और उसके नुकसान बताए तो सारे युवा हैरान रह गए। ऐसा हो रहा और सब वही पानी पीते थे।
हॉल में लगातार भीड़ बढ़ रही थी क्योंकि इन मुद्दों पर कभी किसी ने नहीं सोचा था (आज भी शायद कोई नहीं सोचता होगा।क्योंकि आज तो बस राजनीति ही करनी है। मूल्य, मुद्दे और वास्तविक समस्याएं अभी भी महत्वपूर्ण हैं और युवाओं पर असर डालते हैं। इन पर वर्ष में दो बार महाविद्यालय प्रशासन को भी कार्यवाही करनी चाहिए।पहले हस्ताक्षर मैंने किए, मेरे बाद उस कम बोलने वाले युवक ने फिर करीब सौ और हुए। मुझे नहीं पता था वह पढ़ाकू और मेहनती युवा आगे इसी जीसीए का प्राचार्य बनेगा, प्रोफेसर मनोज कुमार बहरवाल।
वह हस्ताक्षरयुक्त ज्ञापन कब तत्कालीन प्राचार्य पी एल माथुर के पास पहुंचा और रिपोर्ट भी।प्राचार्य की एक अघोषित पॉलिसी होती है छात्रहित को तरजीह देना। न की गलत बातों की वकालत करना। बादशाह प्रोफेसर पी. एल. माथुर ने एक्शन लिया।क्योंकि ज्ञापन पर काफी हस्ताक्षर थे।भूपेंद्र सिंह और अन्य युवाओं का सहयोग था।
अगले ही दिन बैठक हुई और सभी प्राध्यापकों को पंद्रह दिन में किताबें जमा करवाने का नोटिस दे दिया गया। यह मुझे बाद में एक दिलचस्प घटना से पता चला।
कुछ दिन से मैं देख रहा था कि आते जाते क्या प्राध्यापक और क्या कुछ नेता मुझे ध्यान से देखें।मेरी तरफ निगाहें उठाए ।जबकि मैं तो पढ़ने, साहित्य, डिबेट, युवाओं की साहित्यिक गोष्ठियों में व्यस्त, भूल ही गया कि कोई ऐसी मीटिंग और ज्ञापन दिया था।
अगले दिन देखा, जहां पानी के पांच, छ नल लगे थे, उसके ऊपर की सीमेंट की टंकी पर लगे लोहे के ढक्कन का ताला तोड़कर सफाई के लिए आदमी अंदर गया। चाबी ही खो गई थी इतने वर्ष हो गए थे।
मैं स्टॉफ रूम में पहुंचा ए. डी.शर्मा जी से मिला। उन्हें सब बताया क्या हुआ है।वह जानते थे क्योंकि डीन होने के नाते। उन्होंने खिड़की से यह नजारा देखा।वह अपनी मीठी मधुर वाणी में बोले, " शाबाश, अच्छा काम किया। छात्र अधिष्ठाता होने के नाते मैं उस मीटिंग में था जिसमें यह सफाई और किताबों की वापसी की बात हुई थी। मैने कहा यह छात्रों का हक है उन्हें मिलना ही चाहिए।प्राध्यापकों को इतनी अधिक किताबें बिना वजह लंबे समय तक रखने का कोई हक नहीं।और साफ पानी तो हर इंसान का हक है।मासूम बच्चों को यदि ज्ञान नहीं पर हमें तो है। क्यों हम उन्हें गंदा, अशुद्ध पानी पिलाए?"
