क्या वह सही था?
भीषण गर्मी का दौर चल रहा था। मैं नई-नई कोचिंग जॉइन कर ही रहा था। छुट्टियों के बाद पता चला कि जो पहले पढ़ाते थे, मतलब जिनसे हम छुट्टियों से पहले पढ़ रहे थे, वो कहीं और चले गए — ज़्यादा पैसे के लालच में।स्वाभाविक था, मन में सवाल उठा — अब पढ़ाएगा कौन?इसी सवाल को मन में लिए मैं अंदर गया तो देखा, एक लगभग 5'11" का लंबा और भारी-भरकम व्यक्ति खड़ा था। हम सब जो उस बैच में पढ़ते थे, अंदर आ गए। सर ने अपना परिचय देते हुए बताया कि वो लॉ कर रहे हैं, उन्होंने B.Sc. कर रखी है।पहला दिन तो ऐसे ही मेल-मिलाप में निकल गया।मेरी साइंस की कोचिंग रहती थी, जिसका समय 5 से 6 बजे का था। वही मोर सर मैथ्स पढ़ाते थे। मैथ्स का टाइम 3:45 से 5:00 था, और साइंस का 5:00 से 6:00।स्कूल की छुट्टी हुई, घर पहुँचा, थोड़ा आराम किया, खाना खाया — देखा तो साढ़े तीन बज गए। जल्दी-जल्दी किताब डाली और निकल पड़ा। 3:50 पर कोचिंग पहुँचा। देखा तो कोई नहीं। करीब 15 मिनट बाद सर आए, फिर बच्चे, और फिर पढ़ाई शुरू हुई।मैं पूरा प्रयास कर रहा था, मगर कुछ समझ नहीं आ रहा था। मम्मी-पापा को बताना चाहा, मगर हिम्मत नहीं हुई। फिर अपनी अगली कोचिंग चला गया।ऐसे ही एक महीना बीत गया। अचानक एक दिन पता चला कि मैथ्स वाले सर ने टाइम 5 से 6 कर दिया। मगर मेरी तो उस समय साइंस की कोचिंग थी। मैंने तुरंत आपत्ति जताई। कई दिनों तक कुछ नहीं हुआ — मेरी बातों को अनदेखा किया गया, लेकिन अंततः मजबूरन समय बदल दिया।समय कर दिया गया 3 से 4 का। अब मेरी दिक्कत और बढ़ गई — क्योंकि 4 से 5 मुझे खाली बैठना पड़ता। अगर घर जाता तो आधा घंटा यूँ ही बर्बाद होता। मम्मी-पापा ने बहुत बार समझाया, प्यार से, गुस्से से… मगर वो मानने को तैयार नहीं। और मैं भी अंतर्मुखी था।3-4 महीने यूँ ही बर्बाद हो गए। अब मैं ही नहीं, बाकी बच्चे भी परेशान थे, मगर कोई बोलना नहीं चाहता था।बहुत ज़्यादा दिन निकल गए — फिर उन्होंने टाइम वापस 5 से 6 कर दिया। हमने बहुत समझाया, लेकिन नहीं माने। फिर कहा गया कि मुझे अलग से पढ़ाया जाएगा, और बाकी बच्चों को 5 से 6। दो-तीन दिन सही से पढ़ाया, फिर सर लेट आने लगे — कभी 10 मिनट, कभी 20।मुझे शायद वो आफत समझते थे — क्योंकि मैं कुछ बोलता नहीं था।जबकि मैं टॉपर था — 20 में से 18-19, या 15-16 नंबर लाता ही था।धीरे-धीरे उन्होंने मुझ पर ध्यान देना भी बंद कर दिया। बात-बात पर एहसान जताने लगे कि “मैं तुम्हारे लिए करता हूँ”, “मैं वहाँ से आता हूँ”, “मेरी कहानी सुनो” वगैरह। पढ़ाने के नाम पर 1-2 सवाल बताते, और जब मैं कुछ पूछता, तो ध्यान नहीं देते।मैं पूछता —“सर, BPT थ्योरम समझा दो, नहीं आ रही।”वो कहते —“बेटा, टाइम मैनेज करना सीखो। किताब लाओ।”फिर फोन लेकर बाहर निकल जाते।ऐसा पहली बार नहीं हुआ था, कई बार हो चुका था। अब मैं पूरी तरह से फ्रस्टेटेड हो चुका था। उस शकल से ही चिढ़ होने लगी थी।अब वार्षिक परीक्षा नज़दीक आ गई थी। इसलिए ज़्यादा ध्यान नहीं दे पा रहा था।