(नित्या की टूटी शादी से पूरा परिवार भावनात्मक रूप से आहत था, लेकिन उसका सहारा बनकर सबने उसे फिर से आत्मनिर्भर बनने की राह दिखाई। छाया, जो अब तक लापरवाह मानी जाती थी, पढ़ाई और जिम्मेदारी की ओर बढ़ने लगी। उसके व्यवहार में आए बदलाव ने सबको चौंका दिया। नित्या का प्रगति कॉलेज में दाखिला और केशव द्वारा बताई गई स्कॉलरशिप स्कीम ने परिवार में नई उम्मीद जगा दी। छाया ने भी अच्छे अंकों का संकल्प लिया। यह बदलाव केवल एक बेटी या बहन का नहीं, बल्कि पूरे परिवार के सोच, समर्थन और विकास की ओर उठाया गया ठोस कदम था। अब आगे)
नित्या के लिए घर में खुशी का माहौल था। केशव ने मुस्कराते हुए घोषणा की —
"आज रात पूरा परिवार बाहर घूमने जाएगा।"
छाया खुशी के मारे उछल पड़ी, नाचने लगी।
केशव ने उसे टोकते हुए कहा —
"छाया! कॉलेज के लिए जल्दी निकलना है, भूल मत जाना।"
छाया दौड़कर बाथरूम में घुस गई।
ये क्या! जो लड़की एक घंटे तक बाथरूम से बाहर नहीं निकलती थी, आज महज़ दस मिनट में बाहर आ गई।
जतिन ने मुस्कराते हुए कहा —
"साबुन लगाया भी है या नहीं?"
छाया ने पापाजी को गुस्से से देखा और कुछ कहे बिना अपने कमरे में चली गई।
सबके ठहाके गूंज उठे।
छाया ने जल्दी से अपना लंच बॉक्स पैक किया और नाश्ता करने बैठ गई।
केशव ने मां से फुसफुसाकर कहा —
"मां! यह छाया है या उसकी जुड़वां बहन?"
मां ने थोड़ी देर तक गौर से देखा और कहा —
"छाया ही है शायद..."
अब छाया का गुस्सा और बढ़ गया। वह बैग उठाकर निकलते हुए बोली —
"आज 6-6:30 तक आउंगी।"
और दरवाजा बंद करते ही पूरे घर में फिर हँसी की लहर दौड़ गई।
बाहर काशी उसका इंतज़ार कर रही थी। दोनों सहेलियां बातों में खोई बस स्टैंड तक पहुंचीं।
करीब एक घंटे बाद कॉलेज पहुँचकर दोनों क्लास में दाखिल हुईं।
चिराग सर क्लास में आए। पढ़ाई शुरू हो गई। उन्होंने नोटिस किया कि छाया बार-बार उनकी तरफ देख रही थी।
सर ने पूछा —
"क्या हुआ छाया? कुछ समझ में नहीं आ रहा क्या?"
छाया बोली —
"समझ आ रहा है..."
और नज़रें नीचे झुका लीं।
सर उसकी बेंच के पास आए और देखा कि वह एक जगह अटक गई थी। उन्होंने उसकी गलती सुधारी और फिर क्लास से कहा —
"तुम लोग स्टूडेंट हो। इस नाते शिक्षा तुम्हारा पहला हक है। अगर क्लास में कुछ समझ न आए तो टीचर से उसी वक्त पूछ लेना। जिज्ञासा ही ज्ञान की पहली शर्त है। याद रखना।"
सभी छात्र एक स्वर में बोले —
"हां सर!"
सर को पता था कि छाया और काशी कमजोर भले हों, लेकिन हर क्लास अटेंड करती हैं। इसलिए उनकी नज़रें अक्सर इन दोनों पर टिकी रहतीं।
उधर नित्या भी चाची के साथ प्रगति कॉलेज पहुंच चुकी थी। एडमिशन की सारी प्रक्रिया पूरी हुई और वो एमए की छात्रा बन गई। किताबें भी सामने की दुकान से मिल गईं — पूरे 60% डिस्काउंट पर।
इधर क्लास खत्म होते ही छाया और काशी लाइब्रेरी की ओर जा रही थीं कि तभी काशी के घर से फोन आया। फोन सुनकर काशी का चेहरा उतरा।
छाया ने पूछा तो बोली —
"घर में कोई एमरजेंसी आ गई है, मुझे जाना पड़ेगा।"
छाया ने कहा —
"साथ चलूं?"
