बहुत पुरानी बात है। कौन-सा साल था, ये अब ठीक-ठीक याद नहीं, शायद गर्मियों की कोई थकी हुई दोपहर थी, जब सूरज की किरणें ज़मीन को झुलसाने में लगी थीं। एक राहगीर, धूल से अटी पगडंडी पर चुपचाप चला जा रहा था। उसके कंधे पर एक झोला था, जो कभी हल्का तो, कभी भारी हो जाता,जैसे जीवन के सवाल।
पगडंडी के उस हिस्से पर रास्ता अकेला था, न कोई गांव, न कोई दुकानदार, न कोई प्यास बुझाने वाला कुआँ। कुछ दूर जाकर एक नीम का पेड़ दिखा अकेला, शांत, छायादार। राहगीर की आंखों में थोड़ी राहत चमकी वह पेड़ के नीचे पहुंचा, झोला उतारा, और धूप से पसीने-पसीने जिस्म को उस छांव में रख दिया,जैसे आत्मा को कहीं थोड़ी देर विश्राम मिला हो।
नीम की पत्तियां हवा में सरसराती थीं, और धरती पर उनके छोटे-छोटे धब्बे सूरज की आंखमिचौली की तरह फैलते-सिकुड़ते रहते।
उसी छांव में बैठे-बैठे राहगीर की निगाह ज़मीन पर पड़ी एक पुरानी चाबी पर गई। लोहे की बनी थी, थोड़ी जंग खाई, लेकिन पूरी तरह टूटी नहीं थी।
उसने झुककर चाबी उठाई, चारों ओर नजरें दौड़ाईं कोई आता-जाता नजर नहीं आ रहा था। उसने उसे हथेली में घुमाया सोचता रहा कि यह किसकी हो सकती है।
उस चाबी का कोई नाम नहीं था, कोई पहचान नहीं थी, न उस राहगीर के पास उसका कोई उपयोग। कुछ पल सोचकर, उसने चाबी को नीम की एक निचली शाख पर टांग दिया।“जिसकी होगी, वो लौटेगा और देख लेगा। यहां दिख जाएगी…”बस इतनी-सी सोच थी,न कोई भावना, न कोई अपेक्षा।
फिर उसने झोला उठाया, गमछा झाड़ा, और उसी तरह आगे बढ़ गया जैसे जीवन हर छोटे मोड़ के बाद करवट लेकर आगे बढ़ता है। वह नहीं जानता था कि उस एक साधारण से निर्णय में कोई असाधारण कथा छुपी बैठी है।
बीस साल बीत गए।
वक़्त की नदी न जाने कितने पुल बहा ले गई थी। राहगीर अब पहले जैसा नहीं रहा था, बालों में सफेदी उतर आई थी, चाल थोड़ी धीमी पड़ गई थी, और आंखों में स्थिरता अधिक थी, जैसे बहुत कुछ देख चुकी हों, समझ चुकी हों,इस बार वह किसी सफर पर नहीं था। वह लौट रहा था, पुराने रास्तों पर, पुराने मौसमों के बीच से जीवन की परिक्रमा करते हुए वह अनजाने ही उसी पगडंडी पर आ गया, जहां कभी वह एक नीम के नीचे बैठा था। उसे पेड़ की कोई विशेष स्मृति नहीं थी, न चाबी की, न उस दोपहर की। लेकिन जब उसकी नजर नीम पर पड़ी, तो एक गहरी स्मृति की रेखा उसकी आंखों में उतर आई, कुछ याद आया... बहुत पीछे छूट चुका दृश्य...वही नीम का पेड़… वही छांव… और उसकी टांगी हुई एक चाबी..क्या यहीं…?
पेड़ अब अकेला नहीं था।उसकी शाखों पर सैकड़ों चाबियाँ टंगी थीं, लोहे की, पीतल की, रंगीन रिबनों से बंधी हुई, कुछ पर नाम-पते लिखे, कुछ बिना किसी पहचान के कुछ जंग खाई, कुछ चमकती हुई, जैसे हर चाबी के पीछे कोई इच्छा हो, कोई उम्मीद, कोई अधूरी कहानी।
पेड़ के नीचे एक छोटा सा चबूतरा बना था, जिस पर फूल चढ़े थे, अगरबत्तियाँ जल रही थीं और दीवार पर रंगीन अक्षरों में लिखा था, “चाबी वाले बाबा”मनोकामना पूर्ण देव स्थान
राहगीर ठिठक गया,उसकी आंखें पहले पेड़ को देखती रहीं, फिर उन चाबियों को उसके चेहरे पर न हैरानी थी, न हंसी बस एक गहरी मौन सोच उतर आई थी।
उसने धीरे से आगे बढ़कर देखा नीचे किसी ने फूलों की थाली रखी थी, पेड़ पर लोग चाबियाँ चढ़ा रहे थे, मन्नतें मांग रहे थे, सिर झुका रहे थे,उसके पास खड़ा एक युवक, लगभग उसके बेटे जितनी उम्र का, श्रद्धा से कह रहा था,
“मैंने यहां चाबी टांगी थी... अब नौकरी लग गई है। बाबा ने कृपा की हर साल आता हूं धन्यवाद कहने।“
राहगीर कुछ नहीं बोला,वह बस कुछ देर वहां खड़ा रहा और उस पेड़ को देखता रहा जो अब ‘देवता’ हो चुका था। जिसकी शुरुआत एक सहज जिम्मेदारी से हुई थी, वह अब अंध श्रद्धा का केंद्र बन गई थी।वह देर तक वहीं बैठा रहा। उसकी आंखें पत्तों के बीच से छनती रोशनी को देखती रहीं, और मन जीवन के उन बीते रास्तों पर भटकता रहा जहां से वह कभी गुज़रा था, बिना सोचे, बिना कुछ मांगे।
एक लड़का पास ही बैठा हुआ था। नई चाबी हाथ में लेकर, बड़े विश्वास से कह रहा था “मैंने इस बार मेडिकल का फॉर्म भरा है बाबा… पास करवा देना… मेरी माई कहती है तू सब कर सकत है…”
राहगीर के होंठ कांपे शायद कुछ कहना चाहते थे,पर शब्द भीतर ही रह गए, क्या कहे वो?
