मुझे सब याद है…
मैं अपने घर में थी।
वही घर... जहाँ की हर दीवार, हर कोना मुझे पहचानता था।
वही सोफ़ा, जिस पर मैंने पहली बार अपनी डायरी खोली थी।
वही खिड़की, जिससे मैंने कभी चाँद को देखा था... और कभी खुद को।
उस दिन हवा में कुछ अलग था—जैसे ख़ुशी किसी अदृश्य दुपट्टे की तरह उड़ रही हो।
हर चीज़ में एक नई चमक थी।
सब तैयारी पूरी हो चुकी थी। मम्मी ने मेरा पसंदीदा जीन्स-टॉप निकाला था—वो हल्के नीले रंग वाला, जिसे पहनकर मैं खुद को थोड़ा और "मैं" लगती हूँ।
पापा बार-बार पूछ रहे थे: “सब कुछ ठीक है न?”
और मेरा छोटा भाई तो बस हँस-हँस कर मेरी टांग खींच रहा था—जैसे उसे सब कुछ किसी फिल्म जैसा लग रहा हो।
मेरे ससुराल वाले पहली बार घर आ रहे थे।
और जब वो आए—मम्मी, पापा, राज... और उसकी बड़ी बहन,
तो सब कुछ जैसे स्लो-मोशन में चलने लगा।
दिल तेज़ धड़क रहा था, लेकिन चेहरा शांत था।
घर में पहली नज़र का जादू था—एक नर्मी थी, एक छुपी हुई उम्मीद।
राज मुझे देख रहा था… पर आँखों से नहीं, दिल से।
मैं समझ गई थी। उसने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी आँखों में एक सवाल था…
और शायद एक दुआ भी।
उस पल में सब कुछ ठहर गया था।
मम्मी की चाय की ट्रे, राज की बहन की हल्की सी मुस्कान,
और मेरे हाथों की ठंडक… सब एक साथ महसूस हो रहा था।
शाम को हम सब एक होटल गए।
बारिश हो रही थी—न भीगने वाली, न थमने वाली। बस महसूस होने वाली।
होटल की रोशनी बारिश की बूँदों में झिलमिला रही थी,
और सब कुछ किसी dreamy फिल्टर जैसा लग रहा था।
सब लोग फैमिली डिनर के लिए तैयार हो रहे थे।
राज के पापा मेरी मम्मी से राजनीति पर बात कर रहे थे,
राज की बहन मेरे छोटे भाई से करियर के ऑप्शन डिस्कस कर रही थी।
और मैं?
मैं बस खिड़की के पास खड़ी थी—बारिश को निहारते हुए,
और उस शीशे के रिफ्लेक्शन को महसूस करते हुए…
जिसमें राज खुद को देखने का बहाना कर रहा था,
पर असल में… मुझे देख रहा था।
तभी सब कुछ बदल गया।
पता नहीं कैसे, लेकिन मैं और राज एक पुरानी हवेली में थे।
एक अलग ही दुनिया थी—जैसे वक़्त थम गया हो।
हवेली के बड़े-बड़े दरवाज़े, रंगीन काँच वाली खिड़कियाँ,
और वो ख़ुशबू… जो किसी पुरानी महफ़िल की याद दिलाती थी।
हर कोना चुप था, फिर भी सब कुछ कह रहा था।
राज ने मेरा हाथ थामा। “ये कहाँ आ गए हम?”
मैं मुस्कराई। “जहाँ वक़्त सिर्फ़ हमारा है।”
वहाँ हमने हर पल को महसूस किया—कुछ मीठा, कुछ चटपटा,
थोड़ी हँसी, थोड़ी ख़ामोशी।
हर झरोखे से लगता था जैसे हवेली भी हमारी कहानी सुन रही हो।
वो एक ऐसी दुनिया थी जहाँ सिर्फ़ दो लोग थे—मैं और राज।
ना ज़िम्मेदारियाँ, ना औपचारिकताएँ। बस हम।
प्यार को महसूस करने के लिए और क्या चाहिए?
फिर हम हवेली के गेट तक आए।
वो गेट… जैसे कहानी का पहला पन्ना भी हो सकता था, या आख़िरी।
तभी कुछ अजीब हुआ—
राज की आवाज़ धीमी पड़ने लगी।
सब कुछ धुँधला-सा लगने लगा।
और फिर…
मेरी आँख खुल गई।
मैं अपने बिस्तर पर थी। सब कुछ वैसा ही था।
लेकिन मेरे हाथ में... एक पुरानी चाबी थी।
क्या वो सपना था?
या... कहानी अभी बाक़ी थी?
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आगे की कहानी जल्द ही लेकर आऊंगी…
अगर कहानी अच्छी लगे या ना भी लगे,
तो अपना फ़ीडबैक ज़रूर देना...
ताकि मैं और भी बेहतर लिख सकूं।
धन्यवाद 😊
— डिंपल लिम्बाचिया
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