(श्रिनिका की आखिरी लिखी कविता.… जो मैंने मंच पर पूरी की)
मुझे अंदाज़ा नहीं था कि मेरी श्रीनिका को लिखना इस कदर पसंद था और वो अपने सारे जज़्बातों को एक डायरी में लिखा करती थीं मैने उसकी डायरी में ढेरों कविताएं पढ़ी।
मेरे लिए भावुक पल थे वो जब मैने उसकी डायरी में अपने बारे में पढ़ा, उसने वो सब भी लिखा था जो वो मुझसे कभी कहती नहीं थी। मैं डायरी पढ़ता जा रहा था आंखों से समंदर बह रहा था, खुद को संभाल पाना मुश्किल था।
जिसके साथ जिंदगी के हसीन ख़्वाब सजाए थे अब वो सिर्फ मेरी धड़कनों में चल रही थीं।
फिर एक दिन कुछ पुराने दोस्तों के मैसेज आए कि श्रीशय
यार कैंपस में इवेंट है आ रहे हो ना, मै चुप था जहन में
हमारी यादें दौड़ गई लेकिन मैं खुद को रोक नहीं पाया और
IIT Roorkee पहुंच गया। सबसे पहले उसी कैंटीन की जगह गया जहां से पहली बार मैने मेरी जान श्रीनिका को देखा था।
आज उसी जगह पर एक बहुत बड़ा सा रेस्टोरेंट था,
जिसके ऊपर ग्रीन गाल लिखा हुआ था और वो पेड़ अब भी वहीं मौजूद हैं।
"कुछ अधूरी चायें, कुछ अधूरे अल्फ़ाज़,
रह जाते हैं मेज़ पर जैसे किसी अपने का इंतज़ार।"
स्थान--
IIT Roorkee का इवेंट --
दोस्तों ने जिद की कुछ सुनाओ तो मै ना नहीं कर पाया।
भीड़ ज़्यादा नहीं थी, पर हर चेहरा संवेदनशील था।
उस शाम मैं पहली बार मंच पर खड़ा हुआ.… उसके बिना।
मेरे हाथ में एक कागज़ था -- थोड़ा मुड़ा हुआ, थोड़ा चाय से भीगा….
उसी की लिखावट में।
“वो अधूरी कविता” -- जो उसने लिखी थी.… पर कभी पूरी नहीं कर पाई।
उसने आखिरी बार मुझसे कहा था --
"Shrishay, इस बार तुम कविता पूरी करना….
अधूरी चीज़ें अब मुझसे नहीं लिखी जातीं।"
मैंने वादा किया था।
और उस शाम, मैं वादा निभाने आया था।
मैंने मंच पर पढ़ा….
“तुम लौट आओ, किसी पुरानी सर्दी की तरह,
जहाँ धूप की पहली किरण, तुम्हारे माथे को चूमती थी।”
“तुम लौट आओ, किसी किताब के उस पन्ने की तरह,
जहाँ हम दोनों ने साथ में अपने नाम लिखे थे।”
(यहाँ कविता अधूरी थी….)
.… और फिर मैंने जोड़ा --
“तुम लौट तो नहीं सकती….
पर हर शब्द में अब भी तुम हो,
हर कहानी में एक श्रिनिका है,
जो अधूरी नहीं, अमर हो गई है।”
ऐसे धीरे धीरे करके मै कविता पढ़ता रहा लोग चुप चाप
मुझे सुनते रहे, शब्दों में नमी साफ झलक दिखाई दे रही थीं आवाज़ में दर्द, आंखों में आंसू थे
भीड़ सन्न थी।
फिर ताली नहीं -- सिर्फ़ सिसकियों की आवाज़ आई।
वो चाय का प्याला…. जो कभी हमने साथ पिया था,
आज भी मेरी मेज़ पर रखा है -- अधूरी चाय लिए हुए।
जैसे वो कविता --
जिसे आज मैंने पूरा किया.…
मगर उसका नाम लिए बिना अधूरी सी लग रही थीं।
चाय का प्याला और कविता का आख़िरी मिसरा….
"कुछ रिश्ते ज़िन्दगी से बड़े होते हैं….
और कुछ कविताएँ मौत से भी आगे चलती हैं।"
मंच से उतरते वक़्त….
किसी ने मुझसे पूछा ----
“क्या तुम अब भी उससे बात करते हो?”
मैं मुस्कुराया, और कहा --
“हाँ…. हर उस कविता में….
जो मैं आज भी अधूरी ही लिखता हूँ।”
मेरे दोस्तों की आंखों में नमी थी जिनसे मैं सालों बाद मिल रहा था उनसे कुछ भी छिपा हुआ नहीं था उन्हें सब मालूम था कि श्रीनिका कौन थी, मै उसे कितना प्यार करता था।
मैने अपने आपको संभाला और दोस्तों से मिलने लगा खुद के दर्द को अपने अंदर ही समेट लिया और चेहरे पर एक मुस्कान के साथ बाते करने लगा।