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नारी शिक्षा के एक महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में विद्यापीठ की प्रसिद्धि दिनोंदिन बढ़ती गई। यहां नए नए पाठ्यक्रम खोले गए और देश भर ही नहीं बल्कि विदेशों तक से छात्राओं का पढ़ने के लिए आना जारी रहा।
पांचवें दशक के मध्य में श्रीमती रतन शास्त्री को स्त्री शिक्षा के इस अनूठे केंद्र की मौलिक अवधारणा और कुशल संचालन हेतु सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया।
इसी विद्यापीठ परिसर की एक प्रेरक कहानी से हम आपको परिचित कराने जा रहे हैं जो यहां की एक छात्रा के कर्मठ जीवन की दास्तान कहती है।
पिछली सदी के सातवें दशक का आरंभ था। इन्हीं दिनों उत्तरप्रदेश के सिकंदराबाद जिले से एक साधारण परिवार के प्रौढ़ सज्जन अकेले ही राजस्थान आए। दरअसल अपने परिवार के लिए बेहतर रोजगार की तलाश उन्हें राजस्थान में ले आई। उन दिनों उत्तर प्रदेश की तुलना में राजस्थान राज्य की जनसंख्या काफ़ी कम होने के कारण भविष्य संवारने के अवसर यहां अधिक माने जाते थे। इसी आशा ने उनके कदम राजस्थान की राजधानी जयपुर की ओर मोड़ दिए।
वैश्य समाज के एक मध्यमवर्गीय परिवार से ताल्लुक़ रखने वाले यह सज्जन अपने परिचित दायरे में मित्तल साहब कहलाते थे। ये अपने समाज में कई सामाजिक गतिविधियों से जुड़े रहने के कारण काफ़ी लोकप्रिय भी थे। किसी परिवार में शादी ब्याह हो, कोई सामूहिक आयोजन हो, कोई समाज का उत्सव हो, आप बढ़ चढ़ कर उसमें हिस्सा लेते और निस्वार्थ भाव से ज़िम्मेदारी निभाते। इनका परिवार भी काफ़ी बड़ा था पर अपने सामाजिक सरोकारों के चलते पूरे वैश्य समुदाय को ही आप अपना परिवार मानते थे।
रोजगार की तलाश में जयपुर आने के बाद इन्होंने यहां के त्रिपोलिया बाज़ार में एक दुकान पर नौकरी कर ली और जयपुर में ही किसी परिचित की मदद से किराए का छोटा सा मकान लेकर रहने लगे।
यह स्टेशनरी की दुकान थी जिस पर व्यापार में काम आने वाले सामान, स्टेशनरी, छपाई आदि का काम होता था। धीरे- धीरे अपनी कर्मठता और जिम्मेदारी की भावना के कारण आपने दुकान में एक सेल्समैन से बढ़कर विश्वासपात्र मुनीम का दर्जा हासिल कर लिया।
यहां कुछ स्थायित्व पा लेने के बाद आप अपने परिवार को भी अपने साथ यहीं लेकर आने का विचार करने लगे। परिवार में उनकी वयोवृद्ध मां, पत्नी, दो पुत्र तथा चार पुत्रियां थीं।
उन दिनों बनस्थली विद्यापीठ में अपना कोई विशेष बाज़ार तो था नहीं, ज़रूरत का छोटा - मोटा सामान ही वहां परिसर में मिल जाया करता था। लेकिन अन्य कई ज़रूरी कामों के लिए वहां के स्टाफ को पास के कस्बे निवाई या फ़िर राजधानी जयपुर ही आना होता था।
इसी बात के मद्देनजर विद्यापीठ में आरम्भ से ही रविवार की जगह मंगलवार का साप्ताहिक अवकाश रखा जाता था। इसका लाभ यह था कि एक ओर जयपुर या अन्य शहरों से विद्यापीठ देखने या अपना भविष्य तलाशने आने वाले लोगों को रविवार को विद्यापीठ परिसर खुला हुआ मिल जाता था तो वहीं दूसरी ओर विद्यापीठ के कार्यकर्ताओं को भी मंगलवार के दिन जयपुर या निवाई जाने पर अपने काम कर लाने की सुविधा मिल जाती थी। क्योंकि रविवार को तो सार्वजनिक अवकाश होने से अन्य स्थानों पर भी लोगों के अधिकांश काम नहीं हो पाते थे। अतः विद्यापीठ का मंगलवार को बंद रहना सभी के लिए सुविधाजनक होता था। बहुत से परिवार ऐसे थे जिनमें कोई महिला वनस्थली में पढ़ाई या कार्य कर रही होती तो परिवार के शेष लोग किसी अन्य शहर में रहने वाले होते। ऐसे में दोनों ओर के लोगों को रविवार या मंगलवार को एक दूसरे स्थान पर आने - जाने का सुभीता मिल जाता।
