Human Sacrifice And Legal Restrictions On It in Hindi Philosophy by Er.Vishal Dhusiya books and stories PDF | मानव बलि और इसपर कानूनी प्रतिबन्ध

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मानव बलि और इसपर कानूनी प्रतिबन्ध

                               प्रस्तावना 

मानव बलि (Human Sacrifice) एक प्राचीन और विवादास्पद प्रथा है, जो विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं में ऐतिहासिक रूप से देखी गई है। यह प्रथा सामान्यतः धार्मिक, सांस्कृतिक या सामाजिक उद्देश्यों से की जाती थी, जिसमें किसी व्यक्ति की बलि देवताओं को प्रसन्न करने, प्राकृतिक आपदाओं को रोकने, या समुदाय की समृद्धि के लिए दी जाती थी। प्राचीन मेसोपोटामिया, माया, एज़्टेक, और कुछ भारतीय जनजातीय समुदायों में इस तरह की प्रथाओं के प्रमाण मिलते हैं। भारत में, "बलि प्रथा" कभी-कभी स्थानीय लोक परंपराओं या तंत्र-मंत्र से जुड़ी रही, हालांकि यह अब अवैध और अस्वीकार्य है। आधुनिक समाज में, मानव बलि को नैतिक और कानूनी रूप से निंदनीय माना जाता है, और यह मानवाधिकारों के खिलाफ है।

मानव बलि, जिसे अनुष्ठानिक हत्या के रूप में भी जाना जाता है, एक ऐसी प्रथा है जिसमें किसी व्यक्ति की धार्मिक या सांस्कृतिक कारणों से हत्या कर दी जाती है। यह प्रथा विभिन्न प्राचीन संस्कृतियों में पाई जाती थी, लेकिन वर्तमान में, अधिकांश धर्मों और कानूनों द्वारा इसकी निंदा की जाती है और इसे हत्या माना जाता है।

             भारत में मानव बलि:- 

भारत में मानव बलि (human sacrifice) एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक रूप से जटिल विषय है, जो प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक विभिन्न संदर्भों में देखा गया है। यह प्रथा अब अवैध और सामाजिक रूप से अस्वीकार्य है, लेकिन इसके ऐतिहासिक और आधुनिक पहलुओं को समझना महत्वपूर्ण है। नीचे भारत में मानव बलि के विभिन्न आयामों को संक्षेप में समझाया गया है:

1. प्राचीन भारत में मानव बलि:वैदिक काल: वैदिक साहित्य (जैसे ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण) में नरमेध (पुरुषमेध) यज्ञ का उल्लेख है, जो मानव बलि से संबंधित था। हालांकि, यह ज्यादातर प्रतीकात्मक था और बाद में इसे पशु बलि या अन्य अनुष्ठानों से बदल दिया गया। उदाहरण के लिए, पुरुष सूक्त में विश्व सृष्टि को एक प्रतीकात्मक बलि से जोड़ा गया है।

मनुस्मृति और अन्य ग्रंथ:-

मनुस्मृति में मानव बलि का उल्लेख ऐतिहासिक संदर्भ में है, लेकिन इसे प्रोत्साहित नहीं किया गया। इसके बजाय, पशु बलि और अहिंसक यज्ञों को प्राथमिकता दी गई।

तांत्रिक और अघोरी प्रथाएं:-

कुछ तांत्रिक और अघोरी समूहों में मानव बलि की प्रथा का उल्लेख मिलता है, लेकिन यह बहुत दुर्लभ थी और समाज के मुख्यधारा से अलग थी।

3. औपनिवेशिक काल में प्रतिबंध:-

ब्रिटिश शासन ने मानव बलि को "असभ्य" प्रथा मानकर इसे अवैध घोषित किया। इंडियन पीनल कोड (IPC), 1860 के तहत मानव बलि को हत्या (धारा 302) के रूप में दंडनीय बनाया गया।

ब्रिटिश अधिकारियों, जैसे जॉन कैंपबेल, ने खोंड जनजाति की मेरिया बलि को रोकने के लिए सैन्य और शैक्षिक अभियान चलाए। यह ब्रिटिशों के "सभ्यता मिशन" का हिस्सा था, हालांकि इसमें औपनिवेशिक दमन भी शामिल था।

भारतीय समाज सुधारकों, जैसे राजा राममोहन राय, ने भी ऐसी प्र18:37 AM IST on Tuesday, July 15, 2025 प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाई।

मानव बलि क्या है?

