goa travelogue in Hindi Adventure Stories by Dr Sandip Awasthi books and stories PDF | यात्रा वृतांत गोवा

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यात्रा वृतांत गोवा

यात्रा वृतांत :_ 14 अक्टूबर 24, गोआ विश्विद्यालय में मुख्य धारा और दलित साहित्य पर विमर्श 

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गोआ जाना हुआ था एक दशक पूर्व परिवार के साथ। पांच छ बार अब तक गया हूं।पहली बार गया डैडी _मम्मी जी, भाइयों के साथ जब स्कूल में पढ़ता था। वहां जा सहज माहौल और सुंदर समुद्री तट, कलंगुट, बागा, कोलवा, बोकमारो, दौना पाउला, मंगेश मंदिर, शांत दुर्गा मंदिर, पुराने चर्च में रखी ममी सब याद हैं आज तक।बेहद शुद्ध, ताजी, प्रदूषणरहित आबो हवा, ऐसा मन मोह लेती है कि पूछो मत। आगे दो बार सब गए। फिर अगली दो बार पत्नी और बेटी प्राची भी हो गईं। गोआ में सब कुछ सुरम्य और अच्छा है। गोवानी लोग पर्यटकों पर ही निर्भर हैं तो वह आपको दूर से ही पहचान लेते हैं। फिर आपको उसी हिसाब से व्यवस्था मिलती है। सभी सामान्य भी और महंगे होटलों में रुकने वाले भी, बराबर गोआ आते हैं। उस वक्त तो हम अजमेर से मुंबई फिर मुंबई से पंजिम एक्सप्रेस से गए थे और मडगांव उतरकर वहीं रुके थे होटल सन रिट में, जो स्टेशन के नजदीक था। बहुत खूबसूरत दिन और वक्त था।आगे विस्तार से लिखूंगा पर अभी सेमिनार पर काफी कुछ है।

गोआ विश्विद्यालय की ऊर्जावान सक्रिय और नवाचार करने वाली विभागाध्यक्ष प्रोफेसर वृषाली मांद्रेकर से मेरा परिचय कोराना समय में हुआ। उस समय अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय वेबिनार मैने किए थे। अनेक कुलपति, साहित्यकार और विद्वान उसका हिस्सा बने। हजारों प्राध्यापक, शोधार्थी भी जुड़े। फिर गोआ विश्विद्यालय में आयोजित एक रिफ्रेशर कोर्स में भी मेरे दो ऑनलाइन व्याख्यान हुए।बहुत ही रचनात्मक और सृजनशील हैं। तो कुछ माह पूर्व इस राष्ट्रीय संगोष्ठी हेतु विषय आदि को लेकर मेरी चर्चा हुई। मुख्य धारा और दलित साहित्य विषय तय किया गया और इसके विभिन्न सत्रों के अपविषय भी मैंने बना दिए। प्रारंभ में मैं नहीं आ रहा था, अपना क्या, रमता जोगी बहता पानी। कुछ नाम दिए शरण कुमार लिंबाले, श्यौराज सिंह बेचैन, कौशल्या बेसंतरी आदि।लिंबाले जी काफी समय से मेरे संपर्क में थे, अपनी किताब, कोई अन्य सूचना भेजते रहते मेरे पास, बेहद विनम्रता से। फिर "अक्करमाशी" के लेखक से भी मिलने की इच्छा थी। तो जब मेरे विषय_उपविषय और यह अतिथि तय हुए तो मुझे विचार आया अंतराष्ट्रीय सेमिनार बनाने का। कुछ प्रवासी साहित्यकार भारत में थे। पिछली बार जय वर्मा जी को लगातार तीन जगह कोलकाता में, सोमा बंदोपाध्याय कुलपति, मेट्स विश्विद्यालय रायपुर और भिलाई के पास अंडा कस्बे में शैलदेवी महाविद्यालय, सुधीर शर्मा के द्वारा बुला चुका था। तो इस बार गोआ हेतु पुष्पिता अवस्थी, वैश्विक लेखिका और बड़ी बहन सम अथवा स्नेह ठाकोर को बुलाने का सोचा। फोन किए तो पुष्पिता जी नीदरलैंड्स में कुछ अस्वस्थ थी। स्नेह जी, दिल्ली गाजियाबाद में थी। तो उनको बताया और स्वीकृति के बाद उनका नाम नंबर दे दिया। मेरा मानना है कि विश्व बंधुत्व और सहयोग ही आवश्यक कड़ी है दो इंसानों को जोड़ने में। प्रवासी या किसी भी लेखक साहित्यकार को आप चुनते हैं तो यह उसकी योग्यता तो है ही साथ ही सहयोग और बंधुत्व को भी बढ़ाता है। पर दिक्कत यह है कि प्रवासी पुराने अधिकतर, काफी समय से कुछ नया नहीं लिखे? दिव्या माथुर, पुष्पिता अवस्थी, जय वर्मा, तेजेंद्र शर्मा, इला प्रसाद अवश्य निरंतर सक्रिय हैं पर यह हिंदुस्तान अपने हिसाब से आते हैं। तो यह थे नहीं और प्रवासी साहित्य और साहित्यकार एक विशाल फलक पर आने में अभी समय है।क्योंकि विषय विविधता और संवेदनाओं का सूखा है अधिकांश के पास।कुछ सक्रिय है तो वह कितनी जगह जाएंगे? बहरहाल मैंने फिर इन दोनों को चुना। साहित्य, संस्कृति और युवाओं का भला हुआ या नहीं इनके व्याख्यान से यह तो नहीं जानता परन्तु थोड़ी सी निराशा हुई। क्योंकि अकादमिक जगत में विषय पर बोलना होता है। परंतु चूंकि सत्र की अध्यक्षता मैं कर रहा था तो मैंने संक्षेप में जानकारी दे दी। वह कुछ बोली और कुछ नहीं। प्रवासी अनुभवों और वहां की संस्कृति को जानना तो हर विद्यार्थी को पसंद है। बाकी बोलने के लिए हम थे ही।