"चिन्ता मत कर, कोई बड़ी बात नहीं है। तू पढ़ाई कर, शाम को सब बताती हूं।"
कहकर काशी चली गई।
छाया लाइब्रेरी पहुंची और पढ़ने लगी। विनय के दिए नोट्स भी साथ रखे थे। समय का पता ही नहीं चला। 4:10 बज चुके थे।
उधर विनय को लगा कि शायद छाया का पढ़ाई का जोश बस एक दिन का था, इसलिए उसने भी कॉल नहीं किया।
उधर विशाल और आग्रह बास्केटबॉल की प्रैक्टिस कर रहे थे। टीना का फोन आया।
"विशाल! लाइब्रेरी में रेड कलर का पाउच रह गया है। प्लीज़ तुम ले आओगे? मैं घर आ गई हूं।"
"लाता हूं," कहकर विशाल लाइब्रेरी की ओर बढ़ गया।
5 बज चुके थे। विशाल लाइब्रेरी में दाखिल हुआ। छाया अब भी पढ़ रही थी। विशाल ने एक नज़र डाली, लेकिन अनदेखा कर आगे बढ़ गया।
इधर छाया एक किताब ढूंढ़ने गई तो किसी ने बाहर से दरवाजा बंद कर दिया।
छाया घबरा गई। जोर-जोर से दरवाजा पीटने लगी। तभी पीछे से विशाल आ गया। छाया चौंकी, पर कुछ नहीं कहा।
विशाल ने दरवाजा तोड़ने की कोशिश की, लेकिन बेअसर। गुस्से से बोला —
"सच-सच बोलो, ये सब हरकत तुम्हारी तो नहीं?"
छाया ने उसकी आंखों में आंखें डालकर गर्दन ना में हिला दी।
छाया बार-बार घड़ी देख रही थी। विशाल ने फोन निकाला और आग्रह को कॉल किया, लेकिन फोन नहीं उठा।
छाया ने भी फोन निकाला — नेटवर्क नहीं था।
"नेटवर्क नहीं है..." कहकर चुप हो गई।
विशाल को यकीन हो गया कि यह सब छाया की ही चाल है।
इसी बीच आग्रह का कॉल बैक आया।
"जल्दी आ, हम लाइब्रेरी में बंद हो गए हैं।"
कहकर विशाल ने फोन काट दिया।
15 मिनट बाद आग्रह सिक्योरिटी गार्ड के साथ आया और दरवाज़ा खुलवाया।
छाया ने बिना कुछ कहे अपना बैग उठाया और बोली —
"थैंक्यू!"
और बाहर की ओर भाग गई।
आग्रह ने विशाल की टांग खींचने की सोची, पर उसका गुस्सा देख चुप रहना ही ठीक समझा।
छाया ने घड़ी देखी — 6:30 बज चुके थे। ऑटो ड्राइवरों ने मना कर दिया, तो वह बस स्टैंड तक पैदल चली।
5 मिनट बाद बस आई। विंडो सीट मिली। बाहर देखा तो विशाल आग्रह के साथ कार में बैठा उसे घूर रहा था।
बस चल पड़ी। छाया को कुछ अजीब नहीं लगा — उसे एहसास था कि आज की घटना का दोष उसी पर डाला जाएगा।
उसने फोन निकाला और मां को फोन कर दिया —
"एक घंटे तक घर पहुंच जाऊंगी।"
पूरे रास्ते छाया यही सोचती रही —
"ऐसी क्या इमेज बनाई है मैंने, जो कोई भी लड़का मुझसे जुड़ी हर बात को शक़ की निगाह से देखता है?"
उधर विशाल की मुट्ठियां भिंच चुकी थीं —
"अब तो इसे मज़ा चखा कर ही रहूंगा।"
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1.क्या विशाल की गलतफहमी छाया की मेहनत और बदलाव को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर देगी?
2:छाया जो आत्मसम्मान की राह पर बढ़ रही है, क्या समाज और रिश्तों की उलझनों में फिर उलझ जाएगी?
3: क्या छाया और विशाल की यह टकराहट आगे जाकर प्यार में बदलेगी या एक और दर्दनाक मोड़ लेकर आएगी?
जानने के लिए पढ़ते रहिए "छाया प्यार की"।