मानव बलि एक अनुष्ठानिक कार्य है जिसमें किसी व्यक्ति को देवता, आत्मा, या किसी अन्य अलौकिक शक्ति को प्रसन्न करने या खुश करने के लिए मार दिया जाता है। यह प्रथा विभिन्न रूपों में मौजूद है, जैसे कि किसी देवता को बलि चढ़ाना, मृतकों के साथ जाने के लिए दासों या नौकरों को मारना, या किसी राजा या शासक के साथ जाने के लिए सेवकों को मारना। 

मानव बलि पर प्रतिबंध क्यों लगा?

मानव बलि पर प्रतिबंध लगाने के कई कारण हैं, जिनमें शामिल हैं: 

मानवतावाद:

मानव बलि को एक अमानवीय और क्रूर प्रथा माना जाता है, जो मानव जीवन के मूल्य को कम करती है।

धर्म:

अधिकांश आधुनिक धर्म मानव बलि की निंदा करते हैं और इसे पाप मानते हैं।

कानून:

मानव बलि को हत्या माना जाता है और अधिकांश देशों में इसे गैरकानूनी घोषित किया गया है।

सामाजिक विकास:

जैसे-जैसे समाज विकसित हुए हैं, मानव बलि जैसी प्रथाओं को बर्बर और असभ्य माना जाने लगा है।

   डॉ बाबा साहब भीम राव अंबेडकर ने मानव बलि को समाज में कैंसर कहा ।

डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर, जिन्हें बाबासाहेब आंबेडकर के नाम से भी जाना जाता है, ने मानव बलि की प्रथा का दृढ़ता से विरोध किया था। उन्होंने इसे अमानवीय और अन्यायपूर्ण माना था। उनका मानना ​​था कि सभी मनुष्यों को समान माना जाना चाहिए और किसी भी व्यक्ति को बलि का बकरा बनाना स्वीकार्य नहीं है। 

आंबेडकर ने सामाजिक न्याय और समानता के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने दलितों और अन्य हाशिए पर पड़े समुदायों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी। उनका मानना ​​था कि मानव बलि जैसी प्रथाएं इन समुदायों के खिलाफ भेदभाव और उत्पीड़न को बढ़ावा देती हैं। 

आंबेडकर ने न केवल मानव बलि का विरोध किया, बल्कि उन्होंने इसे जड़ से खत्म करने के लिए सक्रिय रूप से काम भी किया। उन्होंने दलितों और अन्य उत्पीड़ित समुदायों को शिक्षित करने, संगठित करने और उन्हें उनके अधिकारों के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया। 

आंबेडकर के मानव बलि के विरोध के मुख्य बिंदु:

अमानवीयता:

मानव बलि एक अमानवीय प्रथा है जो मानव जीवन के प्रति सम्मान की कमी को दर्शाती है।

अन्याय:

यह प्रथा अन्यायपूर्ण है क्योंकि यह पीड़ितों को उनके जीवन और गरिमा से वंचित करती है।

भेदभाव:

मानव बलि अक्सर धार्मिक या सामाजिक मान्यताओं के आधार पर की जाती है, जो भेदभाव और उत्पीड़न को बढ़ावा देती है।

सामाजिक बुराई:

मानव बलि एक सामाजिक बुराई है जिसे जड़ से खत्म किया जाना चाहिए। 

आंबेडकर का मानना ​​था कि मानव बलि जैसी प्रथाओं को खत्म करने के लिए सामाजिक न्याय, समानता और शिक्षा महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने इन मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। 

                     लेखक  निवेदन:- 

मेरे सभी प्रिय पाठकगणों  से नम्र निवेदन है कि मैं जो यह किताब लिखी है ये कहानी, मेरे शब्द या इतिहास मेरे अपने द्वारा मनगढ़ंत नहीं है। मैं अपने पूर्वजों के माध्यम से कुछ जानकारी उपलब्ध की तो कुछ इतिहास पढ़ा, लेख पढ़े बीबीसी न्यूज ब्रीफिंग के माध्यम से तो कुछ गूगल और ऐतिहासिक दस्तावेजों के माध्यम से जानकारी प्राप्त की। और वहाँ से पढ़ने, देखने और समझने के बाद मुझे लगा कि इसपर एक किताब लिखनी चाहिए ताकि अपने भारतीय समाज को जानकारी हो कि हमारे अतीत में कुछ ऐसे भी कुप्रथाओं का प्रकोप था जो मानवता के लिए अभिशाप और काली डायन की तरह था। मेरा अपना विचार है कि इस किताब के माध्यम से अपने संपूर्ण भारत और आने वाली पीढ़ियों को एक सीख दूँ ताकि उनको मालूम हो और ऐसे कुप्रथाओं का बहिष्कार करें। 