आज सोचता हूं कितनी बड़ी नैतिकता की सीख उन्होंने दी थी कि कोई मांग न भी करे या उसे जानकारी नहीं भी हो पर फिर भी उसके हक उसे मिलने चाहिए।जो जानकार हैं उन्हें उस हाशिए पर खड़े व्यक्ति के हक देने ही चाहिए। आज भी उसी ईमानदारी और निष्ठा से जितना जहां बस चलता है, यही करने की कोशिश करता हूं। हालांकि अधिक बस नहीं चलता।
मुझे याद है अगले दिन दर्शनशास्र विभाग के अध्यक्ष हरि शंकर उग्रा मुझे मिले और आश्चर्य से पूछा, "तुमने ही वह किताबों वाला आंदोलन करवाया है?" क्योंकि मैं बेहद खामोश और चुप रहने वाला लड़का था और क्लास में ध्यान से पढ़ता था, तभी मेरी प्रथम श्रेणी भी आई और आगे पीएचडी की राह भी खुली।हालांकि पहली पीएचडी कोई काम अभी तक तो नहीं आई।यूजीसी नेट, उत्तीर्ण हो गया था।आगे हिंदी की पीएचडी बहुत काम आई। फिर डीलिट.भी दो बार मिल गई। एक बार देश से तो दूसरी बार विदेश से।
पर उस वक्त पता नहीं था कि दर्शनशास्र की वेकेंसी मात्र सात या आठ वह भी कई वर्षों बाद आती हैं। उसमें भी भिन्न भिन्न आरक्षण, रोस्टर। हालांकि आगे एक बड़ा संस्थान ईश्वर खुलवाने वाला था मेरे हाथों यह पता नहीं था।
क्या मर्जी है ऊपर वाले की? शंकर वेदांत पर बड़ा मूल और श्रम साध्य शोध कार्य पांच साल मैंने किया था। उस पर आगे कभी लिखूंगा। मेरे हां कहने पर उग्रा सर बोले, " तुम्हे कैसी भी, कभी भी किताबों की जरूरत हो, मुझसे, मेरे अकाउंट से ले सकते हो।" वर्ष था उन्नीस सौ बरानवे और यह पहली वह लाभदायक रिश्वत थी, जो एक छात्र को मिल रही थी।छात्र को ज्ञान था न अहसास की क्या और कितना बड़ा कार्य हो चुका है। तकदीर खुल चुकी है पर दूसरे क्षेत्र में।जबकि अपन साहित्य पढ़ना, लिखना, दर्शनशास्र समझना, यूजीसी नेट और आगामी वर्षों में पीएचडी की तैयारी में मगन।
मैने विनम्रता से कहा, " सर, मेरे पास सब किताबें हैं। यह उन नए बच्चों के लिए हैं जिन्हें किताबों की जरूरत है।जिन्हें नहीं मिल पाती।" वह मुझे देखते रह गए। मुझे नहीं पता था कि यही कुछ वर्षों बाद पब्लिक सर्विस कमीशन के मेरे साक्षात्कार में मेरा नुकसान करेंगे।
खैर, ईश्वर ने जो किया है वह भी कुछ कम नहीं अपने लिए।अपन आभारी हैं सदैव श्री आदिशक्ति के। अभी तो यात्रा प्रारंभ हुई है।।उसके बाद अनेकों ने मेरे लिए कुछ भी करने का ऑफर दिया।
जीसीए के विशाल पुस्तकालय में नई, पुरानी, संदर्भ ग्रन्थ और अन्य किताबें रोज जमा होने लगी। करीब चार हजार किताबें जमा हुई l हर एक ने जमा करवा दी। और वह मिलती पढ़ने और अध्ययन हेतु नए और जरूरतमंद युवाओं को। जब भी मैं पढ़ने जाता मुझे युवा लोग पुस्तकालय में पढ़ते मिलते। वह कम बोलने वाला, दाढ़ी वाला युवा अक्सर कुछ मन के प्रश्नों को लिए मेरे से जरूर मिलता।वह उस वक्त भी थोरो जेंटलमैन, मृदु बोलने वाला था और आज भी है। नो नॉनसेंस बंदा।
**** उस वक्त के छात्र नेता अलग ही धुन में रहते थे।म्यूजिकल नाइट पर गुट विशेष का कब्जा था। छात्र संघ चुनावों पर तीन वर्ष की रोक थी।अपना ध्यान साहित्य, संस्कृति, संचिता पत्रिका निकालने और पढ़ने में था। मजे की बात है कि जरा भी अहसास नहीं था कि कुछ खास या विशेष हो गया है, हो रहा है।कद बहुत बढ़ गया है, कभी भी अहसास नहीं हुआ। आज भी लोग मिलते हैं, याद करते हैं उन दिनों को जब उन्हें साहित्य, जीवन, किताबों और गलत को गलत कहना सिखाया, बहुत अच्छा लगता है।