Devanjna in Hindi Love Stories by Dev competitor Banda books and stories PDF | देवांजना

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देवांजना

साल 2020 था।

सड़कें वीरान थीं, स्टेशन सूने पड़े थे, और हर राज्य, हर देश से लोग अपने-अपने घर लौट रहे थे —

कोरोना की महामारी अपनी चरम सीमा पर थी ,

सभी ट्रेन बंद कर दी गई थीं,

 

कई तो पैदल ही चल पड़े थे, जैसे ज़िंदगी से जूझने का सफर शुरू हो चुका हो।

 

इसी बीच, जब सब अपनी जड़ों की ओर लौट रहे थे — मैंने उल्टा फैसला लिया।

मैंने तय किया कि अब मुझे घर से दूर जाना है — जहां सिर्फ मैं रहूं और मेरी पहचान का कोई न हो।

 

क्यों?

 

क्योंकि मैं पूरी तरह से टूट चुका था।

बांदा में मकान की ठेकेदारी करता था —

छोटा-मोटा काम चलता रहता था,

लेकिन हाल ही में मुझे एक ऐसा झटका लगा जिसने मेरी रीढ़ तोड़ दी।

 

80,000 रुपये का घाटा अचानक लग चुका था।

 

ठेकेदारी में मैने

पसीना लगाया था —

भरोसा लगाया था…

 

अब मेरे पास कुछ नहीं बचा था।

ना पैसा, ना कोई साथी, ना दोस्त, ना परिवार,

और ना ही कोई ऐसा जिससे मैं सिर रखकर रो सकूं।

 

 

मैं इतना टूट चुका था कि ज़िंदगी जीने का कोई मक़सद नहीं बचा था।

मन में बार-बार एक ही ख्याल आता —

"अब बस मर जाना चाहिए..."

 

क्योंकि एक वही इकलौती ऐसी चीज थी जिसमें मैं मास्टर था, लेकिन आज मैं खत्म सा हो चुका था।

 

लेकिन फिर सोचा —

क्या आत्महत्या करना वाकई हल है?

क्या मेरा कोई भी ऐसा नहीं है जो मेरी गैरमौजूदगी से टूट जाएगा?

 

और फिर आया फैसला —

बांदा छोड़कर हरियाणा जाने का।

 

उस समय ट्रेनें बंद थीं। 

मेरे लिए कोरोना और मेरी तंगी दोनों बहुत ही चैलेंजिंग थी, इस समय मुझे हर उस चीज से फर्क पड़ रहा था, जिससे किसी की कोई फर्क नहीं पड़ता,

 

मैंने 1100 रुपये की बस टिकट ली —

और सफर शुरू कर दिया।

 

रास्ते में भी मन में ख्याल आते रहे:

 

> "कहीं बीच रास्ते में ही उतर जाऊं, और भीख मांगने लगूं…"

जिससे मैं और मेरी पहचान हमेशा के लिए खत्म हो जाए,

कम से कम लोग ये तो नहीं कहेंगे कि ये एक हारा हुआ खिलाड़ी है,

 

 

लेकिन सब्र का बांध अब भी टूटा नहीं था —

बस दरारें आने लगी थीं।

 

 

हरियाणा में मेरे दूर के मामा रहते थे।

मैं उन्हीं के पास पहुँच गया।

वो प्लंबिंग का काम करते थे —

और मैं उनके साथ हेल्पर बन गया।

 

सुबह से शाम तक काम करता —

लेकिन हर शाम जब कमरे पर लौटता,

तो कमरा खाली होता — और मन और भी खाली।

 

न कोई कहने वाला —

 

> "देव, थक गया होगा बेटा, बैठ जा।"

 

 

 

ना कोई दोस्त, ना कोई अपना।

और ना ही वो…

जिसकी आवाज़ ही मरहम होती।

 

हर रात उस कमरे की दीवारें

श्मशान जैसी लगती थीं — खामोश, डरावनी, और भारी।

 

 

हर शाम

मैं फोन उठाता,

और फोन की कॉन्टैक्ट लिस्ट खंगालता —

पर कोई ऐसा नाम नहीं मिलता

जिससे बात करने का मन हो।

 

एक दिन जब मैं इसी तरह फोन में व्यस्त था

करीब 30 दिन बाद,

एक नाम पर उंगली रुक गई "अंजना"।

 

पहले याद नहीं आया,

फिर याद आया —

ये नंबर मेरे दादा के लड़के ने मजाक में दिया था,

और मैंने भी मजाक में सेव कर लिया था।

 

मैंने कॉल किया,

आधी रिंग के बाद खुद ही काट दिया।

"और सोचने लगा कि जब वापस फोन आएगा तो मैं क्या जवाब दूंगा,

वह मेरे बारे में क्या सोचेगी, अच्छा या बुरा...