मैं फिर एक बार स्पस्ट कर देना चाहता हूँ कि मैंने यह किताब इतिहास के आधार पर लिखी है जिसे मैंने अखबारों, न्यूज चैनल, गूगल और ऐतिहासिक प्रामाणिक दस्तावेजों से ली है। इसमे मेरा कोई अपना विचार नहीं लेकिन बुराई के खिलाफ सबको जागरूक करना मेरा कर्तव्य बनता है। इतिहास से हमको सीखने का प्रयास करते रहना चाहिए ताकि समाज में फिर ऐसी कोई स्थिति ना हो। मगर आज 21 वीं शताब्दी में भी ऐसी प्रथाओं का चलन है जो घोर निंदनीय है और बहिष्कृत के लायक है। यह समाज में कैंसर के समान है। 

          - Er Vishal Kumar Dhusiya 



प्रस्तुत किए गए इस किताब को खूब गहराई से पढ़े समझे 

मानव बलि का इतिहास:- 

मानव बलि, एक ऐतिहासिक और मानवशास्त्रीय प्रथा है, जिसमें धार्मिक या सांस्कृतिक कारणों से किसी व्यक्ति की अनुष्ठानिक हत्या शामिल होती है। यह प्रथा दुनिया भर में प्राचीन सभ्यताओं में पाई जाती थी, जैसे कि मेसोपोटामिया, ग्रीस, और एज्टेक संस्कृति. 

इतिहास:

प्राचीन काल:

मानव बलि की प्रथा प्राचीन सभ्यताओं में व्यापक रूप से प्रचलित थी। 

मेसोपोटामिया:

प्राचीन मेसोपोटामिया में, मानव बलि के प्रमाण मिले हैं, हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि यह प्रथा कितनी व्यापक थी. 

ग्रीस:

ग्रीक पौराणिक कथाओं में भी मानव बलि के उल्लेख मिलते हैं, जैसे कि यिप्तह की बेटी की कहानी. 

एज्टेक:

एज्टेक सभ्यता में मानव बलि एक प्रमुख प्रथा थी, जिसका उपयोग देवताओं को प्रसन्न करने और अनुष्ठानों को पूरा करने के लिए किया जाता था. 

अन्य संस्कृतियाँ:

मानव बलि की प्रथा उत्तरी अमेरिका के कुछ हिस्सों, दक्षिण अमेरिका और अन्य क्षेत्रों में भी पाई जाती थी. 

भारत:

हिंदू धर्म में भी पशु बलि के उल्लेख मिलते हैं, हालांकि मानव बलि को आमतौर पर निषिद्ध माना जाता है. 

नेपाल:

आधुनिक समय में भी, कुछ समुदायों में मानव बलि की प्रथा जारी है, हालांकि इसे व्यापक रूप से निंदा की जाती है. 

मानव बलि के कारण:

धार्मिक:

मानव बलि अक्सर देवताओं को प्रसन्न करने, देवताओं को खुश करने, या देवताओं को शांत करने के लिए की जाती थी.

सांस्कृतिक:

कुछ संस्कृतियों में, मानव बलि अनुष्ठानों, सामाजिक समारोहों, या देवताओं के प्रति सम्मान व्यक्त करने का एक तरीका था.

जादुई:

कुछ मामलों में, मानव बलि को जादुई शक्तियों को प्राप्त करने या बीमारियों को ठीक करने के लिए किया जाता था.

राजनीतिक:

कुछ मामलों में, मानव बलि का उपयोग राजनीतिक शक्ति को मजबूत करने या दुश्मनों को डराने के लिए किया जाता था. 