कुछ पुराने लोग यह भी कहते थे कि शायद शांता का देहावसान मंगलवार के दिन ही हुआ था जिसकी स्मृति में विद्यापीठ बसाया गया था, अतः इस दिन को हमेशा के लिए अवकाश के रूप में अपना लिया गया था।
बहरहाल यह व्यवस्था सभी के लिए सुविधाजनक थी।
ऐसे में विद्यापीठ के कई कार्यकर्ता अपने निजी या संस्था के कामों से जयपुर आया करते थे। इन्हीं कुछ लोगों से जयपुर में मित्तल साहब की पहचान त्रिपोलिया बाज़ार की दुकान पर हो गई। जिज्ञासा और रुचि के चलते मित्तल साहब ने विद्यापीठ के बारे में और भी गहनता से जानकारी एकत्र कर ली।
समय निकाल कर मित्तल साहब ने बनस्थली विद्यापीठ का दौरा किया और वहां कार्य करने के लिए एक आवेदन भी दे दिया।
बनस्थली विद्यापीठ गांधीवादी सिद्धांतों पर चलने वाली, पहनने में खादी के वस्त्रों की अनिवार्यता वाली, शाकाहारी भोजन को अपनाने वाली सादगी पूर्ण संस्था होने के कारण वहां आने वाले कार्यकर्ताओं के चयन में इस बात को खासा महत्व दिया जाता था कि कार्यकर्ता यहां के अनुशासन, सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हो तथा अपने कार्य में इस निजी आवासीय संस्थान के प्रति आस्थावान हो।
ऐसे में मित्तल साहब को यहां सामान्य प्रशासन विभाग के अंतर्गत रख- रखाव के विभाग में छोटी सी नौकरी मिल गई।
कहते हैं कि किसी छोटी नाव की सर्वेसर्वा पतवार होने की तुलना में किसी बड़े जहाज का छोटा सा पुर्जा होना ज़्यादा महत्वपूर्ण होता है।
शायद इसीलिए मित्तल साहब को यहां आकर बहुत संतुष्टि मिली और उन्होंने आवास की व्यवस्था हो जाने के बाद अपने परिवार को भी अपने साथ रहने के लिए यहीं बुला लिया।
इतना ही नहीं बल्कि उनके बड़े पुत्र को भी योग्यतानुसार यहां के लेखा विभाग में एक नौकरी मिल गई।
एक ही परिवार के दो सदस्यों के यहां का कार्यकर्ता होने के कारण यहां कार्यकर्ताओं के लिए बने कच्चे मकानों में से दो मकान पास- पास उन्हें अलॉट हो गए। इससे बड़ा परिवार आसानी से यहां समायोजित हो गया। हरे - भरे पेड़ों से घिरे शांत आवासीय परिसर में आकर मानो परिवार की ज़िंदगी ही बदल गई।
चार पुत्रियों में से दो का विवाह हो चुका था और वे अपने - अपने घर जा चुकी थीं। छोटे पुत्र की नौकरी एक राष्ट्रीयकृत बैंक में लग जाने के कारण वो भी किसी दूसरे स्थान पर रहता था। शेष सभी लोग जिनमें उनकी मां, पत्नी, एक पुत्र और दो पुत्रियां शामिल थीं, यहां रहने आ गए।
परिवार को आर्थिक सक्षमता प्राप्त होने के बाद मित्तल साहब कार्यालय से तो समयानुसार सेवानिवृत्त हो गए पर वह घर पर ही रह कर कुटीर उद्योग से जुड़े छोटे - मोटे कामों में समय गुजारने लगे। उन्होंने घर पर ही कई उत्पादों को बनाने और बेचने को अपनी हॉबी बना लिया।
वो अपने बनाए उत्पादों के नाम अपने घर के सदस्यों के नाम पर ही रखते ताकि परिचित लोग उत्साहित होकर उन्हें खरीदते भी और पसंद भी करते।
वीर इंक, उमा बिंदी, सुषमा काजल आदि ऐसे ही उत्पाद थे। इनसे वो आसपास के ग्रामीण बालकों को आत्मनिर्भर बनाकर अपने रोजगार को स्थापित करने के लिए प्रेरित करते। ये छोटा सा प्रयास उनकी हॉबी बन गया।
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