कि बाबा कुछ नहीं है? कि यह पेड़ एक साधारण पेड़ है? कि चाबी सिर्फ एक पुराना लोहा थी?
या कहे कि तुम्हारी आस्था झूठी नहीं, बल्कि तुम्हारी ही बनायी हुई है?
उसने देखा लोग इस नीम के नीचे सिर झुकाकर जाते हैं, जैसे किसी गहरी शांति में उतरते हों।
उसने सोचा, “मैं कौन होता हूं किसी की श्रद्धा को तोड़ने वाला?” शायद लोग सच नहीं,सांत्वना चाहते हैं। उस दिन जब राहगीर वापस अपने घर लौट गया, तो उसके भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। वह पेड़, वो चाबी, वो मन्नतें और लोग सब कुछ किसी सपने की तरह उसके भीतर उतरते जा रहे थे।
वह उस दिन वहां से चला गया था, मगर उसके मन में एक अजीब बेचैनी उसके भीतर घर कर गई थी। घर लौटने के बाद, वह रोज़ शाम को उस नीम की छांव की स्मृति में डूब जाता,कभी खिड़की से झांकता हुआ बाहर देखता, जैसे वह पेड़ उसे पुकार रहा हो।
कभी अतीत की उस तपती दोपहर को याद करता, जब उसने वो चाबी टांगी थी, एक साधारण-सी सोच के साथ,वह सोचता रहा… क्या उसे सच बताना चाहिए था? क्या लोगों को बताना चाहिए कि यह ‘बाबा’ कोई बाबा नहीं, बल्कि महज़ एक संयोग है? या यह कि यह चमत्कार नहीं, बल्कि सिर्फ़ इंसानी विश्वास का जाल है? पर जितना वह सोचता, उतना ही उलझ जाता,उसे वो लड़का याद आता जो मेडिकल परीक्षा की तैयारी कर रहा था,वो वृद्ध जो कैंसर से ठीक होकर लौटे थे,वो नवविवाहित जोड़े, जो बच्चे की कामना लेकर आए थे,और वे सब जिनके भीतर कहीं न कहीं उम्मीद अब भी सांस लेती थी।
उसे समझ आने लगा था कि कभी-कभी ‘सच’ उतना ज़रूरी नहीं होता, जितनी ज़रूरी होती है ‘आस्था’। कभी-कभी जीवन में एक प्रतीक की ज़रूरत होती है, चाहे वो नीम का पेड़ ही क्यों न हो। कुछ महीने बाद, राहगीर फिर लौटा इस बार बिना कारण, बिना योजना, सिर्फ़ एक आंतरिक खिंचाव के कारण। अब वहां एक बड़ा मंदिर बन चुका था। एक पुजारी बैठा था, और दीवारों पर 'चमत्कारों' की कथाएं लिखी थीं,एक बोर्ड पर लिखा था, “यहां चाबी टांगो, और बाबा से सच्चे मन से प्रार्थना करो मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी।” लोग आते, मन्नत मांगते, कुछ सुनती दुआओं की कहानियाँ सुनाते और ‘बाबा’ यानी नीम का वो पेड़ सबका मौन साक्षी बना खड़ा रहता।
राहगीर चुपचाप एक कोने में बैठ गया,अब उसका चेहरा थका हुआ नहीं था, बल्कि स्थिर था। उसकी आंखें अब झुकी नहीं थीं, बल्कि देख रही थीं,उन भावनाओं को, जिन्हें कोई सिद्धांत नहीं समझा सकता,और उस आस्था को, जिसे कोई तर्क छू नहीं सकता। वहीं एक बालक, अपनी माँ के साथ आया,उसने एक छोटी-सी चाबी टांगी और आँखें बंद कर कहा, “बाबा, मेरे पापा जल्दी ठीक हो जाएँ…”
राहगीर की आंखें नम हो गईं,उसने जेब से एक चाबी निकाली, और पेड़ की एक ऊँची शाख पर वह चाबी टांग दी।
कुछ देर बाद लोग आए, देखा एक नई चाबी टंगी है, बोले,“देखो, बाबा ने फिर किसी की बात सुन ली…!” और नीम के नीचे…एक अनचाहा देवता फिर से चुप खड़ा रहा,जैसे कुछ कहना चाहता हो,पर उसकी सबसे बड़ी प्रार्थना ही अब मौन थी।
लेखक की पंक्तियाँ (भावपूर्ण)
कभी-कभी लोग देवता नहीं बनते, बना दिए जाते हैं।चाबी अगर किसी ताले की होती है, तो मनुष्य उसे मन्नत बना देता है।और जब कोई कुछ कहता नहीं… तो वही मौन, ईश्वर की भाषा मान ली जाती है।
मुकेश मोरे
मो.9669699718