बस इसी तरह के सवालों के घेरे में खड़ा था मैं,

जहां हर ख़ामोशी एक जवाब मांगती थी,

 

10 मिनट बाद वहीं से कॉल आया —

मैंने रिसीव नहीं किया।

 

फोन न उठाने के उस क्षण ने जैसे समय को कुछ पल के लिए रोक दिया था।

लेकिन जब दिल के पास कहने को बहुत कुछ हो और ज़ुबान चुप रह जाए, 

तब उंगलियाँ बात करने लगती हैं... 

 

 

 

फिर आया SMS:

 

> "कौन हो?"

 

 

 

मैंने जवाब दिया:

 

> "मैं देव हूं, क्या मेरी बात अंजना से हो रही है?"

उत्तर आया:

"हां, मैं अंजना हूं, लेकिन मैं आपको नहीं जानती।"

 

"मैसेज करते हुए भी मेरा दिल जोरों से धड़क रहा था,

क्योंकि वो अंजान थी और मैं भी उसके लिए अंजान था।

शब्द चुनते वक्त उंगलियां कांप रही थीं,

हर टाइप किया हुआ अक्षर जैसे मेरी धड़कनों के साथ जुड़ गया हो।

मुझे अजीब प्रकार का डर भी लग रहा था —

कि कहीं वो इस कोशिश को गलत ना समझे,

 

 

 

मैंने कहा:

 

> "मैं भी नहीं जानता,

लेकिन कभी-कभी जान-पहचान की जरूरत नहीं होती,

बस मित्रता की ज़रूरत होती है।

 

और वहीं से शुरू हो गई हमारी SMS पर दोस्ती।

 

अब हर रात मैं उसी अंजना से sms पर बातें करता रहता था।

लेकिन वो मेरी परेशानियां नहीं जानती थी,

पर उसकी इन बातों से

मैं थोड़ा हल्का महसूस करता था।

 

> न वो मेरी थी,

न मैं उसका कुछ था —

लेकिन उस दिन से,

वो मेरे अकेलेपन का इकलौता जवाब बन गई ।

फोन न उठाने के उस क्षण ने जैसे समय को कुछ पल के लिए रोक दिया था।

लेकिन जब दिल के पास कहने को बहुत कुछ हो और ज़ुबान चुप रह जाए, तब उंगलियाँ बात करने लगती हैं... 

 

अब वो रिश्ता दोस्ती जैसा था…

लेकिन फिर भी "दोस्त" कहलाने जितना आम नहीं था।

हम दोनों एक-दूसरे के सुख-दुख बाँटने लगे थे।

हमारा SMS का सिलसिला आदत बन चुका था।

लेकिन मेरे अंदर सिर्फ बातचीत से संतोष नहीं था।

मैं उसे महसूस करना चाहता था।

मुझे यकीन था कि वो सिर्फ एक दोस्त नहीं, कुछ और है — मेरी राहत, मेरी उम्मीद।

 

 

प्लम्बर का काम करते-करते अब मैं ऊबने लगा था।

मेरे पास सिविल इंजीनियरिंग में पॉलिटेक्निक डिप्लोमा था, फिर भी मैं मजदूरी जैसा काम कर रहा था।

जब सोचता कि मैं क्या बन सकता था, आँखों में आंसू आ जाते।

इस सबके बीच अंजना से बातें ही मेरा सहारा थीं।

 

 

मैंने ठान लिया कि ब्लम्बर का काम छोड़ दूं और दिल्ली चला जाऊं।

 

दिल्ली में भी मैं सिर्फ़ एक हेल्पर था – टाइल्स का काम सीख रहा था।

डिग्री के बावजूद अनुभव की कमी मुझे पीछे खींच रही थी।

लेकिन अंजना की यादें हर शाम मुझे हिम्मत देतीं।

 

 

अब हमारी बातें सिर्फ SMS तक सीमित नहीं रहीं।

हम कॉल पर भी बातें करने लगे।

एक बार मैंने उससे उसके दीदार की ख्वाहिश जाहिर की,

और उसने जवाब में एक तस्वीर भेज दी — पीली शर्ट में, मुस्कुराती हुई।

उस तस्वीर ने मुझे बहुत कुछ कह दिया, बिना एक शब्द कहे।

 

 

उसका गांव चहिंतारा(बदला हुआ नाम) मेरे अपने गांव के पास ही था।

दिल अब काम में नहीं लगता था।

ठेकेदारी का जुनून उतर रहा था और मोहब्बत की बेचैनी चढ़ रही थी।

अब मुझे यकीन हो गया कि मिलने की तड़प दोनों तरफ है।

 

 

मैंने दिल्ली का काम छोड़ दिया, हिसाब किया और निकल पड़ा — बांदा की तरफ, अंजना की तरफ।

दिल में उम्मीद थी, बेचैनी थी, और एक डर भी...

