Women... in Hindi Women Focused by Akhtari Khatoon books and stories PDF | औरत को समाज में इतना ताना क्यों दिया जाता है।

Featured Books
Categories
Share

औरत को समाज में इतना ताना क्यों दिया जाता है।

अखतरी की कलम से.... 

हम जिस समाज में रहते हैं, वहां औरत को ईश्वर की अनुपम रचना कहा जाता है। उसे माँ, बहन, बेटी और पत्नी के रूप में पूजा जाता है। लेकिन सच्चाई यह है कि उसी समाज में औरत को सबसे ज़्यादा ताने, उपेक्षा और अपमान का सामना करना पड़ता है। यह विरोधाभास ही हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है।

एक औरत अगर अपने अधिकारों की बात करे, तो उसे "ज़्यादा बोलने वाली", "जिद्दी", या "घर बिगाड़ने वाली" कहा जाता है। अगर वह चुप रहे, तो उसे "कमज़ोर" या "मूर्ख" कहा जाता है। यानी औरत कुछ भी करे, समाज को शिकायत रहती ही है। वह अगर जल्दी शादी कर ले, तो ताना—"पढ़ाई क्यों नहीं की?" और अगर देर से करे, तो—"अब उम्र निकल गई!" अगर वह घर में रहे तो उसे "आर्थिक बोझ" कहा जाता है, और अगर नौकरी करे, तो—"घर कौन संभालेगा?"

तानों की यह श्रृंखला यहीं खत्म नहीं होती। एक औरत अगर माँ नहीं बन पाती, तो उसे नाकाबिल समझा जाता है। और अगर वह केवल बेटियाँ ही जन्म दे, तो भी उसे ताने मिलते हैं—जबकि जन्म देने का जैविक आधार तो पुरुष पर भी निर्भर होता है। अगर औरत तलाक ले ले, तो पूरा समाज उसके चरित्र पर उंगली उठाता है, लेकिन अगर पुरुष ज़ुल्म करे, तो उसे "मर्दानगी" का नाम दे दिया जाता है।

इन तानों का असर केवल औरत की मानसिक स्थिति पर नहीं पड़ता, बल्कि समाज की सोच को भी विकृत करता है। कई बार ये ताने एक औरत को आत्महत्या तक के रास्ते पर ले जाते हैं। यह सिर्फ एक व्यक्ति की पीड़ा नहीं होती, यह पूरे समाज की असंवेदनशीलता की तस्वीर होती है।

इस स्थिति से निकलने का एकमात्र रास्ता है—शिक्षा, जागरूकता और समानता की भावना। हमें लड़कों को बचपन से ही यह सिखाना होगा कि औरत कोई वस्तु नहीं, एक इंसान है, जिसकी अपनी सोच, आत्मा और आत्मसम्मान होता है। समाज को यह समझना होगा कि एक औरत की भूमिका केवल घर तक सीमित नहीं है। वह डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, नेता, वैज्ञानिक और यहाँ तक कि देश की राष्ट्रपति भी बन सकती है।

औरत को ताना देने से पहले हमें खुद से यह सवाल करना चाहिए कि क्या हम सच में एक इंसान होने के योग्य हैं? क्या हम किसी के दर्द को महसूस कर सकते हैं? अगर नहीं, तो हमें सबसे पहले अपने भीतर इंसानियत को जगाना होगा।

आज जरूरत है औरत को ताना नहीं, साथ देने की। उसे दबाने की नहीं, उभारने की। क्योंकि जब औरत आगे बढ़ेगी, तभी समाज सही मायनों में तरक्की करेगा।

"औरत को सम्मान दो, ताना नहीं। उसे उड़ने दो, रोको नहीं।" )्््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््््

हामारा  समाज मेशा से हको एक सीमित दायरे में देखने का आदी रहा है। अगर औरत घर में रहे तो कहा जाता है "कुछ करती नहीं", और अगर बाहर काम करे तो सुनाया जाता है "घर की जिम्मेदारी नहीं निभाती।" यही नहीं, अगर वह अपने हक़ की बात करे तो उसे "ज्यादा बोलने वाली" या "बद्तमीज़" कहा जाता है।

औरत को ताने केवल उसके काम से नहीं, बल्कि उसकी निजी जिंदगी से भी दिए जाते हैं—शादी कब की, कितने बच्चे हुए, बेटा नहीं हुआ, पहनावा कैसा है, देर से क्यों लौटी, ये सब बातें समाज के लिए चर्चा का विषय बन जाती हैं।

यह तानाशाही सोच और असमानता की जड़ें हमारी परवरिश, शिक्षा और पुरुषप्रधान मानसिकता में छिपी हैं। समाज औरत को इंसान नहीं, एक 'भूमिका' समझता है—माँ, पत्नी या बहू।

अब वक्त है कि समाज अपनी सोच बदले। औरत को ताना नहीं, समानता और सम्मान मिलना चाहिए। जब औरत आगे बढ़ेगी, तभी समाज आगे बढ़ेगा। हमें यह समझना होगा कि औरत भी एक इंसान है, जो सपने देख सकती है और उन्हें पूरा करने का हक रखती है।