  खैर, स्नेह ठाकोर के जुड़ने से सेमिनार अंतरराष्ट्रीय हो गया। 14, 15अक्टूबर 24 गोआ विश्विद्यालय, गोआ में सत्र की अध्यक्षता और एक में मुख्य वक्ता हेतु मैं सम्मिलित था।

 प्रोफेसर वृषाली और उनकी सहयोगी श्वेता निरंतर संपर्क में थे मेरे।

 तैयारी कुछ खास नहीं थी। विषय मेरा ही सुझाया हुआ था तो तैयारी थी। दरअसल मुख्य धारा से दलित साहित्य अलग क्यों और कैसे हुआ? दलित साहित्य अलग से क्यों अपनी पहचान बनाना चाहता है? फिर तो आगे आदिवासी साहित्य, पिछड़ी में भी पिछड़ी जाति का साहित्य भी हो जाएगा। क्या साहित्य जाति व्यवस्था से चलेगा? इन्हीं सब प्रश्नों को मन में लिए जयपुर से अपराह्न चार बजे की फ्लाइट पकड़ मुंबई और फिर वहां से दूसरी फ्लाइट लेकर मनोहर पारिकर अंतराष्ट्रीय हवाई अड्डा, पंजिम गोआ, उसी दिन रात्रि साढ़े आठ बजे पहुंचा। एयरपोर्ट पर कार लेने आई थी। एक सज्जन और मुंबई से आए थे, वह भी आ गए। परिचय हुआ तो पता लगा लक्ष्मण गायकवाड़ हैं, मराठी भाषा के अच्छे लेखक, पत्रकार और कार्यकर्ता। मुझे नाम याद इसलिए भी की समकालीन भारतीय साहित्य पत्रिका के संपादक मंडल में होने से इनका नाम कई वर्षों मैं पढ़ता था। तो एक घंटे का सफर था विश्विद्यालय के अतिथि गृह तक का, जो कलंगुट बीच के पास है।विश्विद्यालय बने डेढ़ दशक ही हुए है और यह काफी कम समय है पर फिर भी कोंकणी भाषा के साथ साथ हिंदी, पत्रकारिता विभाग इसके प्रोफेसरों और प्राध्यापकों की मेहनत का ही परिणाम है।

अतिथि गृह में लिंबाले जी, श्यौराज सिंह बेचैन, पहुंचे हुए थे, दिन में ही, उनसे आते ही मुलाकात की। वहीं डॉ. श्वेता मिली, थोड़ी परेशान, क्योंकि लिंबाले जी और बेचैन जी अतिथिगृह में लाया खाना नहीं खा रहे थे बल्कि बाहर अच्छे रेस्टोरेंट में खाने जा रहे थे। एक युवा दिल्ली का, पर प्राध्यापकी यहां कर रहा, उनकी चम्पी मालिश में लगा हुआ था।बाद में पता चला वह दिल्ली विश्विद्यालय के किसी महाविद्यालय में वापसी का इच्छुक था। श्यौराज जी का हर काम भाग भाग कर कर रहा था। होते हैं ऐसे लोग आज भी जिन्हें मेहनत से अधिक चम्पू विधा में यकीन होता है। जबकि दिल्ली में क्या हो रहा है, यह मैं बखूबी जानता था। एक अनार और सौ बीमार, वह भी वहीं । यह तो इतनी दूर गोआ में बैठा है और अच्छा भला परमानेंट प्राध्यापक है विश्वविद्यालय में, और क्या चाहिए? यह नेमत, बहुत से दस से पंद्रह बरस से पीएचडी, नेट किए बैठे हैं, उन्हें नसीब नहीं।पर कुछ स्वभाव से ही कभी खुश नहीं रहने वाले होते हैं। खैर, वह लोग बाहर गए और श्वेता ने उनके लिए लाया भोजन पैकेट मेरे कक्ष में पहुंचा दिया। सोचता हूं सहज और अहंकार रहित होने के कितने फायदे हैं ...सामने वालों को।

 अगले दिन प्रातः नौ बजे विभाग प्रमुख और अच्छी प्रोफेसर वृषाली जी आईं, मुलाकात हुई, अच्छा लगा उनसे मिलकर।उन्होंने कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा बताई, सब बताया। मैं अनेक जगह गया हूं पर जितना सुव्यवस्थित और बेहतरीन प्रबंधन यहां देखा, वह बहुत कम मिलता है।

 

मौसम खुशगवार और अपनेपन का माहौल

------------------------------------------------ यह अतिथिगृह और विश्विद्यालय नॉर्थ गोआ में थोड़ा बाहर की तरफ हैं। इतने की वहां का एक बीच म्यांमार और दोना पाउला स्थल नजदीक था।जहां शाम घूमने जाने का कार्यक्रम तय किया था।