मानव बलि (human sacrifice) भारत में विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों में अलग-अलग उद्देश्यों और मान्यताओं के साथ प्रचलित थी। यह प्रथा प्राचीन काल से लेकर औपनिवेशिक काल तक कुछ समुदायों, विशेषकर आदिवासी और ग्रामीण क्षेत्रों में देखी गई। नीचे मानव बलि के प्रमुख उद्देश्यों और संदर्भों को संक्षेप में बताया गया है:-


       1. धार्मिक और आध्यात्मिक उद्देश्य:

A देवताओं को प्रसन्न करना: मानव बलि का सबसे आम उद्देश्य देवी-देवताओं को प्रसन्न करना था। कुछ समुदायों में यह माना जाता था कि मानव बलि से देवता प्रसन्न होते हैं और बदले में समृद्धि, सुरक्षा, या अच्छी फसल प्रदान करते हैं।

उदाहरण:- खोंड जनजाति (वर्तमान ओडिशा और आंध्र प्रदेश) में मेरिया बलि की प्रथा थी, जिसमें बच्चों या वयस्कों की बलि धरती माता (देवी) को दी जाती थी ताकि फसल की उर्वरता बढ़े।

B अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति: कुछ अघोरी या तांत्रिक समूहों में मानव बलि को तंत्र-मंत्र और अलौकिक शक्तियों की प्राप्ति से जोड़ा जाता था।

2. आर्थिक और सामाजिक समृद्धि:

कई समुदायों में यह विश्वास था कि मानव बलि से धन, समृद्धि, या सामाजिक स्थिति में वृद्धि हो सकती है। यह अंधविश्वास विशेष रूप से ग्रामीण और अशिक्षित क्षेत्रों में प्रचलित था।

उदाहरण: केरल के 2022 के एलनथूर मामले में, आरोपियों ने कथित तौर पर आर्थिक लाभ और धन प्राप्ति के लिए दो महिलाओं की बलि दी थी।

3. रक्षा और सुरक्षा:

कुछ स्थानों पर मानव बलि का उपयोग गाँव, कबीले, या परिवार को बुरी आत्माओं, प्राकृतिक आपदाओं, या शत्रुओं से बचाने के लिए किया जाता था।

उदाहरण:-  कुछ प्राचीन प्रथाओं में, विशेषकर मंदिरों या किलों के निर्माण के दौरान, नींव को मजबूत करने के लिए मानव बलि दी जाती थी, यह मानते हुए कि इससे संरचना सुरक्षित रहेगी।


4. सामाजिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाज:

कुछ आदिवासी समुदायों में मानव बलि सामाजिक या सांस्कृतिक परंपराओं का हिस्सा थी, जो पीढ़ियों से चली आ रही थीं। यह प्रथा अक्सर सामुदायिक अनुष्ठानों का हिस्सा होती थी। 

खोंडों की मेरिया बलि: यह एक सामूहिक अनुष्ठान था, जिसमें बलि के लिए व्यक्ति को खरीदा जाता था या स्वेच्छा से चुना जाता था। बलि से पहले उसे सम्मानित भी किया जाता था।

5. अंधविश्वास और तंत्र-मंत्र:

मानव बलि का संबंध अक्सर अंधविश्वास, जादू-टोना, और तांत्रिक प्रथाओं से था। कुछ लोग मानते थे कि मानव रक्त या शरीर के अंगों का उपयोग तांत्रिक अनुष्ठानों में शक्ति बढ़ाता है।

उदाहरण: कुछ क्षेत्रों में बच्चों की बलि (बाल बलि) को तंत्र साधना के लिए शुभ माना जाता था, हालांकि यह प्रथा अत्यंत दुर्लभ थी।

ऐतिहासिक संदर्भ:

प्राचीन भारत:-

प्राचीन वैदिक और पुराणिक साहित्य में मानव बलि (नरमेध) का उल्लेख है, लेकिन इसे बाद में प्रतीकात्मक रूप से पशु बलि से बदल दिया गया। उदाहरण के लिए, अश्वमेध यज्ञ में भी मानव बलि का उल्लेख प्रतीकात्मक माना जाता है।

आदिवासी क्षेत्र: खोंड, गोंड, और अन्य आदिवासी समुदायों में मानव बलि की प्रथा 19वीं सदी तक प्रचलित थी, जिसे ब्रिटिश प्रशासन ने सख्ती से दबाया।

मध्यकाल और बाद में: मध्यकाल में कुछ तांत्रिक और अघोरी समूहों में मानव बलि की छिटपुट घटनाएं दर्ज की गईं, लेकिन यह व्यापक नहीं थी।

ब्रिटिश हस्तक्षेप:-

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने मानव बलि को गैरकानूनी घोषित किया, विशेषकर खोंड जनजाति की मेरिया बलि को 1830-50 के दशक में रोकने के लिए। उन्होंने इसके स्थान पर पशु बलि को प्रोत्साहित किया।

