Ishq Benaam - 4 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | इश्क़ बेनाम - 4

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इश्क़ बेनाम - 4

04

जान बची, लाखों पाए

रागिनी का औसत कद, और शरीर के अनुपात में परफेक्ट फिगर। काली तरल आँखें, गुदगुदे सुर्ख ओठ, आकर्षक नाक, चंदा-सा गोलमटोल गोरा मुखड़ा और उन्नत उभार, जैसे- प्लास्टिक सर्जरी कराई हो! मंजीत की आँखों में छा कर रह गए थे।

दिन भर दफ्तर में बैठा-बैठा वह उससे मिलन के मंसूबे बाँधा करता। 

बुजुर्ग सहकर्मियों से सुन रखा था कि गुदगुदे ओठ और तरल आँखों वाली लेडीज सहवास में अपने साथी को पूर्ण संतुष्टि प्रदान करने वाली होती हैं। स्वभाव से मिलनसार और दयालु जो अपने रिश्तों में ईमानदारी और वफादारी की कद्र करती हैं। अपने साथी की भावनाओं को समझने में सक्षम और उनका सम्मान करने में अग्रणी...। 

और सोने पर सुहागा, उसकी मीठी आवाज, नपे-तुले बोल और किसी को बेजा लिफ्ट न देने वाला रिजर्व नेचर। सो वह विशेष लालायित था।

दो-तीन दिन बाद एक दिन दफ्तर जाते-जाते स्कूटर आखिर उसके घर की ओर मुड़ गया। और वह अचानक जब वहाँ पहुँचा, संयोग से दरवाजा खुला मिल गया! दरवाजे से ही उसने देखा कि घर लगभग सूना है! वहाँ पर केवल रागिनी ही दिख रही है! 

प्रसन्न मन घर में प्रवेश करते उसने पूछा, ‘कोई और नहीं दिख रहा...कहाँ गए सब लोग?’ 

रागिनी उसे यकायक आया देख चौंक गई, उसने हड़बड़ी में कहा, ‘पापा दीदी को लेकर हॉस्पिटल चले गए हैं, मम्मी कल ही ताई के पास गाँव!’ घर का कामकाज निबटाती वह अभी तक कॉन्वेंटी लड़की-सी ही स्कर्ट-ब्लाउज में घूम रही थी। मंजीत की आँखें उस पर जमी रह गईं क्योंकि इस ड्रेस में वह एक सलौनी गुड़िया-सी दिख रही थी।

भीतर आते-आते उसने व्यग्रता से सोचा, बसंत पंचमी के दिन तो मुराद पूरी न हुई, ईश्वर ने शायद आज मौका दे दिया!

रागिनी तब तक उसके लिए पानी ले आई थी, ‘दीदी की तबीयत ठीक नहीं है, मम्मी भी बाहर...सारा काम मेरे ही सर, इसलिए...’ अपनी ड्रेस की ओर देखते, लजाते हुए कहा उसने।

‘अरे नहीं, इसमें तो तुम और भी सेक्सी लग रही हो!’

‘ये तो आपकी नजरों का कमाल है...’ कहते-मुस्कुराते वह किचेन की ओर जाने लगी, ‘चाय पियोगे?’

‘पापा कब तक आएँगे?’ धड़कते दिल (गोया किसी गोपनीय मकसद) से पूछा उसने। 

‘पता नहीं!’ लापरवाही से बोली वह, फिर हँसने लगी, ‘आएँगे तो आएँगे ही; जाएँगे कहाँ, यहाँ नहीं आएँगे तो...’ कह हाथ मटकाती पूर्णतया बेफिक्र-सी किचेन की ओर चली गई। क्योंकि, फिलहाल कोई आने वाला न था। और अब किचेन में मस्ती में गुनगुनाती (इश्का दे लेखां विच लिखेया ऐ नाम तेरा... किस्मत दे हथां च लिखेया ऐ नाम मेरा... तू मेरे कोल, मैं तेरे कोल... दिल दे कोल-कोल रब ने बनाया... किस्मत दे नाल मिलेया ऐ प्यार ये सच्चा...) चाय बना रही थी, गोया मुराद पूरी हो गई थी...। क्योंकि वह भी तो आकर्षित थी उसके प्रति। मोहल्ला पंजाबियों का। बचपन से ही खूब लंबे-तगड़े लड़के देखती चली आई, सो बिरादरी के और दूसरे हिंदू लड़के छुई-मुई से लगते। पर मोहल्ले में किसी से आँख लड़ाने का साहस न था। माँ-बाप और बहन मिलकर फाड़ खाते...।

चाय लेकर मुस्कुराती हुई वह आ गई, जबकि जरूरत न थी! पर कैसे कहता- खाने-पीने नहीं, इश्क लड़ाने आया हूँ!’ निराशा से भरा हॉल में पड़े सोफे पर आँख मूँदे बैठा था। 

जब ट्रे आगे बिछी छोटी मेज पर रख, ऐन ऊपर झुक पीने का इसरार कर उठी, तब उसके जिस्म की तपिश से आँख खोल विस्फारित नेत्रों से देखा उसने और साहस जुटा ऐन ऊपर लटकते आम से बौराये उरोज उंगलियों से छूते हुए गाने लगा, ‘केतकी गुलाब जूही चंपक वन फूले...’