लेकिन सबसे बड़ा जज़्बा था — मोहब्बत से मिलने का।

 

 

यह सफर एक रात का था, लेकिन वह रात जैसे पूरी उम्र जितनी लंबी थी।

मैं बस से ही आ रहा था, और बस में नेटवर्क नहीं था, आवाजें साफ़ नहीं थीं, लेकिन दिल सब सुन रहा था।

आज दिल जैसे 72 नहीं, 90 बार धड़क रहा था।

 

 

मैं अब तैयार था —

उस पल के लिए जो जीवन भर की सबसे गहरी याद बन जाएगा।

डर भी था,

पर उससे मिलने की खुशी कहीं ज़्यादा बड़ी थी।अब हमारे बीच जो मैसेज होते थे, वो महज़ दो शब्दों की बातचीत नहीं रह गई थी।

वो ऐसे लगते थे जैसे सदियों पुराना कोई रिश्ता फिर से जग गया हो।

 

हर मैसेज में उसकी बातें इतनी गहराई लिए होती थीं कि जैसे वो मुझे वर्षों से जानती हो, मेरे हर डर, हर आदत, हर ख्वाहिश, हर तकलीफ से वो वाक़िफ़ हो।

 

और मैं...

मैं भी खुद को रोक नहीं पाया।

मैंने उसे ऐसे महसूस करना शुरू कर दिया था, जैसे मैं उसे जन्मों से जानता हूं।

जैसे वो मेरी हर अधूरी बात की आखिरी कड़ी हो।

जैसे मैं हमेशा उसी को ढूंढ रहा था — और अब मिल गई हो।

 

उसके "क्या कर रहे हो?" में भी ऐसा अपनापन होता था, जैसे कोई अपना घर लौटने को कह रहा हो।

और मेरे "कुछ नहीं..." में छिपा होता था एक इंतज़ार — कि वो कुछ और पूछे, कुछ और बोले, बस बात खत्म न हो।

 

शब्द अब सिर्फ अक्षर नहीं रहे थे...

वो भावनाओं की परतें बन गए थे, जिनमें हम लिपटे जा रहे थे।

 

वो अब मुझे "देव" कहती थी —

लेकिन उस एक शब्द में जो अपनापन था, शायद उससे बड़ी मोहब्बत की कोई परिभाषा नहीं थी।दिल्ली से आते-आते मैंने उससे बहुत कुछ कहा…

बचपन की शरारतें, दोस्तों की बातें, ठेकेदारी के किस्से, स्टेशन की हलचलें, मेरी पसंद-नापसंद…

हर वो बात जो किसी अजनबी को अपना बनाती है।

 

लेकिन एक बात कभी नहीं कही —

अपनी ज़िंदगी की वो लड़ाई, जो हर रोज़ मैं खुद से लड़ता था।

 

उसे कभी नहीं बताया कि कैसे मैं दर्द को मुस्कान में छुपा लेता हूं,

कैसे अंदर से टूटकर भी लोगों के सामने मजबूत बना रहता हूं।

कैसे मेरी रातें नींद से खाली हैं, और दिल सवालों से भरा हुआ।

 

मैं बस चाहता था कि वो मुस्कराए, वो हंसे, वो मेरी बातों में उलझी रहे।

मैं अपनी हकीकत से उसे दूर रखना चाहता था…

शायद इसलिए कि कहीं वो डर न जाए,

या फिर इसलिए कि अगर वो मेरी कमजोरियां जान लेती —

तो शायद मोहब्बत पीछे रह जाती, और तरस आगे बढ़ जाता।

 

कभी-कभी इंसान सब कुछ बताता है,

लेकिन जो सबसे ज्यादा चुभता है,

वो अकेले अपने सीने में दबाकर रखता है।

 

मैंने वही किया...

 

उसे वो सब बताया जो उसे जानने से खुशी दे,

पर छुपा गया वो सब — जो मुझे जीने नहीं देता था।अब मैं बांदा आ चुका था।

अपना शहर, अपनी गलियाँ, वही पुराने रास्ते…

लेकिन इस बार सब कुछ थोड़ा अलग था।

 

जेब अभी भी खाली थी,

और दिल... वो उम्मीदों से भरा हुआ।

 

उसे मिलना था — अंजना से।

वो पहली मुलाकात बांदा की ज़मीन पर होनी थी,

जहाँ मैं उसके लिए कुछ भी करना चाहता था,

लेकिन हालात ने मेरे हाथ बांध रखे थे।

 

उस रात मुझे नींद नहीं आई।

बिस्तर पर करवटें बदलता रहा,

सोचता रहा कि

"मैं उसके सामने कैसे जाऊंगा?"

