दीपक शर्मा
“एक्सक्यूज़ मी,” क्लास रूम के दरवाज़े पर नीति अपनी सहेली के साथ खड़ी थी, “मुझे आलोक के साथ बहुत ज़रूरी काम है…..”
“यह कौन है?” अध्यापक समेत सभी मेरी ओर देखने लगे।
“मेरी बहन है,सर,” मैं ज़मीन में गड़ गया।
“तुम्हारे परिवार वालों का इस तरह क्लास में आना ठीक नहीं,”अध्यापक ने कहा।
“आए एम सारी,सर,” मेरी जगह नीति बोल दी, “आइंदा ऐसा नहीं होगा…..”
सभी हंसने लगे।
“क्या बात है?” लपक कर मैं नीति को बरामदे की ओट में ले गया, “तुम मेरे स्कूल क्यों आयी?”
“अपने स्कूल पहुंचने पर मुझे पता चला आज वहां छुट्टी थी। कल रात हमारी एक टीचर का देहांत हो गया था…..”
“तो?”
“मैं तुम्हें घर की चाभी देने आयी हूं।मैं अपनी इस सहेली के घर जा रही हूं।”
“तुम अपना खाना साथ वाले होटल से मंगवा लेना। नीति मेरे घर पर खाना खाएगी…..” सहेली मुझ से बोली।
“जाओ,” चाभी पकड़ते समय मैं ने नीति की उंगली कस कर मसल दी।
उस समय सुबह के नौ बजे थे।
एक बज कर पचास मिनट पर कड़ी धूप में साइकल चला कर जब मैं घर पहुंचा तो देखा होटल बंद था।
सहेली के घर जाने की मौज में नीति भूल गयी थी उस दिन मंगलवार था और कारखाने बंद रहने की वजह से होटल वाला भी छुट्टी मना लिया करता था। उस के अधिकांश ग्राहक कारखानों के मज़दूर और बाबू इत्यादि ही रहा करते थे।
“आलोक,” मैं ने घर का ताला अभी खोला भी न था कि पापा ने मेरा नाम पुकारा। उन के हाथ में मेरी मनपसंद बेकरी का लिफ़ाफ़ा था।
मेरा मन बल्लियों उछल पड़ा।
“क्या शर्बत बना लाऊं?” मैं ने पापा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करनी चाही।
“नहीं,पहले तुम कुछ खा लो। बाद में अपने लिए शर्बत बना लेना। मैं प्रैस वापस जा रहा हूं। आज एक आर्डर मिलने वाला है। मुझे वहां न पा कर ग्राहक अपना इरादा बदल भी सकता है…..”
“आप पांच मिनट तो रुकिए। मैं शर्बत बना कर अभी आया…..”
“नहीं,मुझे थोड़ा ज़ुकाम है। ठंडा नहीं पीना चाहता…..”
“तो आप आलमारी से हीटर निकालिए।मैं आप के लिए चाय बनाऊंगा…..”
हीटर हम केवल पापा की उपस्थिति ही में जलाया करते। अन्यथा वह उन की आलमारी ही में रहा करता।
पापा की अनुपस्थिति में आलमारी हमेशा बंद रहती। आलमारी का ताला था भी बहुत मज़बूत । मैं जब भी गुपचुप उसे खोलने की कोशिश किया करता,उस का ताला कभी टस से मस न हो पाता।
“ठीक है,” पापा ने अपनी जेब से चाबी निकाली, “तुम पैन में चाय का पानी ले कर आओ।और जल्दी लाओ। मैं ज़्यादा देर रुक नहीं सकता…..”
मेरे सामने अपनी आलमारी खोलने से पापा हमेशा कतराया करते। किसी न किसी बहाने हर बार मुझे कमरे से बाहर भेज ही देते। बहाना हमेशा एक ठोस आयोजन का भाग रहता और मन मसोस कर आलमारी में झांकने का अवसर मुझे हर बार खो देना पड़ता।
हीटर पर चाय का पानी रख कर मैं ने लिफ़ाफ़ा खोला।
पैस्चराइज़ड मक्खन की मोटी तहें लिए स्लाइस्ड गार्लिक लोफ़ अनावृत हुआ। बेकरी का मालिक पापा के आर्डर अतिरिक्त सावधानी व चाव से पैक करता था।
“यह प्लेट आप की है,” ट्रे में चाय की केतली में हिसाब की चाय- पत्ती और दूध के साथ मैं दो प्लेट भी लेता आया था।
“नहीं, यह तुम्हारे लिए ही है। तुम खाओ…..”
“यह चार स्लाइस ज़रूर ले लीजिए,” मैं ने आग्रह किया।
“यह लोफ़ तो मैं तुम दोनों बच्चों ही के लिए लाया था…..”
“नीति अब लोफ़ कहां खाएगी? वह तो सहेली के घर पर उस की मां के हाथ का बना खाना उड़ा रही होगी…..”
