लेखक - धीरेंद्र सिंह बिष्ट
अध्याय 1: पहाड़ की पहली दरार
(जहां से पलायन शुरू हुआ)
देवभूमि उत्तराखंड — जहां हवा में भी गूंजते थे मंदिरों के घंटे, जहां नदियों के किनारे किस्से बहते थे, और जहां हर गांव की सुबह घण्टियों, पक्षियों और बच्चों की चहक से होती थी। पर आज, उसी उत्तराखंड में हजारों गांव ऐसे हैं जहां अब सिर्फ सन्नाटा बचा है।
पलायन की शुरुआत किसी एक घटना से नहीं हुई। ये एक धीमी मौत थी — अवसरों की कमी, विकास से दूरी, और युवाओं के सपनों की तलाश ने इसे जन्म दिया।
आंकड़ों की सच्चाई:
उत्तराखंड सरकार द्वारा गठित पलायन आयोग की रिपोर्ट (2018) के अनुसार:
राज्य में 16,793 गांव हैं।इनमें से 734 गांव पूरी तरह वीरान हो चुके हैं।लगभग 3 लाख से अधिक लोग पिछले दो दशकों में अपने गांव छोड़ चुके हैं।अकेले पौड़ी, टिहरी और अल्मोड़ा जिलों में सबसे ज़्यादा पलायन हुआ है।
(Source: Hindustan Times, The Wire, Migration Commission of Uttarakhand)
गांव जो अब बोलते नहीं:
उत्तरकाशी के एक गांव ‘कफनौ’ की कहानी दिल को झकझोर देती है। वहां कभी 45 परिवार रहते थे। आज सिर्फ 2 बुज़ुर्ग बचे हैं। बाकी सब शहर चले गए — देहरादून, दिल्ली, हल्द्वानी, लखनऊ — कोई पढ़ाई के लिए, कोई नौकरी के लिए।
वहां की 84 साल की गोविंदी देवी कहती हैं:
“हम तो बस यहां रह गए हैं… जब मरेंगे तो कौन देखेगा, ये भी नहीं पता। बेटा फोन करता है, कहता है मां वहां कुछ नहीं है… शहर में ही सब कुछ है।”
कारण जो दरार बने:
रोजगार का संकट:पहाड़ों में कृषि आज भी वर्षा पर निर्भर है। युवाओं को नौकरियाँ नहीं मिलतीं।स्वास्थ्य सेवाओं की कमी:दूर-दराज गांवों में ना अस्पताल हैं, ना डॉक्टर। गंभीर बीमारी का मतलब है — शहर जाना या भगवान भरोसे जीना।शिक्षा की विफलता:स्कूल हैं, पर अध्यापक नहीं। कॉलेज और उच्च शिक्षा का कोई नामोनिशान नहीं।बुनियादी ढांचे का अभाव:कई गांवों में आज भी सड़कें नहीं पहुंचीं। बिजली और पानी तक सीमित है।
एक पिता की चुप्पी:
अल्मोड़ा के पास एक गांव में मोहन सिंह बिष्ट अकेले रहते हैं।
“बेटा इंजीनियर बन गया। नौकरी लगी तो गांव जाना छोड़ दिया। अब घर में बस मैं हूं और मेरी छड़ी।”
उनका बेटा हर महीने पैसे भेज देता है। लेकिन क्या बूढ़ी आंखों को नोटों से संतोष मिल सकता है?
जब पहाड़ ने चीख सुनी:
एक समय था जब गांव की चौपालों पर शामें गुलजार होती थीं। अब वहां घास उग आई है। घरों की दीवारें झुकने लगी हैं, खिड़कियों पर धूल है। ये सिर्फ मकान नहीं हैं — ये स्मृतियाँ हैं। इनमें अब कोई नहीं रहता, पर वे कहानियाँ अब भी सांस लेती हैं।
स्थानीय लोगों की जुबानी:
“अगर सरकार कुछ करती, तो शायद हम वापस आ जाते।”
— रणजीत सिंह, पलायित युवा
“हमने उम्मीद छोड़ी नहीं है। अगर आज नहीं, तो कल सही… कोई तो लौटेगा।”
— दया देवी, 73 वर्ष
अध्याय की अंतिम पंक्तियाँ:
ये सिर्फ एक गांव की कहानी नहीं है। ये उन हजारों गांवों की आवाज़ है जो अब खामोश हैं। जहां दरवाज़े खुले हैं, पर राह देखने वाला कोई नहीं।
यही है “पहाड़ की पहली दरार” — वो लम्हा जब लोगों ने पहाड़ नहीं, अपने जड़ें छोड़ दीं।
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