क्या वो मेरे फटे नोटों से मेरी मोहब्बत का वजन मापेगी?

या फिर मेरे आंखों के पीछे छुपे संघर्ष को देख पाएगी?

 

मैं चाहता था उसे फूल दूं,

कुछ मिठाई लेकर जाऊं,

या कम से कम उसके लिए एक अच्छा कॉफी स्पॉट चुनूं…

 

पर सच्चाई ये थी कि मेरे पास जेब में इतने भी पैसे नहीं थे कि चाय के दो कुल्हड़ भी ले सकूं।

 

दिल बेचैन था।

बार-बार फोन उठाता, उसकी प्रोफाइल फोटो देखता,

मैसेज लिखता... फिर मिटा देता।

कहीं वो ये न समझे कि मैं मजबूर हूं।

मैं उसकी नजरों में कभी छोटा नहीं दिखना चाहता था।

 

लेकिन उस रात,

उस खामोशी में,

एक चीज़ बहुत तेज़ चीख रही थी —

मेरी मोहब्बत।मैं सुबह 7 बजे जग गया था —

ये झूठ है…

सच ये है कि मैं उस रात सोया ही नहीं था।

 

और ये भी झूठ ही होता अगर कहता कि नींद आई थी,

क्योंकि उस सुबह उससे मिलने जाना था।

 

मैं सफेद शर्ट, काली पैंट में तैयार हुआ।

पुराने सफेद जूते जो घिस चुके थे,

लेकिन आज अपनी सबसे बड़ी मंज़िल पर चलने वाले थे।

 

जेब में बस सौ-दो सौ रुपए थे,

ना गिफ्ट, ना फूल…

बस एक दिल था — पूरी मोहब्बत के साथ।

 

बांदा शहर पहुंचकर

मैं सीधा अपने दोस्त राहुल के पास गया।

उसे सारी बातें बताईं —

मेरी बेचैनी, डर, हिचक, और वो लरज़ता हुआ दिल।

राहुल ने बस इतना कहा —

 

> “भाई… ये नॉर्मल नहीं है,

ये इश्क़ है… और आज तू उसे जीने जा रहा है।”

 

 

 

अब वक्त आ गया था।

 

फोन पर मैंने उससे कहा —

 

> "मैं अंदर हूं..."

जबकि सच ये था कि मैं रेस्टोरेंट के बाहर ही खड़ा था।

 

 

 

हिम्मत नहीं हो रही थी अंदर जाने की —

मन में सवाल ही सवाल…

 

> “क्या वो मुझे देखकर मुस्कुराएगी?”

“क्या मैं उसकी नज़रों में खुद को देख पाऊंगा?”

“क्या मैं वाकई उसके लायक हूं?”

 

 

 

फिर हिम्मत जुटाई…

और ‘द कालिंजर फोर्ड’ रेस्टोरेंट के अंदर पहुंच गया।

 

अंदर एक सोफा था,

एक टेबल,

एक वेटर,

और... वो।

 

कोई और लड़की वहाँ नहीं थी —

तो मैं समझ गया,

"यही अंजना है..."

 

मैंने हल्के से मुस्कुराकर

उसे बैठने का इशारा किया।

 

वो सामने बैठ गई,

लेकिन मेरे अंदर तूफान चल रहा था।

मैं उससे नज़रें नहीं मिला पा रहा था।

 

मेरे हाथ काँप रहे थे,

आवाज़ भीतर कहीं घुटी हुई थी।

 

फिर थोड़ा हिम्मत कर

मैंने पूछा —

 

> “क्या आप कॉफी लेंगी?”

 

 

 

उसने सिर हिलाकर मना कर दिया।

 

मौसम गर्म था —

तो मैंने कोल्ड ड्रिंक ऑर्डर कर दी।

 

हम दोनों बैठे रहे —

पर कोई बात नहीं हुई।

 

हमारे बीच बस खामोशी थी —

लेकिन वो खामोशी,

अधूरी नहीं थी।

 

वो मोहब्बत की भाषा बोल रही थी,

जो लफ्ज़ों से कहीं ज्यादा असरदार होती है।

 

लगभग 2 घंटे हम बैठे रहे।

इन दो घंटों में बस एक कोल्ड ड्रिंक,

और एक चाय का कप खत्म हुआ —

जो मैंने आखिर में अपने लिए मंगाई थी।

 

फिर...