एक दिन टेस्ट लिया गया, फिर बताया गया कि शनिवार और रविवार छुट्टी है।रविवार को मैं पढ़ाई निपटा कर आराम से खाना खा रहा था — 3:45 बजे, तभी फोन बजा। देखा, सर का था।कहा —“बेटा आ जाओ, आज 4-5 क्लास है।”मैं बिना कुछ सोचे समझे तैयार हो गया। मम्मी-पापा को लगा — परीक्षा का समय है, ज़रूरी होगा।मैं 3:51 पर पहुँच गया। देखा तो कोई नहीं था। सोचा, रास्ते में होंगे।किताब निकाली और पढ़ने लगा।4:45 बज गए — कोई नहीं आया।4:53 पर सर आए और बोले —“बेटा, ये शीट ले लो, मैं आज ही देना चाहता था इसलिए बुला लिया।”अब मुझे समझ आ गया कि क्या चल रहा है।मैंने कहा —“सर, इसे सॉल्व करेंगे आज?”बोले —“नहीं बेटा, घर जाकर करना।”मैं चुपचाप निकल गया।साइंस की कोचिंग ली, फिर मैथ्स कोचिंग के हेड को फोन लगाया — मतलब जो कोचिंग चला रहे थे।उन्होंने फोन उठाया, मैंने कहा —“सर, मैं वैभव बोल रहा हूँ, 10वीं मैथ्स बैच से।”उन्होंने कहा —“हाँ बोलो बेटा।”मैंने कहा —“सर, मेरे पेरेंट्स ने कई बार कॉल किया, मैं भी कई बार आया, मगर हर बार टाल दिया गया।हर बार टाइम का झगड़ा, कभी कुछ, कभी कुछ।आज तो हद ही हो गई।”मैं बहुत तेज़ आवाज़ में बोल रहा था —क्योंकि मैं जानता था मैं सही हूँ।इतनी तेज़ कि नीचे मोहल्ले वाले सुन लें, लोग रुक जाएँ।और सचमुच रुक भी गए।भगवान कसम, वो मेरी आत्मा की आवाज़ थी —सब कुछ साफ-साफ कह दिया।"सर, मेरी दिक्कत को भी तो समझिए।"फिर मैंने उम्र का लिहाज़ करते हुए, उनसे माफ़ी माँग ली — अपनी तेज़ आवाज़ में बात करने के लिए।जो सर हमेशा गुस्से से बात करते थे या कभी अजीब तरीके से बर्ताव करते थे,वो उस दिन बहुत शांति से बोले —"बेटा चिंता मत कर, मैं समझता हूँ।"मैंने तो यहाँ तक कह दिया था —“मैं फ्री में थोड़ी पढ़ता हूँ।”उस दिन के बाद हालात कुछ ठीक हुए।वो समय से आने लगे, पढ़ाने भी लगे।बाकी तीन टीचर्स भी रोज़ पूछते —“समझ आया ना?”मैं भी “हाँ-हाँ” करके आगे बढ़ता रहा।मगर मैथ्स वाले सर फिर धीरे-धीरे वही हरकतें करने लगे —8-9 बार क्लास छोड़ी, ध्यान देना बंद किया।फिर हेड सर ने ही क्लास बंद कर दी।और मैंने भी जाना छोड़ दिया — क्योंकि परीक्षा में अब कुछ ही दिन बाकी थे।परीक्षा दी, सब ठीक-ठाक हुआ।लेकिन तब तक — ना एक कॉल, ना एक मैसेज।परीक्षा के बाद आया एक मेसेज —“कैसा गया पेपर?”मन में आया —“अब पूछ रहे हो? छोड़ो, दुष्ट कभी नहीं सुधरते।”मगर आज भी मैं सोचता हूँ दोनों टीचर गुस्से वाले थे, पर फर्क इतना था कि उनका गुस्सा 'अनुभव' कहलाया... और मेरा गुस्सा 'बद्तमीज़ी'।कुछ पूछो तो कहते हैं "टाइम नहीं है", चुप रहो तो कहते हैं "सीखने की इच्छा ही नहीं" अब बच्चा करे तो क्या करे?उस दिन मैंने बस चुप्पी तोड़ी थी, वो भी तब जब पानी सिर से ऊपर जा चुका था।हाँ, उन्होंने सामने से कुछ नहीं कहा... पर मन ही मन मुझे 'असभ्य' ही समझ रहे थे।और आज तक सोचता हूँ -क्या वाकई ग़लत के खिलाफ आवाज़ उठाना 'असभ्यता' है? या फिर ये लोग सच सुनने के लायक ही नहीं थे?
अब आप ही बताइये कि मैं सही था या गलत?