 चारों तरफ अच्छा मौसम और खुली ताजी हवा थी। कोंकणी भाषा का बोलबाला था। लेकिन अच्छा लगा और गर्व भी हुआ कि प्रोफेसर वृषाली कोंकणी, हिंदी और अंग्रेजी पर समान अधिकार रखती थीं। उनके साथ पिछले तीन वर्षों में कुछ कार्यक्रम किए थे। आत्मविश्वास से भरपूर विदुषी महिला। उनके बेटे से भी मिलना हुआ। कुछ समय पूर्व सड़क दुर्घटना में उसके पांव में फ्रैक्चर आदि हो गए थे। उसे फिजियोथैरिपी के लिए वह नियमित ले जाती थीं। एक संवेदनशील मां।बेटा उनका बहुत सहज और आत्मविश्वास से भरा दिखा। उम्मीद है जल्द अच्छा हो जाएगा।

 सुबह गेस्ट हाउस में सबसे अच्छे से मिलना हुआ। लिंबाले जी अपने साथ कई कार्य लाए थे।वह निरंतर नया भी लिख रहे और अपने पुराने उपन्यास और आत्मकथा अक्करमाशी के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद के प्रूफ भी चेक कर रहे। अक्सर वह लिखने के अंतराल में बाहर आते।उनसे बात की तो जमीन से जुड़े देशज इंसान लगे।जो अपनी लोकप्रियता और मांग से अब जाकर, उम्र के सातवें दशक में परिचित हुआ है। भालचंद्र नेमाड़े भी जिन्होंने "हिन्दू:_समृद्ध जीवन का कबाड़ " पुस्तक लिखी और अपनी भड़ास निकाली।वह एक विश्विद्यालय से सेवानिवृत्त प्रोफेसर रहे हैं। लिंबाले जी अकादमिक निदेशक पद से सेवानिवृत हुए हैं। एक दबंगई और कहा जाए अपनी बात मनवाने की जिद उनमें देखी। दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र पर तीनों से चर्चा हुई पर कोई भी संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। वह अपनी लीक खुद बनाने के आसान और खतरनाक रास्ते पर चलते दिखे। 

प्रोफेसर श्यौराज सिंह बेचैन की कुछ कहानियों को हंस में पढ़ा था। मेरा बचपन मेरे कंधों पर का लेखक मेरे साथ मेरे सामने था। सुबह चाय पर उनसे भी मिलकर अच्छा लगा। गेस्ट हाउस साधारण और व्यवस्था एक केयर टेकर कम गार्ड के हवाले थी। कॉस्ट कटिंग पता नहीं क्यों उस जगह भी होती जहां नहीं होनी चाहिए। क्योंकि चाय का इंतजाम पीछे तीन सौ मीटर दूर कैंटीन में था। हमने वहीं गार्डरूम की अलमारी से टीबैग और सुगर पाउच निकलवाए और केटल में पानी उबाला । कुछ देर में ब्लैक टी तैयार। दूध पाउडर भी था तो कुछ ने वह लिया।

  मैं लक्ष्मण गायकवाड़ से कल रात्रि ही काफी चर्चा कर चुका था।दलित साहित्य और विशेषकर मराठी भाषी लेखकों और किताबों पर। तो सुबह मैंने यही शुरुआत की । क्या वजह है मराठी लेखकों को हिंदी जगत में उतना स्थान नहीं मिला? क्यों यह एक दो राज्यों तक ही सीमित रहे? जबकि तुलसीराम जी, वाल्मीकि जी, धर्मवीर, सोनकर, पिथलिया, अजय नवरिया, पूनम तुशामाद, बजरंग बिहारी तिवारी आदि अपनी जगह बना रहे या कहें बना चुके। यह पीछे क्यों रह गए? श्यौराज सिंह बोले, " इनका साहित्य देर से अनुदित हुआ और इन्होंने हिंदी में सीधे नहीं लिखा।तो आलोचकों ने भी इनका नोटिस नहीं लिया।" जबकि लिंबाले की राय थी कि, " हमें आलोचकों की जरूरत नहीं। हम जिनके लिए लिख रहे वह हमारे साहित्य को पढ़ रहे यह बहुत है।" लक्ष्मण जी सुनते रहे। 

 खैर, चाय पर चर्चा समाप्त हुई। दस बजे विश्विद्यालय की गाड़ी युवा प्राध्यापक लेकर आने वाले थे। उन्हीं के साथ पहुंचना था।

     यह सभी जानते हैं कि सेमिनार एक बंधे बंधाए ढांचे पर चलते है। लेकिन इस सेमिनार को विभागाध्यक्ष प्रोफेसर वृषाली के रचनात्मक और कुछ अलग विशेषकर, युवाओं के लिए करने के जज्बे से इसके हर सत्र में बहुत कुछ सीखने को था।

आज मेरा उद्बोधन दलित आत्मकथाओं पर था।मैंने कोशल्या बसंत्रि, मलिका अमर शेख के साथ भालचंद्र नेमाड़े, तुलसीराम, ओमप्रकाश वाल्मीकि, श्यौराज सिंह बेचैन की आत्म कथाओं की तुलना करके विश्लेषण युवाओं को दिया। उसमें यह बात मैंने रेखांकित की कि स्त्री दलित, सवर्ण कोई भी हो उसे हर समाज, हर जगह शिष्ट होना ही है। जिसे ताकत मिल जाती है, भले ही वह दलित हो, उसकी मानसिकता सामंतवादी हो ही जाती है। हॉल में दलित लड़के लड़कियां काफी थे।मुझे खुशी हुई कि वह सभी शिक्षा के प्रति जागरूक और अपने भविष्य के लिए अभी से सोच रहे थे कोंकणी क्षेत्र के इन युवाओं से मिल, देखकर मुझे काफी अच्छा लगा। 