घड़ी ने 4 बजाए।

 

वो हल्के से बोली —

 

> "अब मुझे जाना चाहिए..."

 

 

 

मैंने सिर हिलाकर

जाने की इजाज़त दे दी।

 

वो उठी,

फोन हाथ में लिया,

हल्की सी मुस्कान दी,

और चली गई…

 

मैं वहीं बैठा रहा…

खाली कुर्सी को देखता हुआ…

जैसे कोई अधूरी कविता खामोश हो गई हो।

 

> "जिसके लिए सारी रात नींद नहीं आई,

वो दोपहर अब इतनी जल्दी ख़त्म हो चुकी थी…”उसके जाने के बाद,

शाम को हमारी फिर से बातें हुईं।

बहुत सी शिकायतें थीं दोनों के पास —

न उसने मुझे ढंग से देख पाया था,

और न मैं उसे।

 

पर दो दिन बाद हमने फिर मिलने का प्लान बनाया —

इस बार किसी रेस्टोरेंट में नहीं,

बल्कि बांदा के एक छोटे से पार्क में।

 

सुबह बहुत सुहानी थी,

मैंने एक गुलाब खरीदा,

और उसका इंतज़ार करने लगा —

क्योंकि आज मैंने ठान लिया था कि मैं उसे प्रपोज करूंगा।

 

वो आई, हम एक रिक्शे पर बैठे —

बिना कुछ बोले,

सिर्फ एक-दूसरे की मौजूदगी महसूस करते हुए।

 

पार्क पहुंचे,

बेंच पर बैठे —

मैं उसके पास ही था,

पर शब्द जैसे गले में अटके थे।

 

मैंने उसके हाथों को छूने की कोशिश की,

पर झिझक बड़ी थी।

दिल बहुत कुछ कहना चाहता था,

पर समझ नहीं आ रहा था कहां से शुरू करूं।

 

और फिर —

वो उठी, शायद जाने लगी थी,

पर मैं झट से घुटनों पर बैठ गया।

 

“अंजना... मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं।

क्या तुम मेरी जिंदगी बनोगी?”

 

मैंने गुलाब आगे बढ़ाया —

धड़कते दिल के साथ।

 

उसने थोड़ी देर देखा,

फिर मुस्कुराई और ‘हाँ’ कहकर वो गुलाब ले लिया।

 

उस पल जैसे वक्त थम गया था।

हम देर तक पार्क में बैठे रहे,

और फिर मैं उसे कुछ दूर छोड़ने गया।

 

और फिर मैं गांव लौट आया —

बेरोजगार, टूट चुका,

दिल में सिर्फ उसका प्यार लिए।

 

बांदा रोज आना-जाना अब संभव नहीं था,

पैसे नहीं थे,

मन में बेचैनी थी।

 

फिर मैंने फैसला किया —

अब बांदा में ही रहूंगा।

 

लेकिन मकान नहीं था,

किराया नहीं दे सकता था।

फिर पता चला एक दोस्त का खाली मकान है,

पर वो चार-पाँच दिन बाद ही आ पाएगा।

 

अब इंतजार नामुमकिन था —

मैं उससे रोज मिलना चाहता था।

 

मैंने तय किया — इन दिनों स्टेशन पर रहूंगा।

 

कपड़े पहने,

जेब में ₹150 रखे,

घर से पुराना तराजू उठाया,

और चल पड़ा बांदा रेलवे स्टेशन।

 

₹50 तो किराए में ही निकल गए।

खाने के लिए भी लाले थे।

 

जब से ठेकेदारी में घाटा लगा था,

मेरी पूरी ज़िंदगी बदल चुकी थी —

परिवार, भाई, दोस्त, गांव —

सब मुँह मोड़ चुके थे।

 

मैंने हार नहीं मानी।

अगले दिन मैं बांदा की बड़ी मंडी गया —

₹100 की सब्जी ली,

और सड़क किनारे बैठ गया बेचने।

 

गर्मी और लू की मार झेली,

पर शाम तक सब्जी बिक जाती।

 

मुनाफे से 2 समोसे सुबह, 2 समोसे शाम के लिए मिल जाते।

5 दिन में मेरे पास ₹500 हो गए।

 

फिर मेरा दोस्त आया —

मैं स्टेशन से उसके मकान में रहने लगा।

 

मकान भी अधूरा था —

ना प्लास्टर, ना पंखा,

ना बिस्तर — बस दीवारें और एक छत।

 

पर अब वो छत मेरी उम्मीद बन गई थी।

 