इंडियन पीनल कोड (1860) के तहत मानव बलि को हत्या माना गया, और इसे सजा योग्य अपराध बनाया गया।

आधुनिक संदर्भ:

आज भी छिटपुट मामलों में, जैसे केरल (2022) या अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में, अंधविश्वास के कारण मानव बलि की घटनाएं सामने आती हैं। ये मामले ज्यादातर व्यक्तिगत या छोटे समूहों द्वारा किए जाते हैं और कानून द्वारा सख्ती से निपटे जाते हैं।

महाराष्ट्र प्रिवेंशन ऑफ ह्यूमन सैक्रिफाइस एक्ट, 2013 जैसे कानूनों ने इसे और सख्ती से रोकने का प्रयास किया है।

    मानव बलि पर प्रतिबंधित कानून:- 

भारत में मानव बलि (human sacrifice) को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों की शुरुआत ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में हुई थी। अंग्रेजों ने इन कानूनों को लागू करने के पीछे कई सामाजिक, धार्मिक, और प्रशासनिक कारण थे। नीचे इसके प्रमुख कारणों को संक्षेप में समझाया गया है:- 

1. नैतिक और मानवीय दृष्टिकोण:- 

19वीं सदी में ब्रिटिश समाज में मानव बलि को एक बर्बर और अमानवीय प्रथा माना जाता था। यूरोपीय मूल्यों और ईसाई नैतिकता के आधार पर, अंग्रेजों ने मानव बलि को अस्वीकार्य माना और इसे रोकने के लिए कानून बनाए।

ब्रिटिश प्रशासकों, विशेष रूप से विलियम बेंटिक जैसे गवर्नर-जनरल, ने भारतीय समाज में सुधार लाने के लिए "सभ्यता मिशन" (civilizing mission) को अपनाया था, जिसमें सती प्रथा, मानव बलि, और अन्य रूढ़ियों को खत्म करना शामिल था।

2. सती प्रथा और मानव बलि का उन्मूलन:-

अंग्रेजों ने सबसे पहले सती प्रथा (1829 में बेंटिक द्वारा प्रतिबंधित) पर रोक लगाई, जो मानव बलि से मिलती-जुलती थी। इसके बाद, अन्य क्षेत्रीय प्रथाओं, जैसे कुछ जनजातीय समुदायों में प्रचलित मानव बलि, को भी लक्षित किया गया।

उदाहरण के लिए, खोंड जनजाति (वर्तमान ओडिशा और आंध्र प्रदेश के क्षेत्रों में) में "मेरिया बलि" की प्रथा प्रचलित थी, जिसमें बच्चों या वयस्कों की बलि दी जाती थी। ब्रिटिश अधिकारियों, जैसे जॉन कैंपबेल और सैमुअल चार्ल्स मैकफर्सन, ने 1830-1850 के दशक में इसे खत्म करने के लिए अभियान चलाए और कानून लागू किए।


3. प्रशासनिक नियंत्रण और स्थिरता:-

मानव बलि की प्रथाएं, विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में, सामाजिक अशांति का कारण बन सकती थीं। अंग्रेजों को डर था कि ऐसी प्रथाएं स्थानीय विद्रोहों को भड़का सकती हैं या उनके शासन को चुनौती दे सकती हैं।

ब्रिटिश प्रशासन ने इन प्रथाओं को दबाकर अपनी सत्ता को मजबूत करने और स्थानीय समुदायों पर नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की।

5. कानूनी ढांचा:-

अंग्रेजों ने इंडियन पीनल कोड (IPC), 1860 की नींव रखी, जिसमें हत्या (धारा 302) और अन्य हिंसक अपराधों को दंडनीय बनाया गया। मानव बलि को हत्या के रूप में वर्गीकृत किया गया और इसे सख्ती से प्रतिबंधित किया गया।

इसके अलावा, स्थानीय स्तर पर विशेष नियम और अधिनियम (जैसे खोंड क्षेत्रों में) लागू किए गए ताकि इन प्रथाओं को जड़ से खत्म किया जा सके।


6. सामाजिक सुधारकों का दबाव:

ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय समाज सुधारकों, जैसे राजा राममोहन राय, ने भी अंधविश्वास और अमानवीय प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाई। इन सुधारकों के साथ मिलकर अंग्रेजों ने मानव बलि जैसी प्रथाओं को गैरकानूनी घोषित किया।

         -   Er Vishal Kumar Dhusiya