शाम ढल रही थी। आसमान पर सुरमई बादल छाए थे, जैसे कोई बड़ा तूफान आने वाला हो। गाँव के बाहर, बड़ के पेड़ के नीचे, एक बूढ़ा आदमी चुपचाप बैठा था। उसका नाम था विक्रम सिंह।
पूरा गाँव उसे 'ठाकुर साहब' कह कर बुलाता था। लेकिन आज उसकी आँखों में न जाने क्यों अजीब सी बेचैनी थी।
आज से ठीक बीस साल पहले इसी तारीख़ पर उसकी ज़िंदगी पूरी तरह बदल गई थी।
उसका इकलौता बेटा राजवीर गाँव छोड़कर शहर चला गया था।
कह गया था—"बाबा, मैं बड़ा आदमी बनकर लौटूंगा। फिर आपको भी शहर ले जाऊँगा।"
उस दिन से अब तक ठाकुर साहब रोज़ इसी पेड़ के नीचे बैठकर बेटे की राह देखता था।
गाँव वाले कहते थे, "अब ठाकुर साहब पागल हो गए हैं। बेटा तो लौटने वाला नहीं… फिर किस उम्मीद में बैठे रहते हैं?"
लेकिन ठाकुर साहब बस मुस्कुरा देते।
"वो लौटेगा… एक दिन ज़रूर लौटेगा…"
उनकी आँखों में वही पुराना यकीन था।
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कहानी में ट्विस्ट:
उधर शहर में राजवीर वाकई बड़ा आदमी बन चुका था।
कई कंपनियों का मालिक, आलीशान बंगला, महँगी कारें, सब कुछ था उसके पास…
पर दिल के किसी कोने में एक टीस थी।
आज अचानक, उसके हाथ में एक चिट्ठी आई।
चिट्ठी उसके पुराने गाँव से आई थी, भेजने वाला—गाँव के डाकिया हरिदास।
चिट्ठी के शब्द काँपते हुए थे…
"ठाकुर साहब अब बूढ़े हो गए हैं। उनकी आँखों की रोशनी भी जा रही है।
पर एक ही आस है…
तुम्हारी…
रोज़ उसी पुराने बड़ के पेड़ के नीचे बैठकर तुम्हारी राह देखते हैं।
कहते हैं, मेरा बेटा आएगा ज़रूर।
अगर आ सकते हो, तो एक बार आ जाओ…
शायद ये उनकी आख़िरी ख्वाहिश है…"
राजवीर के दिल में जैसे कोई ज़ख़्म खुल गया।
बीते सालों की सारी यादें एक साथ लौट आईं—बचपन की कच्ची सड़कें, माँ का प्यार, बाबा की गोद…
सब।
उसने तुरंत गाड़ी निकाली और गाँव की ओर निकल पड़ा।
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गाँव की वापसी:
रात हो चुकी थी। बारिश भी शुरू हो गई थी।
गाड़ी की हेडलाइट्स में वही पुराना गाँव दिखा,
कच्चे मकान, मिट्टी की खुशबू, वही पुरानी गलियाँ।
राजवीर की आँखें भर आईं।
वो सीधे उस बड़ के पेड़ की तरफ दौड़ा,
जहाँ ठाकुर साहब हमेशा बैठा करते थे।
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इमोशनल सीन:
वहाँ पहुँचते ही, उसने देखा—
ठाकुर साहब उसी पेड़ के नीचे बैठे हैं…
हाथों में एक पुरानी तस्वीर थामे हुए, जिसमें छोटा राजवीर अपनी माँ के साथ मुस्कुरा रहा है।
राजवीर दौड़ता हुआ उनके पास गया,
"बाबा… बाबा… मैं आ गया… आपका बेटा आ गया…!"
ठाकुर साहब की आँखों से आँसू बहने लगे।
वो काँपती आवाज़ में बोले— "क्या… तू सच में आ गया बेटा… या फिर मैं सपना देख रहा हूँ?"
राजवीर ने बाबा का हाथ थाम लिया— "नहीं बाबा, ये सपना नहीं है। देखो, मैं हूँ… तुम्हारा राजवीर।"
ठाकुर साहब की आँखें धीरे-धीरे भर आईं।
"मैं जानता था… तू आएगा।
आज मेरा दिल हल्का हो गया बेटा… अब मैं चैन से जा सकूँगा।"
इतना कहते ही ठाकुर साहब की आँखें धीरे-धीरे बंद होने लगीं…
उनके चेहरे पर सुकून था।
राजवीर चीख उठा— "बाबा… बाबा… मत जाओ… अभी तो मैं आया हूँ…"
पर बहुत देर तक हिलाने के बाद भी कोई जवाब नहीं आया।
ठाकुर साहब की सांसें हमेशा के लिए थम चुकी थीं।
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आख़िरी खत का खुलासा:
उसी वक़्त, डाकिया हरिदास वहाँ पहुँचा।
उसके हाथ में एक पुराना लिफाफा था।
"बेटा राजवीर, ये खत तुम्हारे बाबा ने बहुत पहले मेरे पास रखवाया था…
कहा था, जिस दिन मेरा बेटा वापस आए… ये खत उसे दे देना।"
राजवीर काँपते हाथों से लिफाफा खोला।
खत में लिखा था—
*"बेटा राजवीर,
अगर तू ये खत पढ़ रहा है, तो समझ जा…
तेरा बाबा अब इस दुनिया में नहीं है।
मुझे तुझसे कभी कोई गिला नहीं रहा।
मैं जानता था, तू जहाँ भी रहेगा, खुश रहेगा।
बस एक बात याद रख बेटा,
जिंदगी में कभी अपनी जड़ों को मत भूलना।
ये मिट्टी, ये गाँव… यही असली दौलत है।
तू मेरा अभिमान था, है, और रहेगा।
तेरा बाबा—ठाकुर विक्रम सिंह"*
राजवीर फूट-फूट कर रो पड़ा।
उसने बाबा के शव को गले लगा लिया।
गाँव के सारे लोग चुपचाप उस दृश्य को देख रहे थे।
अगले दिन, पूरे गाँव की मौजूदगी में ठाकुर साहब की अंतिम यात्रा निकाली गई।
उस दिन, राजवीर ने सबके सामने ऐलान किया—
"अब मैं हमेशा इस गाँव में रहूंगा।
बाबा की ज़मीन, घर, सब कुछ यहीं रहेगा।
मुझे शहर की चमक नहीं चाहिए…
मेरी असली दौलत यही मिट्टी है!"
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आख़िरी सीन:
वो पुराना बड़ का पेड़…
ठंडी हवा…
एक नई शुरुआत…
और उस पेड़ के नीचे अब भी एक तस्वीर टंगी थी—
जिसमें ठाकुर साहब और राजवीर, दोनों साथ मुस्कुरा रहे थे।