इस बीच हमारी मुलाकातें रोज़ होने लगीं।

अब कोई खामोशी नहीं रही थी।

हम खुलकर बातें करने लगे थे।

 

मैं चाहे जितना थका होऊं,

भूखा रहूं या पसीने से भीगा होऊं —

पर जब वो बांदा आती,

मैं हर हाल में मिलता।

 

वो अब मेरी प्रेमिका नहीं, मेरी प्रेरणा बन चुकी थी।

 

 

---

 

अब संघर्ष की राह आसान नहीं,

पर मोहब्बत की ताक़त इतनी है कि

हर कठिनाई को पार कर लेने का हौसला है ,पांच दिन बाद मेरा दोस्त भी आ गया था,

अब स्टेशन में रहने के अलावा मैं उसके घर भी रुकने लगा था।

इस बीच हमारी मुलाकातें रोज़ होने लगी थीं।

हमारे बीच की खामोशियाँ अब दोस्ती में बदल रही थीं,

हम खुलकर बातें करने लगे थे।

और मैं —

मैं हर वो पल जी लेना चाहता था जिसमें वो बांदा आती और मुझसे मिलती।

  

नहीं। अब वक़्त था कुछ करने का।

मैं अब कोई रोज़गार चाहता था।

ऐसा कुछ, जिससे मैं अंजना को सिर्फ़ प्यार ही नहीं,

बल्कि एक सुरक्षित भविष्य भी दे सकूं।

इसी बीच,

एक लोकल ठेकेदार के यहां मजदूरी की गुंजाइश दिखी।

मैंने सोच लिया — यही से शुरू करूंगा।

 

ना किसी को बताया,

ना अंजना को कहा कि मैं क्या करने जा रहा हूं।

शायद इसलिए नहीं बताया,

क्योंकि डर था —

कहीं वो ये ना सोचे कि मैं बस एक मजदूर हूं।

 

मैं सुबह-सुबह उठता,

भीगे कपड़ों में ईंटें उठाता,

धूप में पसीने से तर-ब-तर हो जाता,

और जब दिन ढलता —

तो थक कर चुपचाप उसी दीवार से टिक जाता

जिसे दिनभर मैं ही खड़ा करता था।

 

लेकिन उस दीवार के पीछे बस एक ही तस्वीर थी —

अंजना की।

 

हर बार जब हथेली छिलती,

मैं उसकी आँखों की मासूमियत याद करता।

जब कंधे दुखते,

तो सोचता — एक दिन यही मज़दूरी

मुझे अपने अंजना के क़रीब ले जाएगी।

 

कुछ दिन ऐसे ही बीत गए...

सुबह मजदूरी, शाम थकान, और रात — अंजना की यादों के नाम।

 

मैं कुछ नहीं कहता था,

किसी से भी नहीं...

ना अंजना से, ना दोस्तों से।

बस काम करता था —

चुपचाप।

 

लेकिन शायद मेहनत बेआवाज़ नहीं रहती।

 

एक दिन उसी साइट पर,

जहाँ मैं ईंटें ढोता था,

किसी ने देखा —

कि मैं लाइट फिटिंग की समझ रखता हूं।

 

"अरे, तुम ये वायरिंग कर लोगे क्या?"

एक सुपरवाइज़र ने पूछा।

 

मैंने सिर हिलाया — "कर लूंगा साहब, कर के दिखाऊं?"

 

बस वो दिन कुछ और ही था...

 

मैंने पूरे दिल से वो काम किया —

लाइन खींची, पैनल सेट किया,

स्विच बोर्ड लगाए, और फॉल्स सीलिंग में वायर छुपाए।

जो भी देखा, वो चौंक गया।

 

और शाम होते-होते

मेरे हाथ में पहली बार ठेका था — लाइट फिटिंग का ठेका।

 

कोई पेपर पर साइन नहीं हुआ,

पर उस दिन मेरे सपनों पर पहली मुहर लगी।

 

अब मैं सिर्फ़ मजदूर नहीं था,

अब मैं "देव – ठेकेदार" बनने की राह पर था।

 

और उस रात जब मैं लेटा,

तो आसमान की तरफ देखकर मुस्कराया...

 

"अंजना... एक दिन सब बताऊंगा तुम्हें,

ये सब तुम्हारे लिए ही तो कर रहा हूं।”

 

 लगभग 2 महीने के बाद 

 

आख़िर वो दिन भी आ ही गया, जब मैंने अपनी पहली गाड़ी ली — TVS Sport।

खुशी ऐसी थी, जैसे कोई अधूरा ख्वाब पूरा हो गया हो।

मैं सोचता था, गाड़ी मैं चलाऊँगा, वो पीछे बैठेगी…

उसका सीना मेरी पीठ से टकराएगा,

हम सफर करेंगे, दूर-दूर तक...