    तीनो दलित लेखकों को सुबह से सुन रहा था।तीनो के अपने अनुभव और वक्तव्य थे पर अधिकतर संघर्ष और उससे पार आने का जज्बा था।लक्ष्मण गायकवाड़ महाराष्ट्र के स्थानीय राजनीतिक दलों के अपने अनुभव बांट रहे थे। उधर एक सत्र की अध्यक्षता करते हुए शरण कुमार लिंबाले ने काफी संतुलित वक्तव्य दिया। उनका अर्थ यह था कि "मैं लिखूंगा, हर हालात, अपनी दशा, दुर्दशा और यह मेरे शब्द, मेरी किताबें आपके घरों तक पहुंचेगी। जहां शायद मेरा प्रवेश निषेध हो।" वह अपने अनुभव बांटते रहे और युवाओं के शोध आलेखों पर यथार्थवादी टिप्पणी करते रहे।

प्रोफेसर श्यौराज सिंह बेचैन का काफी लंबा पर रोचक व्यक्तव्य था।उसमें उन्होंने अपनी पूरी जीवन यात्रा भी बयां की।किस तरह गांव से शहर आकर उन्होंने अपने मामा के साथ चाय की दुकान खोली और अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। धर्मवीर, एक दलित चिंतक और पूर्व आईएएस पर भी काफी बोले। मुझे ध्यान है कि पाखी पत्रिका में डेढ़ दशक पूर्व इनके गलत व्यवहार और एक दलित संगठन से दूसरे में शिफ्ट होने पर धर्मवीर ने काफी तीखी और कटु आलोचना की थी, पत्र के माध्यम से। इन्होंने जवाब में सफाई पेश की थी पर वह लीपापोती थी। धर्मवीर ऐसे प्रखर और आधुनिक दलित विचारक थे जिन्होंने वेदों को पढ़कर उसकी आलोचना की हालांकि वह तथ्यों के आधार पर गलत निकली।क्योंकि वेदों और बौद्ध ग्रंथों में भी जो शब्द, वाक्य लिखे जाते हैं उनके गूढ़ार्थ उससे भी गहरे होते हैं।उन्हें जितनी बार पढ़ें नित नए ज्ञान के अवसर खुलते हैं। 

      विद्यार्थियों की जिज्ञासाएं नहीं थी। पर मेरे प्रेरित करने पर की आप प्रश्न नहीं पूछेंगे तो आगे कैसे बढ़ेंगे? प्रश्न उत्तर हुए।

स्नेह ठाकुर, प्रवासी साहित्यकार, कनाडा, फ्लाइट से दोपहर में आ गई थी। बहुत मृदु भाषिणी और ज्ञानवान लगी मुझे। मेरे द्वारा कहने पर ही प्रोफेसर वृषाली जी ने इन्हें आमंत्रित किया था। आपने अध्यक्षीय उद्बोधन में सभी के मन को छू लिया। विदेशों में दलित भेद नहीं है बल्कि वहां रंग भेद है, अभी भी। उन्होंने भारतीय संस्कृति और पौराणिक उद्धरण भी दिए ।

     जोश से भरी और व्यवस्थाओं में डूबी सहायक प्राध्यापक श्वेता ने सभी अतिथियों का धन्यवाद दिया। 

      

    गोआ की शाम बीच पर

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गोआ के नजरे देखने और घूमने हमारे दलित लेखक साथी जो निकले तो देर रात ही लौटे। मेरा उनका साथ बही हुआ। रसरंजन, नॉन वेज से दूर रहता हूं।

सात बजे हम बीच घूमने निकले। युवा प्राध्यापक सुषमा चोगलेकर, एक अन्य प्रोफेसर, केंद्रीय हिंदी संस्थान के प्रतिनिधि, स्नेह ठाकुर हम पहुंचे दौना पाउला स्थल क्या खूब है। ऊपर दोनों की मूर्तियां हैं।प्रेम कहानी गोआ की एक चरवाहे और राजकुमारी की। पूर्व में डैडी जी मम्मी जी और परिवार सहित कई बार आया हूं। यहां समुद्र की लहरे बहुत शोर करती हैं ।मानो कह रही हो ध्यान दो हमारी ओर भी। बाई तरफ बैठने की बैंच हैं और उससे सटी बाउंड्री समुद्र तट को रोकती हुई जब लहरें उससे टकराती हैं तो बहुत ऊंचाई तक पानी उछलता है और भिगो डालता है। उसका कुछ देर आनंद लिया।टिकिट पहले नहीं था पर अब लगा दिया है। तो अधिक दूर नहीं गए। 

 आसपास अंजुना बीच था तो वहां चले।यादें ताजा हो गई। पक्की सड़क से उतरकर आगे बढ़ें और करीब सौ कदम ठंडी रेत पर चलकर हम बीच पर पहुंचे। बीच पर समुद्री हवाएं और लहरें एक अद्भुत दृश्य रच रही थी। स्नेह दीदी पीछे रेत पर खड़ी थीं और मैं करीब दस मीटर आगे बढ़कर घुटने घुटने तक पानी में था। सच, ऐसा लगता है कि प्रकृति हमें कितना कुछ देती है।बस हमारे पास उसे ग्रहण करने का ढंग और मन होना चाहिए। अंधेरा था और तट पर बैटरी चलित लाल कार्ट में सुरक्षाकर्मी सभी को चेतावनी दे रहे थे। यह अलग ही बीच है जहां शांति, सुंदरता को निहारते हुए आप बैठ सकते हैं। मुझे याद है जब पहली बार दो दशक पूर्व आया था तो टूरिस्ट बस ने इस बीच के बाहर उतारा था और हम सभी यहां घूमे और लहरों का आनंद लिए थे। वैसे का वैसे ही है अभी भी। बीच पर क्या बदलाव हो सकते हैं? निर्माण हो नहीं सकता और समुद्र को आप रोक नहीं सकते।