“वह बहुत संकोची है,” पापा ने अपनी प्लेट उठा ली, “किसी बेगाने के घर पर भरपेट खाना उस के लिए असंभव है…..”
“नीति घर की चाबी देने मेरे स्कूल पर क्यों आयी,” आधा लोफ़ जब मेरे पेट में जा चुका तो मैं ने अपने मन की बात छेड़ दी, “आप के पास प्रैस पर क्यों नहीं गई?”
“वह पहले प्रैस पर ही आयी थी। जब मैं वहां उसे नहीं मिला तो तुम्हारे स्कूल चली गई।”
“प्रैस में आप के नाम नोट लिख कर चली जाती। वहां किसी को भी दे आती। मेरे स्कूल क्यों आयी?”
“उसे क्या मालूम प्रैस पर मैं कब तक लौटता और जिस किसी को नोट पकड़ा कर जाती वह मुझे देता न देता…..”
“तो ऐसी भी कौन सी आफ़त थी। सहेली के घर न जाती। घर लौट आती…..”
“खाली घर में इतनी देर अकेले रहना उसे मुश्किल लगा होगा। शायद वह डरती भी रही हो…..”
“क्या यहां अकेले रहने में कोई खतरा है?” मैं सकते में आ गया।
“नहीं,तुम्हारे लिए यहां कोई खतरा नहीं,” पापा ने कहा, “पर नीति की बात और है। नीति लड़की है। इतने सारे कारखानों के बीच जो इक्के- दुक्के मकान यहां हैं भी,उन में नीति के जोड़ का कोई नहीं।ऐसे में उस का सहेली के घर चले जाना बेहतर ही है…..”
“यहां मेरे जोड़ का भी कोई नहीं।आप शहर में नया मकान ले लीजिए।”
“शहर में नया मकान लेने के लिए हमें बहुत से रुपयों की ज़रूरत पड़ेगी और इस समय हमारे पास रुपए ज़्यादा हैं नहीं…..”
“क्या इसीलिए मां का आपरेशन होते- होते रह गया?”
“हम आपरेशन करवाते भी तो कोई गारंटी नहीं थी,वह बच जाती,” पापा का गला रुंध आया, “ज़िंदगी में बहुत कुछ भाग्य के अधीन रहता है…..उसे नहीं बचना था,सो नहीं बची…..”
“पर आपरेशन कामयाब भी हो सकता था,” मैं उत्तेजित हो उठा।
मां को फिर से देखने की,छूने की,सुनने की और सूंघने की इच्छा मेरे अंदर ज़ोर पकड़ने लगी।
“उस की बीमारी ही ऐसी थी, जिस के सामने डाक्टर की एक न चलती….. “ पापा एकाएक उठ खड़े हुए।
“पर कुछ डाक्टर आप से बराबर आपरेशन करवाने पर ज़ोर तो देते रहे थे,” मैं अड़ गया।
“नहीं,एक भी डाक्टर गारंटी देने को तैयार नहीं था। हमारे साथ वाले कमरे के मरीज़ का भी वही आपरेशन हुआ था। उन लोग ने अपनी सारी ज़मीन- जायदाद आपरेशन पर लगायी थी,पर क्या हुआ? न मरीज़ ही बचा और न ही ज़मीन- जायदाद.….”
“क्या हमारे पास कोई ज़मीन- जायदाद नहीं?” मैं ने पूछा, “क्या हम गरीब हैं? अमीर नहीं?”
“नहीं,हम गरीब बिल्कुल नहीं,” पापा ने हंस कर मेरी गाल थपथपाई, “हमारे पास काफ़ी ज़मीन -जायदाद है। पर इस समय मैं कुछ बेचना नहीं चाहता। तुम जब बड़े होओगे तो तुम अपनी मर्ज़ी से जो चाहे बेच लेना…..”
“नीति मुझे मेरी मर्ज़ी नहीं करने देती। हर बात अपनी चलाती है…..”
“नीति अभी छोटी है। उसे कुछ पता नहीं। बड़ी होगी तो जान जाएगी। उसे दूसरे घर जाना है। इस घर के,मेरी सारी ज़मीन- जायदाद के मालिक तुम हो…..”
“कैसै?” मुझे गहरा कौतुक हुआ।
“तुम लड़के हो। इसलिए सब कुछ तुम्हारा होगा…..”
“क्या मां जानती थीं,सब कुछ मेरा होगा?”
“हां। वह सब जानती थी,” पापा के होंठ मुड़क गए, “उसी ने मुझे प्रैस वाली बिल्डिंग बेचने को रोका था।बोली थी, मैं जानती हूं मैं बचूंगी नहीं। आप आलोक की अमानत मत खराब करें…..”
“क्या मां मुझे नीति से ज़्यादा प्यार करती थीं?”