बस हम दो और हमारी दुनिया।

 

 

जैसे मैंने चाहा था, वैसा ही होने लगा।

वो स्कूल जाने के बहाने घर से निकलती,

और मैं उसे रास्ते में रिसीव करता।

 

फिर सुबह 9 से लेकर दोपहर 3 बजे तक —

हम सिर्फ घूमते रहते थे।

बांदा से 30 किलोमीटर दूर तक जाते,

कभी मंदिर, कभी जंगल, कभी नदी…

हर रास्ता हमारी मोहब्बत का गवाह बनता।

 

पर अब मुझे चाहिए था एक पर्सनल कमरा,

जहां हम एकांत में मिल सकें।

 

 

जल्द ही मैंने एक कमरा भी ले लिया।

अब ज़्यादातर वक़्त हम वहीं बिताने लगे थे।

वो जब देर करती, तो मैं उसे उसके गाँव के बाहर तक छोड़कर आता।

 

कमरा अब हमारा छोटा-सा संसार बन चुका था —

जहां दीवारें हमारी बातें सुनती थीं,

और चुप्पियाँ भी मोहब्बत की ज़ुबान बोलती थीं।

 

 

एक दिन हम बाँदा के पास नदी के बीच बने एक किले पर गए।

लौटते समय बारिश होने लगी।

वो भीग रही थी, मैं भी...

हम जल्दी में थे, लेकिन उस बारिश ने मेरे दिल में कुछ रोमांटिक जगा दिया।

 

मैंने बाइक किनारे रोकी,

उसके सामने खड़ा हुआ,

और बिना कुछ कहे, धीरे-धीरे अपने होंठ उसके होंठों की ओर बढ़ा दिए...

 

हमारे बीच सिर्फ खामोशी थी —

लेकिन वो खामोशी सब कुछ कह रही थी।

 

और फिर, मैंने अपने होंठ उसके होंठों पर रख दिए।

 

 

करीब 5 मिनट तक हम बस एक-दूसरे को महसूस करते रहे।

ना कोई शब्द, ना कोई डर… बस प्यार।

 

लौटते वक़्त मैंने उसे छोड़ दिया,

लेकिन वो एहसास, वो पल —

मेरे अंदर गूंजता रहा।

 

उस रात मैं नहीं सो पाया।

हर करवट, हर सांस — बस उसी को पुकार रही थी।

 

 

अब मेरा काम बहुत जोर से चलने लगा था।

मैं सुबह से शाम तक ठेकेदारी में लगा रहता,

और चाहकर भी उसे दिन में ज्यादा वक़्त नहीं दे पाता।

 

वो धीरे-धीरे खामोश होने लगी,

और हमारी बातों की जगह गलतफहमियों ने ले ली।

 

वो सोचने लगी कि मैं उससे दूर हो रहा हूँ,

पर सच ये था कि मैं उसके लिए ही मेहनत कर रहा था —

ताकि कल उसे सब कुछ दे सकूँ।

 

 

हमारे बीच अब झगड़े होने लगे थे।

 

हर छोटी बात अब बड़ी लगने लगी।

हर चुप्पी अब दूरी बन गई।

 

मैं चाहता था कि वो मुझे समझे,

पर वो मानती नहीं थी।

 

मैं अंदर से टूटता रहा,

और वो बाहर से बदलती रही।

 

 

मौका मिलते ही हम घूमने गए —

इस बार नदी किनारे।

 

हमने नाव में बैठकर वक़्त बिताया।

शांत पानी, धीमी हवा, और उसका मुस्कुराता चेहरा…

 

मैंने महसूस किया —

कि प्यार अब भी ज़िंदा है, बस थका हुआ है।

 

 

एक दिन उसने बताया —

"मेरे घर वाले रिश्ता देखने बुला रहे हैं..."

 

बस...

मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई।

दिल का सारा भार आँखों में उतर आया।

 

मैं कुछ नहीं बोला…

बस मन ही मन डरने लगा —

कि कहीं वो मुझसे छिन न जाए…

 

 

मैंने उससे साफ़-साफ़ कहा —

"अंजना, चलो… भाग चलते हैं।"

 

मैं उसके साथ एक नई जिंदगी शुरू करना चाहता था —

जहां ना कोई बंदिश हो, ना कोई मजबूरी।

 

पर उसने सिर्फ एक शब्द कहा —

"नहीं..."