 बाहर निकले तो एक बेहद खूबसूरत ओपन बस दिखी। यह गोआ दर्शन करवाती है। उसके पास जाकर पूछा तो पता लगा सुबह दस बजे नॉर्थ गोआ से चलती है, किराया नौ सौ रुपए।करीब सात आठ पॉइंट्स दिखाती है। वह मुझे जुबानी याद थे क्योंकि पांच छ बार परिवार सहित हमें डैडी जी और मम्मी जी ने घुमाया है। मंगेश टेंपल, शांतदुर्गा मंदिर से लेकर ओल्ड चर्च तक जहां एक सेंट की मम्मी तीन सौ बरसों से रखी हुई है। बाकी स्थल बीच है कलंगुट, बाक़मारो, अंजुना, कोलवा, पंजिम डोना पाउला, मीरामार सभी कई कई बार खूब घूमा हूं।

  स्नेह दी बता रही थी कि वैंकूवर, कनाडा में मंदिर भी हैं और गुरुद्वारे भी। वह सभी जगह जाती हैं पर धार्मिक आधार पर नहीं बल्कि पर्यटन की दृष्टि से।

       वापसी हुई अतिथिगृह में।वहां दिलचस्प रहा सभी ने डिनर से पूर्व अपनी पसंद के गीत सुनाए। कुछ युवा साथी थे कविता सावंत ने हिंदी में तो सुषमा ने मराठी में देशभक्ति गीत सुनाया। स्नेह जी ने अपने जमाने का गीत गाया। मेरी बारी आई। मुझे हमेशा कहता है मेरी आवाज कैसी होगी? हालांकि अनगिनत बार, जब सेमिनार अथवा साक्षात्कार की रिकॉर्डिंग मेरी आती हैं तो आवाज अच्छी खासी प्रभावी होती है मेरी। पर तब मैं सोचता हूं, " क्या यह मैं ही हूं? यह मेरी आवाज है?" यकीन नहीं आता। मैंने गीत की चंद पंक्तियां सुनाई, ", रोज कहां ढूंढेंगे सूरज चांद सितारों को / आग लगाकर रोशन कर लेंगे अंधियारों को।" मेरी जंग फिल्म का यह गीत जिसे आनंद बक्शी ने लिखा और नितिन मुकेश, लता मंगेशकर ने गाया है, मुझे बहुत प्रिय है।यह हिम्मत और संघर्ष से पार पाने का गीत है। हैदराबाद से प्राध्यापक लता भी थीं जो करीब बीस वर्ष पुलिस की नौकरी करके हिंदी प्राध्यापक बनी थी। यह हमारी हिंदी की लोकप्रियता और अपनापन है, वह सभी को आकर्षित करती है। 

तभी वृषाली जी का फोन आया मुझे हालचाल और गेस्ट हाउस में कोई तकलीफ तो नहीं ? कोई दिक्कत नहीं थी बस हमें बजट थोड़ा टाइट है यह बताया था तो उसी के अनुरूप हम चल रहे थे। डिनर में चावल, सांभर, सब्जियां आदि था। स्नेह जी को चपाती खानी थी तो वह नहीं मिल सकी। फल खाकर उन्होंने गुजारा किया।

लिंबाले आदि अभी घूमकर वापस नहीं आए थे।वह बाहर किसी होटल में रोज जा रहे थे। आगे वह अन्य महाविद्यालयों में भी आमंत्रित थे। सवाल तो मन में आया कि ...पर छोड़िए।

     दूसरा और अंतिम दिन बहुत अच्छा रहा।कई विषयों पर चर्चा हुई। मैंने दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र का सवाल उठाया। क्यों नहीं अभी तक इस पर कार्य हुआ?आपने अलग अपने संगठन बना लिए।दलित लेखक संघ कम से कम सात आठ हो गए हैं। कुछ मनभेद भी हैं। क्या करना चाहते हैं? साहित्य की दुनिया में सभी का स्वर, पीड़ा, यातनाएं, तकलीफें, खुशी, सपने उन्नति हैं। क्या उन्हें विभाजित किया जाना उचित होगा?

साहित्य को कम से कम जातिगत भेदभाव से मुक्त रखें।

  तीनो मेरे साथी प्रातः से शाम तक नदारद थे। वह संभवतः अन्य महाविद्यालयों में व्याख्यान लाभ देने गए थे। ठीक भी है। क्योंकि इतनी दूर कोंकण क्षेत्र के प्राध्यापकों और युवाओं को इनके व्याख्यानों से ऊर्जा मिलती है तो क्यों नहीं हो?