“नहीं। वह नीति को भी बहुत प्यार करती थी। अगर तुम नीति के सामने ऐसा बोलोगे तो उसे बहुत दुख होगा। उस का मन तो पहले से ही इतना बुझा- बुझा- सा है। उस की उम्र की लड़कियों को मां की बहुत ज़रूरत रहती है…..”
“मां की ज़रूरत तो मुझे भी बहुत है,” मैं गला फाड़ कर रोने लगा।
“तुम लड़के हो,” पापा ने अपनी बांह से मेरी पीठ घेर ली, “मुश्किल आने पर लड़के ज्य़ादा बहादुर,ज़्यादा होशियार और ज़्यादा आज़ाद हो जाते हैं…..उठो,चाय का पानी खौल रहा है…..केतली लाओ इधर,मैं उस में पानी पलट दूं……और चाय के लिए प्याले तो तुम लाए ही नहीं…..”
रोना थाम कर मैं रसोई की ओर दौड़ चला।
“चाय- पत्ती और दूध बहुत हिसाब का रहा और चाय बहुत अच्छी बनी है,” पापा ने मेरी पीठ थपथपाई।
“मैं चाहूं, तो खाना भी बना लूं,” मैं ने पापा की प्लेट में लोफ़ के दो स्लाइस और रख दिए, “मैं नीति की तरह नहीं हूं। उस ने मां से कुछ नहीं सीखा। रसोई में वह कभी जाती ही न थी। मां बुलातीं, तब भी नहीं…..”
“नीति बेचारी शुरू ही से पढ़ने वाली लड़की रही है। अपना सारा समय पढ़ाई ही को देना चाहती है। अब बेचारी हमारे लिए मजबूरन रसोई में जाती है…..”
“रसोई के लिए हमें अब एक नौकर ज़रूर रख लेना चाहिए। नीति बहुत खराब खाना बनाती है। सब्ज़ी में कभी नमक ज़्यादा डाल देती है तो कभी काली मिर्च। दाल में कभी हल्दी ज़्यादा होती है तो कभी ज़्यादा पानी।उस की बनी चपाती तो चबाए नहीं बनती। और तो और,उसे तो दूध भी ठीक से उबालना नहीं आता।आधा दूध रोज़ भगौने से नीचे गिरता है…..”
“उसे शुरू किए अभी मुश्किल से आठ- दस दिन ही तो हुए हैं…..धीरे- धीरे सब सीख जाएगी…..”
“वह कभी नहीं सीख सकती,” मैं ने सिर हिलाया, “हमें ज़रूर रसोई के लिए एक नौकर रख लेना चाहिए…..”
“नीति लड़की है और आजकल नौकरों का कोई भरोसा नहीं। कई नौकर बहुत बदतमीज़ होते हैं।जब नीति की शादी हो जाएगी तो हम ज़रूर नौकर रख लेंगे…..”
“उस की शादी आप जल्दी कर दीजिए,” मैं अधीर हो उठा।
नीति की उपस्थिति मुझे बहुत खलती थी। पल- पल वह मुझ पर हुक्म चलाया करती— उसे उठाओ, इसे रखो…..उसे बंद करो,इसे खोलो…..उसे बुलाओ,इस के यहां जाओ……
“नहीं,” पापा हंसने लगे, “उस की शादी जल्दी नहीं हो सकती। अभी वह बहुत छोटी है। फिर वह पढ़ने में तेज़ है। उसे डाक्टर ज़रूर बनाएंगे।”
“डाक्टर बनने में उसे कई साल लग जाएंगे,” मैं हताश हुआ।
“उस के डाक्टर बन जाने से हमीं फ़ायदे में रहेंगे। उसे भारी- भरकम दहेज देने से बच जाएंगे। अगर उसे पढ़ाए बिना ब्याह देंगे तो हमें उस के लिए ज़्यादा दहेज जुटाना पड़ेगा…..हो सकता है गांव वाली ज़मीन बेच देनी पड़े, अपना प्रैस गिरवी रखना पड़े या उस का एक हिस्सा किराए पर उठा देना पड़े…..”
“फिर तो नीति का डाक्टर बन जाना ही बेहतर रहेगा,” एक साझेदार की तरह मैं ने अपनी सहमति दी।
“अब मैं चलूंगा,” पापा उठ खड़े हुए, “नीति जब आए तो उस से झगड़ा नहीं करना…..न ही उसे इस बारे में कुछ बताना…..आपरेशन और ज़मीन- जायदाद वाली बात तो बिल्कुल ही नहीं…..”
“नहीं, मैं उसे कुछ नहीं कहूंगा…..कुछ नहीं बताऊंगा…..वह बेचारी तो लड़की है…..”
पापा की दीक्षा से मेरी उस ग्यारह वर्ष की आयु में कई- कई वर्ष एक साथ आन जुड़े। मेरे हाथ उस चरख़ी पर जा जमे थे जिस की घिरनी मुझे उस दुनिया में घुमा गई थी जहां
नीति से चार वर्ष छोटा होते हुए भी मैं उस से सदियों वर्ष बड़ा था।
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