 

बस वही…

एक "नहीं", और मेरी रूह जैसे फट गई।

 

 

मैं उसे समझाना चाहता था।

उसे अपने टूटे दिल की आवाज़ सुनाना चाहता था।

 

पर अब वो वक़्त नहीं देती थी,

सुनने को तैयार नहीं थी।

 

मेरे हर मैसेज, हर कॉल को वो नज़रअंदाज़ करने लगी।

और जब बात होती भी थी —

तो उसमें प्यार नहीं, झुंझलाहट होती थी।

 

अब मेरी मोहब्बत उसके लिए बोझ बन चुकी थी।

और मेरी आवाज़ उसके लिए शोर।

 

हम रोज़ झगड़ते थे…

और मैं रोज़ अंदर से मरता था।

अब हमारी बातें लगभग-लगभग बंद हो गई थीं।

ना गुड मॉर्निंग, ना शाम की बात,

ना वो "खाना खाया?"

ना वो "नींद आई?"

 

हर दिन जैसे कुछ छूटता जा रहा था…

और हर रात मैं खुद से यही पूछता:

 

"क्या मैं उसे खो रहा हूं?"

 

मैं जानता था कि वो मेरी मंज़िल है,

लेकिन ये भी हकीकत थी कि

अब मैं उससे दूर होता जा रहा था।

 

कभी-कभी घंटों फोन हाथ में लिए बैठा रहता,

पर कॉल करने की हिम्मत नहीं होती।

 

डर था…

कि कहीं उसकी आवाज़ में वो अपनापन न हो,

या फिर वो कह दे —

"अब बहुत देर हो चुकी है देव..."

 

मैं काम के बीच भी खोया रहता,

वायरिंग करते-करते आंखें भर आतीं,

और कोई देख न ले इसलिए

मैं छत की ओर देखकर कहता —

"धूल चली है शायद..."

 

लेकिन सच तो ये था —

मैं अंदर-अंदर टूट रहा था।

जिस काम को लेकर मैं हर सुबह जोश में उठता था,

अब वही काम

एक बोझ सा लगने लगा था।

 

ना हाथों में वो ताकत रही,

ना आँखों में वो चमक,

ना दिल में वो सपना...

जो सिर्फ़ अंजना को खुश देखने के लिए जिया करता था।

 

अब मेरा काम में मन नहीं लगने लगा था।

 

लाइट फिटिंग के तारों में उलझते-उलझते,

मैं खुद से उलझ चुका था।

 

हर जगह से जैसे आवाज़ आती थी —

"सब खत्म हो रहा है देव..."

 

जो ठेके मुझे आगे ले जा सकते थे,

अब वो हाथ से फिसलने लगे थे।

कभी पेमेंट अटकता, कभी साइट छूटती,

और धीरे-धीरे…

मैं फिर से उसी गरीबी की ओर लौटने लगा था,

जिससे भागकर मैंने ये सफर शुरू किया था।

 

मोबाइल की स्क्रीन पर

अब न अंजना की कॉल थी,

न कोई मैसेज।

 

बस एक सन्नाटा था...

जो दिल के किसी कोने में रात-दिन बजता रहता था।

 

जैसे मोहब्बत की छांव गई हो,

और अब धूप सी जिन्दगी बाकी है।

सब कुछ टूटता जा रहा था।

रोज़गार भी, हौसला भी, और सबसे ज़्यादा — उम्मीद भी।

 

अंजना से बात हुए हफ़्तों बीत चुके थे।

मेसेज ‘seen’ होते थे… जवाब कभी नहीं आता।

 

हर सुबह सोचता —

"शायद आज कुछ हो… शायद आज वो खुद बोले…"

 

लेकिन हर दिन पहले से भी ज़्यादा खामोश होता।

 

और फिर…

एक दिन मैंने सोच लिया — ये आख़िरी कोशिश होगी।

 

अंजना की एक पुरानी सहेली थी,

जो कभी हमारी बातों की गवाह भी रही थी,

हमारी हँसी, हमारे झगड़े, हमारी मोहब्बत की नज़दीकी जानती थी।

 

मैंने उससे मिलकर कहा —

"तू बस उससे एक बार बात कर,

उसे ये बता दे कि मैं आज भी वही हूं —

शायद थोड़ा और टूटा हुआ,

पर आज भी उसी से जुड़ा हुआ।"

 

वो सहेली मान गई।

हम दोनों उसके गांव की ओर निकले।

 

मैंने रास्ते में कुछ नहीं कहा,

बस सोचता रहा —

क्या अंजना अब भी वही है?

क्या उसकी आंखों में अब भी वो इंतज़ार होगा?

 

गांव पहुंचकर,

मैंने उसे कहा —

"तू अकेले जा,

अगर वो मुझसे नहीं मिलना चाहती,

तो मैं उसके दरवाज़े पर मजबूरी बनकर नहीं