     एक युवा ब्राह्मण प्राध्यापक, जो दिल्ली का था पर गोआ विश्वविद्यालय में स्थाई नियुक्ति पर था को देखना दिलचस्प रहा। वाकई बदलाव हुआ है और अब स्वेच्छा से प्राध्यापक, इंजीनियर, डॉक्टर, सरकारी कर्मचारियों को आरक्षण छोड़ना चाहिए। इससे उन्हीं के वर्ग के अन्य आदिवासी, पिछड़े, भूमिहीन, जिनके सात पुश्तों में कोई सरकारी नौकरी में नहीं आया, को अवसर मिल सके। ऐसे लाखों हैं जिन्हें आज भी अवसर का इंतजार है।  तो वह लंच, नाश्ता, गेस्ट हाउस में हाजिरी, गोआ घुमाना कर रहा था।

जबकि उसके लिए दूसरे दो प्राध्यापकों की ड्यूटी वृषाली जी ने लगाई थी। हद यह थी कि श्यौराज सिंह बेचैन के लिए खाने की थाली लगा कर ला रहा। जब उन्होंने खाना खा लिया तो झूठी थाली, ग्लास भी ऐसे भाव से ले जा रहा मानो भगवत प्रसाद हो। श्यौराज जी, बहुत प्रखर और सक्रिय लेखक, प्रोफेसर हैं, सब समझते हैं।पर मना नहीं किए।इतनी चाटुकारिता का उसे फल मिले या न मिले पर हमें गर्व हुआ कि आंखों से देखा की वंचित तबका अब सवर्णों से आगे और पुराने तौर तरीके सीख चुका।

   बहरहाल, अक्करमाशी के लेखक शरण कुमार लिंबाले की व्यस्तता और सादगी पसंद आई। वह गेस्ट हाउस में भी लैपटॉप पर अपनी पुस्तकों के अनुवाद और उनके प्रूफ चेक करते रहे। जल्दी ही आने वाले हैं, मुझे बताया। कुछ टिप्स रॉयल्टी की बाबत उन्हें बताई मैंने।  लक्ष्मण गायकवाड़, एक्टिविस्ट, पत्रकार और लेखक से बात हुई ।वह जमीन से जुड़े कार्य करते हैं।बताते रहे की मराठी साहित्य में पहले बहुत काम हुआ पर अभी तकनीक और दृश्य श्रव्य माध्यम ने किताबों के प्रति थोड़ी, रुचि कम की है।महाराष्ट्र चुनाव सिर पर थे तो पूछा कौन आएगा? बोले बीजेपी और शिंदे शिवसेना ही आएगी। लोगों में उद्धव से नाराजगी है। 

      गोआ विश्विद्यालय के इस आयोजन में सांस्कृतिक, अकादमिक और सबसे बढ़कर एक सामंजस्य का कार्य किया।पुल की तरह से भारत के अलग अलग राज्यों के लोगों को जोड़ा।

महत्वपूर्ण चर्चाएं और सवाल जवाब हुए जिससे निसंदेह युवाओं को फायदा हुआ होगा। अगले दिन वापसी थी मेरी और स्नेह ठाकुर दी की। यह तीनों अभी और जगह भी आमंत्रित थे तो कुछ दिन रुकने वाले थे। ठीक भी है सुदूर कोंकण क्षेत्र के युवाओं और प्राध्यापकों को हिन्दी साहित्य जगत, विशेषकर दलित और समकालीन साहित्य पर प्रमाणिक और भोगे हुए यथार्थ की अनुभूति दे रहे थे हम लोग। यह अकादमिक जगत के लिए जितना महत्वपूर्ण था उतना साहित्यिक के लिए भी। 

मैने मंच से कहा भी था कि मुख्य धारा के साहित्य का प्रतिनिधि मैं हूं और दलित साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर यह मौजूद हैं।

एक सामंजस्यपूर्ण, समझदारी की स्थिति थी। क्योंकि किसी को भी मेहनत और अपने कड़े अनुभवों से ईमानदारी से जगह बनाने वाले दलित लेखकों से एतराज नहीं। बल्कि यह प्रसन्नता का विषय है कि देश में कई लोग अभिप्रेरित हुए हैं लेखन और अध्ययन में।

      आज शाम हम लोग कहीं नहीं गए और गेस्ट हाउस में ही एक साहित्यिक गोष्ठी रही। स्नेह जी ने अपनी कविताओं का पाठ किया। मैंने एक संस्मरण सुनाया।हिंदी संस्थान हैदराबाद के प्रतिनिधि खान साहब ने एक कविता सुनाई।एक दो श्रोता थे।इसी माहौल से हम लोग एक दूसरे राज्य की संस्कृति को और अच्छे से समझ पाते हैं। लिंबाले जी के नेतृत्व में तीनों कहीं दूर जाने की तैयारी में थे।वह शामिल नहीं हुए।

   रात्रि को ही फोन आया कि मेरे व्याख्यान "दलित आत्मकथाओं का तुलनात्मक अध्ययन " की हार्ड कॉपी जमा करनी है सुबह। संस्थान का प्रतिनिधि ले जाएंगे अपने साथ। एक सत्र अध्यक्ष होने के नाते विश्विद्यालय से पत्र भी सुबह ही मिलना था।

तो रात्रि एक घंटा मेरे एंड्रॉयड फोन पर मैं लिखता रहा अपने व्याख्यान को। उसे पूर्ण करके ही मैं सोया।गेस्ट हाउस का कमरा छोटा पर साफ सुथरा था।

     