संतोष होता है कि जीसीए के प्रांगण में कुछ खास किया।
उसी दौर में अपने युवा दोस्तों को बच्चों कहना प्रारंभ किया। कुछ को खुद ही कहा कि मुझे भैया कहा करें। नई बात थी क्योंकि कॉलेज का माहौल कैसा होता है, सब जानते हैं। मुझे खुशी होती क्योंकि यही संस्कार और विचार रहे। उस वक्त के हमारे कई साथी अच्छा कार्य कर रहे केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, उन दिनों वाद विवाद प्रतियोगिताओं में जाना पहचाना नाम, संघ से जुड़े हुए थे। नीरज जैन, अभी उप महापौर, गौरव बजाड़, वरिष्ट प्रशासनिक अधिकारी, पुरुषोत्तम वैष्णव, जी टीवी के राजस्थान प्रमुख, दो वर्ष बड़ों में अनिल चांवरिया, कर्मठ और सुलझा हुआ इंसान, इंदुशेखर पंचोली, अमर उजाला अखबार के उत्तर प्रदेश प्रमुख, सुरेंद्र सिंह शेखावत, पूर्व महापौर और रीजनल कॉलेज से पढ़े अच्छे बड़े भाई आदि। उन्हीं दिनों कई युवा वाद विवाद प्रतियोगिता में अक्सर मुझसे पॉइंट्स लिखवाते। क्योंकि निरंतर नई किताबों और प्रतियोगी पत्रिकाओं सीएसआर, क्रॉनिकल आदि भी पढ़ता था।
उनसे मैने ग्रुप डिस्कशन भी होने लगा था इन गोष्ठियों में।जो युवाओं के लिए एकदम नया था।आगे बहुत काम आया युवाओं के।
अखिल भारतीय स्तर की एस. एस. माथुर वाद विवाद प्रतियोगिता वर्षों से होती थी।मुझे भाग लेने का अवसर मिला पर जीतने का नहीं। हालांकि कविता, कहानी, परिचर्चा में काफी सम्मान जीते।
उस वक्त कई बेहतरीन युवा थे जो वाद विवाद, एक्टमपोर प्रतियोगिताओं में भाग लेते, अपना विकास करते। प्रतीक, रचना शर्मा, वर्तिका शर्मा, अनुज मनोज अवस्थी, जो इतना चुप रहता की बोली सुनने को लोग तरस जाएं। पर उसके दोस्तों लोकेश, विवेक, लोकेंद्र, तीनों शिक्षक, राजीव तोलानी, कंप्यूटर शिक्षक, चरणजीत सिंह भारतीय विदेश सेवा अधिकारी में खूब हंसता खेलता। तो वह भी बाद विवाद में उतरता। वह बाहर सांभर महाविद्यालय तक हो आया। फिर वह भाग लेने स्थानीय कॉलेज में गया और प्रथम पुरस्कार लेकर आया, अपनी मेहनत और मेधा से। उसकी खास बात यह कि एक बार जो पढ़ ले, देख ले वह चीज उसे जुबानी याद।कभी भी, चाहे वर्षों बाद, पूछो l
अब युवा मुझसे वाद विवाद के पॉइंट्स लिखवाते।मुझे साहित्य, दर्शन और वाद विवाद के बिंदुओं में थोड़ी बहुत महारत। अक्सर ऐसा होता कि पक्ष में बोलने वाला मुझसे बिंदु लिखकर ले जाता तो एक घंटे बाद उसके विपक्ष ने बोलने वाला आता और विपक्ष के बिंदु मैं उसे देता।आज सोचता हूं युवा कैसे जानते और समझते थे कि भैया से पॉइंट्स उसने लिखवाए तो मैं भी लिखवालूं। मेरा ज्ञान थोड़ा बहुत जो भी था, उसे मैं विस्तार देता था, पूरी ईमानदारी से।
अक्सर वह जीतकर आते और मुझे बताते। उनके चमकते चेहरे पर खुशी मुझे बहुत अच्छी लगती। कई बार पक्ष विपक्ष में दोनों तरफ विश्वविद्यालय स्तर पर मेरे ही तैयार किए युवा होते। एक फर्स्ट आता तो एक थर्ड।
एक बार तो अनुज मनोज के सामने दूसरा विपक्षी मेरा ही तैयार किया हुआ। वह फर्स्ट आई और अनुज द्वितीय। बहुत दिलचस्प रहा और पूर्णतः अकादमिक।
यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ऐसा माहौल ईश्वर ने बनवाया पढ़ाई, लिखाई, डिबेट, साहित्य और चर्चा परिचर्चा का। वह जीसीए के इतिहास में पहली बार बना था।उसकी चर्चा शहर के हर कॉलेज में थी।साप्ताहिक समूह बेहतर से बेहतरीन होते जा रहे थे।पता चला कई युवा छात्र छात्राएं भले ही उस दिन छुट्टी पर हो पर घर से खास साप्ताहिक गोष्ठी के लिए आते थे।कुछ की कक्षाएं दिन में बारह बजे समाप्त पर समूह की बैठक दो बजे है, क्योंकि मैं तब फ्री होता था, तो इंतजार कर रहे हैं।क्योंकि क्विज में भाग लेना है। इस बार क्विज होगी। जिसके लिए एक दिन पहले मैं सवाल जवाब कार्ड पर तैयार करता था, सिद्धार्थ बसु की तरह। जब समूह चलते मैंने महसूस किया एक सकारात्मक ऊर्जा, उत्साह और उमंग दिखती यह करिश्मा उन सभी युवाओं का था, है, जो ईमानदारी से अपनी रचनाधर्मिता बढ़ाते, कुछ सीखना चाहते।उनमें पहले सभी अपनी रचना अथवा कोई घटना सुनाते।फिर ग्रुप डिस्कशन होता हर एक को दो मिनिट मिलते, जो भाग लेते। फिर एक हफ्ते क्विज होती तो जीडी नहीं होता।डेढ़ घंटे में गोष्ठी पूरी।हर बार इन्हें लगता की थोड़ी और चलनी चाहिए।पर यही तो साहित्य, सत्संग का आनंद है कि थोड़ा आगे के लिए बचा रहना चाहिए, यह मैं जानता था। इससे यह और लोकप्रिय हुए। बस जो नहीं जुड़ पाए वह रहे जो गर्ल्स साइकिल, बाइक स्टैंड पर घंटों बगुले की तरह बैठे रहते, कॉमन रूम के सामने, कैंटीन में सिगरेट, गुटखे में जीवन तलाशते थे।ईश्वर उनका मंगल करे।
साहित्यिक, वैचारिकी, बहसों में कह सकते हैं बिल्कुल आधुनिक महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्विद्यालय, वर्धा या कहें बीएचयू, वाराणसी जैसा माहौल था। जो मैंने सीखा, साहित्य, किताबों और जीवन से वह मैंने सीमित संसाधनों के साथ अपने युवा दोस्तों में बांटा। कहते हैं जितना विद्या, ज्ञान बांटो उतना ही बढ़ता है, यही मैंने किया।
मुझे कभी अपने वरिष्ठों का सहयोग या मार्गदर्शन नहीं मिला, यह अच्छा ही हुआ। वह अधिकतर ऐसे ही थे जो राजनीति करते, इसकी उसकी करते, चीजों को छुपाते, अवसर होता भी किसी प्रतियोगिता में जाने का तो दूसरे को नहीं बताते। अवसर, कॉलेज प्रतिनिधित्व करने का, भले ही चले जाए।अच्छा हुआ कि उन तीन चार वर्षों में चुनाव नहीं हुए।तो वह सभी बाहर हो गए। उधर मैं पीएचडी में आगे बढ़ा और छात्रसंघ चुनाव। जिन्हें सब सिखाया था, वहीं अब उसके दावेदार थे।साइंस, आर्ट्स, कॉमर्स सभी अकादमिक और साहित्यिक दृष्टि से मेरे ही तैयार किए थे। तो कोई खड़ा नहीं हुआ ।राजनीति से दूर ही रहना, साहित्य की सीख, समझ।फिर किसी के समझाने पर, उसके दोस्तों ने एक को खड़ा किया अध्यक्ष पद हेतु वह जीत गया।क्योंकि छवि और व्यवहार साफ था। उसके बाद के भी वर्षों में यही हाल कोई तैयार नहीं।उनके नाम उन्नीस सौ चौरानवे से अगले तीन वर्षों में आज भी देखे जा सकते हैं।
मेरा तब तक नेट पास हो गया था l अपना कोचिंग संस्थान एजुकेशन प्वाइंट, जम गया था।जिसमें यूजीसी नेट, बैंक, आर. मेट, कैट कोचिंग की बेहतरीन तैयारी होती थी।
मुझे खुशी और गर्व होता कि युवाओं ने सही और बेहतर ढंग से जीने और समाज को कुछ देने का सबक सीखा।आज भी अनेक जगह वह सब मिलते हैं और एक ही बात कहते हैं, "वह सबसे अच्छे दिन थे "
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(डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक, संवाद लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर हैं।देश विदेश से कई पुरस्कार प्राप्त।यह अंश जल्द आ रही पुस्तक से ।
संपर्क 7737407061, 8279272900
संपादक )