गीत उसे भी याद था, उस पर भी जैसे रंग चढ़ गया, बाँहें गले में डाल, स्वर में स्वर मिला उठी, ‘रितु बसन्त अपनो कन्त, गोदी गरवा लगाय, झुलना में बैठ आज पी के सँग झूले!’

मंजीत को मानो यकीन नहीं हुआ, उजबक-सा वह देखता रह गया। पर ऐन नजदीक हो आए ओठों को भी चूमने से डर गया कि यह घर है! हताशा से भरा कहने लगा, ‘किस्मत दगा दे गई, रूम सेपरेट न मिला! दो-तीन साल में तुम्हारे नजदीक आने का, बसंत बाँधने-बंधाने का वही तो एक मौका आया!’ 

सुनकर मुस्कान और गहरी कर दी, फिर गोया दीनता पर द्रवित हो फुसफुसाई, ‘मौका यहाँ नहीं क्या!’

-अरे! अरे! विस्मय-हर्ष से भरा दिल हुलस कर छलक पड़ा। हाथ आगे बढ़ा बाँध लिया भुजपाश में और गोदी में धर ले आया कमरे के अंदर, गुनगुनाते हुए, ‘सज-धज नव, किसलय वृन्तों में, गुँथे पराग से मतवाली...’ और वह फिफियाती रह गई कि- अये-अये, चाय तो पी लेते मतवाले...’

अब ले तो आया, मगर हिम्मत ही नहीं पड़ रही थी। शब्द बौने हो गए थे, हाथ लकवा-ग्रस्त से...। कैसे कहे, क्या करे! 

बच्चे-सी दीन दशा देख हँस पड़ी रागिनी, ‘कुछ चाहिए, मंजीत...’

‘चूड़ी!’

‘सो...’ मुस्कान बरकरार थी।

‘प-प, पहना दो!’ हकला गया।

‘नाप लाये...!’ मुस्कान और गहरा गई।

‘नाआ--प! ‘ हकलाहट जारी थी। 

‘फिर तो नहीं, माल है नहीं......’ पोटली बाँध ली गोया।

‘क्यों...काहे!’ अधीर हो उठा वह और उसकी दयनीय दशा देख फिर हँस पड़ी रागिनी, ‘यों कि... हम तो कच्चे काँच वाली रखते हैं... वो भी पंजाबियों के नाप की नहीं...। कहीं चटक गई तो!’

‘तो क्या, मनिहारिन को तो रिस्क लेना पड़ता है!’ हाथ पकड़ लिया। और झूमा-झटकी में, चूड़ी अंततः चटक ही गई। आँखों में आँसू और वह खिसिया गई, सो फिर मनाए न मानी, पोटली बाँध ली, दिन खिसक गया मनुहार में। द्वार खटक उठा तो आहट लेते हठात फुसफुसाई, ‘छोड़ो-छोड़ो, चलो बंध गए बसंत!’

‘अरे-अरे, अभी कहाँ?’ नाड़ी छूट गई, उसकी। 

हाथ झटक दिया घबराहट में, ‘द्वार खटक रहा है...बैरी!’ और कान लगा सुना मंजीत ने तो फिर भाग कर बाथरूम में ही शरण मिली जो कि मेनगेट से ऐन पहले गैलरी में था।

दरवाजा खोलते ही बहन और पापा खूब तड़पे, ‘ऐन बहरी हो गई क्या, कब से खटखटा रहे थे!’ 

ऐन बहरी हुई हो या नहीं पर ऐन सहम गई, कुछ कहते न बना। क्या कहती कि बसंत बंधवा रही थी, और मदन की धौं-धौं में तुम्हारी तूती सुनाई न दी! 

अस्पताल की बू भरे कपड़े बदलने जब वे लोग भीतर चले गए, उसने बाथरूम के गेट से लग काँपते स्वर में कहा, ‘निकल जाओ जल्दी...से।’ यह सुन हड़बड़ाया हुआ मंजीत फुर्ती से निकल भागा और रागिनी ने झट से बे-आवाज गेट बंद कर लिया! जान बची और लाखों पाए! दौड़ कर हॉल से चाय पर पपड़ी जमे कप उठाये और किचेन में आ सिंक में उलट दीवार से टिक आँखें मूँद हाँफने लगी। 

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