गोआ :_आधुनिक और नो फिकर राज्य

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कोंकणी संस्कृति और लोगों की इस बात के लिए तारीफ करनी होगी कि वह खुश रहना और अपने आसपास के पर्यावरण को संरक्षित करना जानते हैं। तभी यहां विकास होता दिख भी रहा है। सुव्यवस्थित स्त्री पुरुषों से सुसज्जित यह राज्य है तो जयपुर जितना बड़ा या कहें आगरा जितना। यहां पर्यटन स्थल और मौसम बेहतरीन होने से पूरे वर्ष लाखों पर्यटक आते हैं। गोआ में दिसंबर जनवरी महीने में भी पंखे एसी चलते हैं। मैं इन महीनों में डैडी मम्मी जी के साथ दो बार आया हूं। वैसे कुल पांच बार। तो आज वापसी रही। सुबह का चाय नाश्ता कैंटीन में किया। युवा प्राध्यापक अविनाश आ गए थे।बातचीत में पता चला किसी पुस्तक का कोंकणी में अनुवाद भी कर रहे हैं। खुशी हुई कुछ मंत्र दे दिए कि अनुवाद का करार करें और उपर्युक्त जगह साहित्य अकादमी या राज्य अकादमी में भेजें तो पुरस्कृत होने की संभावना होगी। सुबह ही वृषाली जी आ गईं थी हमसे मिलने। उन्हें सफल आयोजन की बधाई दी हमने l सफल आयोजन का संतोष और थकान भी उनके चेहरे पर थी।

साथ में उनका युवा पुत्र भी है। वह फिजियोथैरिपी के लिए दो माह से उसे ले जाती हैं। सड़क दुर्घटना में चोटिल हुआ था, कुछ माह पूर्व, मुझे बताया था उन्होंने। बहुत आकर्षक और बुद्धिमान लड़का लगा ।उसने हमें नमस्ते की। स्नेह जी और हमारी आज दोपहर तीन बजे फ्लाइट है। गाड़ी आदि की व्यवस्था हमने दस बजे ही करवाई । रास्ते में कुछ स्थल देखते हुए जाएंगे। वृषाली जी व्यवस्था संबंधी कमियों के लिए कुछ कहती उससे पहले ही मैंने कहा, " इतने बड़े आयोजन में कुछ कमियां रहती हैं।कोई विशेष बात नहीं। जरूरी यह रहा कि कार्यक्रम में दलित साहित्य, चिंतन के सभी पहलुओं पर विमर्श हुआ। 

  हमसे विदा ले वह घर होती हुई विश्विद्यालय के लिए जाएंगी। आज ही शाम वह दिल्ली भी जा रही एनसीआरटी की कार्यशाला में। खुशी होती है भारत के हर नागरिक को अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाते हुए।

       स्नेह जी और हम ठीक ग्यारह बजे सेंट जॉन चर्च और थे रास्ते में हर तरफ हरियाली और नारियल, काजू के वृक्ष थे। पर्याप्त पानी और कृषि के लिए आदर्श स्थिति। यह है भारत।कहीं कोई कमी होती है दूसरे राज्यों में तो अन्य राज्यों में उसी चीज की प्रचुरता वह कमी दूर कर देती है।चर्च बहुत विशाल परिसर में थी। बहुत शांति से सारी व्यवस्था हो रही थी। हम हॉल में पंक्तिबद्ध होकर गए और तीन चार सौ साल पुरानी ममी को देखा। सेंट की ममी में, कहते हैं हर वर्ष परिवर्तन आता है। इसे मैंने बचपन में भी पहली बार देखा था।चालीस वर्ष हो गए पर यह वैसी ही है। इसे ईस्टर के दिनों में पूरे शहर में रथ पर रखकर घुमाते हैं।किंवदंति है कि इन्हीं की कृपा से पूरे वर्ष राज्य में समृद्धि और शांति रहती है। आस्था सब जगह है। यहीं थोड़ा आगे बढ़े तो एक ऑडियो वीडियो शो हमारा इंतजार कर रहा था। मात्र बीस रुपए टिकिट में किस तरह ईसाई धर्म को लेकर उनके उपदेशक और पादरी पूरी दुनिया में गए उसकी यात्रा थी। देखने इसलिए गया कि ऐसी ही सुव्यवस्थित यात्रा की प्रदर्शनी हमारे धार्मिक स्थलों पर क्यों नहीं होती? वहां करीब बीस स्लाइड और ऑडियो वीडियो के द्वारा ईसाइयत की यात्रा विश्व से गोआ में दिखाई गई थी। स्नेह जी बड़े गौर से देख रही थी। कुछ जगह उनके लिए कुर्सी भी रखवाई। करीब पौने घंटे के, दो सौ मीटर में फैले शो में बीमारी से फायदा, पवित्र जल आदि धार्मिक कर्मकांड बताए थे। चक्की के भी कुछ दृश्य थे।कुछ राज दरबार के भी दृश्य थे।

वहां से निकलकर सीधे बाहर आए तो कैंडल, मोमेंटो आदि की बिक्री की व्यवस्था थी। लोग ले रहे थे। हमने बाहर ड्राइवर को फोन किया और वह आ गया। अभी हमारे पास एक घंटा और था। स्नेह जी ने कहा, अब यहां आसपास के किसी बड़े मंदिर में ले चलो। कनाडा से इतनी दूर गोआ में भारतीय संस्कृति की सहधर्मी विशेषताओं को महसूस करते हुए हम गोआ के सुप्रसिद्ध मंदिर में पहुंचे। मंगेश टेंपल के बड़े से गेट से अंदर सीढ़ियां चढ़कर ऊंचाई पर मंदिर में दर्शन किए। वहां श्री राधा कृष्ण जी को विराजित देख बहुत अच्छा लगा।  कुछ देर रुके। ऊंचाई से गोआ का दृश्य बहुत खूबसूरत लग रहा था। सब तरफ शीतल हवा और आसमान साफ। 

