हवा बहती थी और ब्रिटिश साम्राज्य की छाया गहराती जा रही थी। उन्हीं गलियों के एक कोने में जन्मी थी अंजलि शास्त्री – एक नेत्रहीन बच्ची। आँखों से दुनिया कभी देखी नहीं, लेकिन उसकी आत्मा में जैसे रोशनी का समंदर बहता था।
अंजलि के जन्म पर बहुतों ने अफसोस जताया। "बेचारी अंधी पैदा हुई है। जिंदगी तो अंधेरे में ही कटेगी।" लेकिन उसकी माँ, दुर्गा शास्त्री, ने कभी हार नहीं मानी। वह खुद थोड़ी बहुत पढ़ी-लिखी थी और आज़ादी की बातों से जुड़ी हुई थी। वह रोज रात को अंजलि को अपनी गोद में लेकर गीत सुनाया करती थी—
"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है..."
अंजलि उन गीतों की धुनों को अपने दिल में बुनने लगी। वह लय उसके जीवन की भाषा बन गई। धीरे-धीरे उसने महसूस किया कि वह इन स्वरों में शब्दों से भी ज्यादा कुछ सुन सकती है – एक भाव, एक संकल्प, एक सपना।
जब अंजलि पाँच साल की हुई, तो माँ ने उसे ब्रेल सिखाने की कोशिश शुरू की। वह पुरानी किताबों के कागज़ों पर सुई से छोटे-छोटे उभार बनाकर अक्षर गढ़ती और अंजलि की उंगलियों को उस पर फिराती। अंजलि की उंगलियाँ जैसे हर अक्षर को न सिर्फ छूती, बल्कि उसे महसूस करती, जीती।
गाँव में सब कहते, "क्या करेगा ये सीख के? अंधी है, लड़का होता तो कुछ करता भी।" मगर अंजलि की माँ को भरोसा था – उसकी बेटी अंधी ज़रूर है, लेकिन कमजोर नहीं।
धीरे-धीरे अंजलि की उंगलियां दीवारों पर ब्रेल में इबारतें लिखने लगीं। मिट्टी की दीवारें उसकी किताब बन गईं, और उंगलियाँ उसकी कलम। उसकी दुनिया में उजाला अब अक्षरों और सुरों से आता था।
एक दिन अंजलि ने माँ से पूछा, "माँ, तिरंगा कैसा होता है?"
माँ थोड़ी रुकी, फिर बोली, "तीन रंग होते हैं बेटा – केसरिया, सफेद और हरा। बीच में एक चक्र। ये हमारे देश का मान है।"
अंजलि ने माँ का हाथ पकड़कर कहा, "मैंने तिरंगे को देखा नहीं माँ, लेकिन उसकी लय मुझे सुनाई देती है। जैसे वो हवाओं में उड़ता है और कहता है – आज़ादी ज़िंदा है।"
उस दिन से अंजलि के लिए तिरंगा कोई कपड़ा नहीं, एक भावना बन गया।
अंजलि ने खुद को पूरी तरह ब्रेल में समर्पित कर दिया। वह अब न सिर्फ पढ़ती, बल्कि अपनी बातें भी ब्रेल में लिखने लगी। माँ ने उसे देश के इतिहास की कहानियाँ सुनाईं – झाँसी की रानी, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद। अंजलि इन नामों को अपने दिल में महसूस करने लगी।
माँ के पास एक पुराना ट्रांजिस्टर था, जिसमें वो गांधी जी और नेहरू के भाषण सुनती थी। अंजलि भी वो भाषण सुनती और अपनी उंगलियों से दीवार पर उनके शब्दों को दोहराती।
फिर आया साल 1937। अंजलि अब सात साल की हो चुकी थी।
उस साल गाँव में एक राजनीतिक सभा होने वाली थी, जिसमें कांग्रेस के कुछ नेता आने वाले थे। माँ अंजलि को लेकर वहाँ गई।
भीड़ के बीच बैठी अंजलि ने पहली बार महसूस किया कि जो लोग आज़ादी की बात करते हैं, उनके शब्दों में आग होती है, पर उस आग के पीछे एक माँ जैसी ममता भी होती है।
सभा में एक गीत गाया गया – "वन्दे मातरम्"। पूरी भीड़ उस लय में जैसे एक हो गई। अंजलि की आँखें नहीं थीं, पर उसकी आत्मा उस गीत में रंग गई।
वहीं पहली बार उसने महसूस किया कि गीत सिर्फ मनोरंजन नहीं होते – वो हथियार बन सकते हैं, वो इन्कलाब ला सकते हैं।
वह दिन अंजलि की ज़िंदगी का मोड़ था। उसने तय किया – वह भी कुछ करेगी। आँखें नहीं हैं तो क्या? आवाज़ है, उंगलियाँ हैं, दिल है।
उसी रात उसने माँ से कहा, "माँ, मैं भी आज़ादी के लिए कुछ करना चाहती हूँ।"
माँ की आँखों में आँसू थे – डर और गर्व, दोनों के। उसने अंजलि को गले लगाया और कहा, "बेटा, तू जो भी करेगी, पूरे दिल से करना। पर याद रखना, ये राह आसान नहीं है।"
अंजलि मुस्कुराई – उसकी मासूम मुस्कान में एक वीरता थी।
धीरे-धीरे अंजलि गाँव के और नेत्रहीन बच्चों से मिलने लगी। उनके साथ गीत गाने लगी। माँ ने उन्हें तालीम देना शुरू किया – ब्रेल में लिखना, देशभक्ति गीतों की तालीम देना।
अंजलि ने खुद गीत लिखने शुरू किए – लय में लिपटे हुए संदेश, जो ब्रेल में छुपाए जाते और गाकर सुनाए जाते।
एक बच्ची जो पहले केवल सुनती थी, अब सिखाने लगी थी। उसकी आवाज़ में ऐसा कुछ था, जो सुनने वाले के दिल को छूता था।
1937 के उस मोड़ से अंजलि की यात्रा शुरू हो चुकी थी – अंधेरे में तिरंगा उगाने की यात्रा।
उसके लिए अंधकार कोई रुकावट नहीं था – वो तो उसकी पहचान बन चुका था। वह अंधकार से डरती नहीं थी, उसमें रास्ता खोज लेती थी।
उसकी माँ ने कहा था – "बेटा, अंधेरा सिर्फ तब तक होता है, जब तक कोई दीप नहीं जलता। और तू तो खुद एक दीप बन गई है।"
... (जारी)