मुझे याद आई कल शाम की तेज बरसात। एक बीच देखने ले गई थी वृषाली जी हमें। वह मैं पहचान गया अंजुना बीच था। ऊपर से नीचे उतरना पड़ता है।कई पुरानी नावें वहां बंधी हुई थी। तेज वर्षा के बीच वृषाली जी ने गाड़ी घुमाई और एक जगह रोकी।स्नेह जी उनके साथ गाड़ी में ही रुकी। मैं उनकी छतरी ले सावधानी से नीचे उतरा।ऊपर नारियल के पेड़ों की सघन छाया थी।नीचे उतर बीच के एक किनारे पहुंचा। ऊपर देखा आसमान की ओर, हल्का उजाला था अभी।मैंने समुद्र की लहरों में हाथ डाला। स्मृतियों की स्वर लहरियां मुझे सुनाई देने लगी। यहीं दाई ओर के विशाल तट पर डैडी मम्मी, हम भाई आते रहे हैं, बचपन में। फिर शादी के बाद भी मैं दो बार आया।मेरी बेटी और पत्नी के साथ। बेटी ने पहली बार समुद्र यही गोआ में देखा।बहुत खुश हुई और खेलती रही लहरों में। वह चार साल की बिटिया प्राची अब नरसी मोएजी से बीटेक एमबीए कर एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पद पर है। मैंने दूर तक बीच पर निगाह दौड़ाई।अनेक यादों और खूबसूरत लम्हों को दुबारा जीने का यह अवसर हमें नई ऊर्जा देता है। चारों तरफ ठंडी हवा और ऊपर से बरसता मेह और मेरी आंखों में स्मृतियों के दीप। मैं दुबारा वह दौर, वह वक्त जी उठा। 

गोआ की देवी मां और समुद्र की देवी को प्रणाम किया।वापस लौटा ऊपर की तरफ और गाड़ी में बैठ चल पड़े।बताया उन्हें की यह बीच मेरे लिए खास है यहां अनेक यादें जुड़ी हैं।

   मंदिर से बाहर निकले और गाड़ी में बैठ हम एयरपोर्ट के लिए निकल पड़े। काफी दक्षता से हमें टैक्सी ने मनोहर पारिकर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचा दिया। यहां बोर्डिंग पास स्नेह जी और मैने लिए। पहले फ्लाइट स्नेह जी की थी वाराणसी के लिए।उन्हें व्हील चेयर पर बैठाकर उन्हें प्रणाम कर विदा ली। बहुत शानदार समय बीता। एक घंटे बाद मेरी फ्लाइट थी जयपुर के लिए मुंबई होते हुए।

     मुंबई एयरपोर्ट पर कुछ समय मिला तो मैंने डायरी के कुछ अंश लिखे। (डायरी विधा पर करीब बीस साल से लिख रहा.उम्मीद है इस वर्ष किताब आएगी)

 दर्ज किए अपने अनुभव और कुछ सवाल। मुंबई एयरपोर्ट के मुख्य लाउंज में काफी पौधे लगा रखे हैं। उनके सामने बैंचें भी हैं। कुछ समय बाद सैंडविच निकाला बैग से और लिया। फ्लाइट ठीक सवा छह बजे रवाना हुई।विंडो सीट थी तो पूरे मुंबई के दर्शन हो रहे थे। होगा महानगर पर ऊंची सोच और संस्कृति की पहचान से बहुत छोटा लग रहा था। सही भी है यदि आप हर एक चीज, हर प्रभाव में बिला वजह अपने मन को जोड़ेंगे तो फिर चींटी भी हाथी लगेगी। छोटी छोटी बातों को नजरअंदाज करना और महत्वपूर्ण बातों, स्थानों और व्यक्तित्व को पहचानना ही जीवन का मंत्र है। यहां अनुभव जितनी जल्दी आप सीखे, परिष्कृत कर उनसे निष्कर्ष लेकर आगे बढ़ें, वही काम आता है।

भ्रम की स्थिति नहीं होनी चाहिए। कुछ असफलताएं, गलत फैसले होते ही हैं पर उनसे कीमती अनुभव और गलती फिर न करने का हौंसला मिलता है। 

ठीक पौने आठ बजे मैं जयपुर एयरपोर्ट पर था। वहां से पंद्रह मिनट में बाहर आया। रेपिडो बुक की और दो सौ फीट बस स्टैंड उतरा। वहां से अजमेर की बस ली और आराम से ठंडी हवा महसूस करते हुए आंखे बंद कर ली। एक ही दिन में तीन शहरों की हवा, पानी और संस्कृति देखी। प्रातः गोआ विश्विद्यालय अतिथि गृह, गोआ भ्रमण, फिर मुंबई एयरपोर्ट और वहां के लोग।आकाश से मुंबई का नजारा जो मुझे आश्वस्त करता है कि कोई कुछ बड़ा नहीं होता।लक्ष्य साफ और इरादे मजबूत हो तो आपकी योग्यता अवश्य निखरती, बढ़ती है। अभी जयपुर को देखा और अब चौथे शहर अजमेर की तरफ रवाना हूं। तकनीक कितनी अद्भुत है बस आपको उसे साधना आना चाहिए। खूबसूरत यादों, मित्रों और विषय विमर्श की अनुभूतियों के साथ यह यात्रा सम्पन्न हुई।

 

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(डॉ.संदीप अवस्थी, आलोचक, शिक्षाविद, कथाकार 

और देश विदेश में विख्यात प्रेरक गुरु हैं। व्याख्यान हेतु इन नंबरों पर संपर्क कर सकते हैं 

संपर्क :_7737407061, 8279272900)