वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत्। अव्याहताज्ञः सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥ १४॥
जो मनुष्य वज्र पंजर नामक इस रामकवच का स्मरण करता है, उसकी आज्ञा का कहीं उल्लंघन नहीं होता और उसे सर्वत्र जय और मंगल की प्राप्ति होती है ॥ १४ ॥
आदिष्टवान्यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हरः । तथा लिखितवान्प्रातः प्रबुद्धो बुधकौशिकः ॥ १५॥
श्रीशंकरने रात्रिके समय स्वप्नमें इस रामरक्षा का जिस प्रकार आदेश दिया था, उसी प्रकार प्रातःकाल जागने पर बुध कौशिक ने इसे लिख दिया ॥ १५ ॥
आरामः कल्पवृक्षाणां विरामः सकलापदाम् । अभिरामस्त्रिलोकानां रामः श्रीमान्स नः प्रभुः ॥
१६॥
जो मानो कल्पवृक्षों के बगीचे हैं तथा समस्त आपत्तियों का अन्त करने वाले हैं, जो तीनों लोकों में परम सुन्दर हैं, वे श्रीमान् राम हमारे प्रभु हैं॥ १६ ॥
तरुणौ रूपसम्पन्नौ सुकुमारौ महाबलौ । पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ।। १७॥
फलमूलाशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ। पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥ १८॥ शरण्यौ सर्वसत्त्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् । रक्षःकुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघूत्तमौ ॥ १९ ॥
जो तरुण अवस्थावाले, रूपवान्, सुकुमार, महाबली, कमल के समान विशाल नेत्रों वाले, चीरवस्त्र और कृष्णमृगचर्मधारी, फल-मूल आहार करने वाले, संयमी, तपस्वी, ब्रह्मचारी, सम्पूर्ण जीवों को शरण देने वाले, समस्त धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसकुलका नाश करने वाले हैं, वे रघुश्रेष्ठ दशरथकुमार राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें ॥ १७-१९॥
आत्तसज्जधनुषाविषुस्पृशा
वक्षयाशुगनिषंगसंगिनौ । रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा-वग्रतः पथि सदैव गच्छताम् ॥ २० ॥
जिन्होंने संधान किया हुआ धनुष ले रखा है, जो बाण का स्पर्श कर रहे हैं तथा अक्षय बाणों से युक्त तूणीर लिये हुए हैं, वे राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करनेके लिये मार्ग में सदा ही मेरे आगे चलें ॥ २० ॥
संनद्धः कवची खड्गी चापबाणधरो युवा। गच्छन्मनोरथान्नश्च रामः पातु सलक्ष्मणः ॥ २१॥
सर्वदा उद्यत, कवचधारी, हाथमें खड्ग लिये, धनुष-बाण धारण किये तथा युवा अवस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मणजी सहित आगे-आगे चलकर हमारे मनोरथों की रक्षा करें ॥ २१ ॥
रामो दाशरथिः शूरो लक्ष्मणानुचरो बली । काकुत्स्थः पुरुषः पूर्णः कौसल्येयो रघूत्तमः ॥ २२॥
वेदान्तवेद्यो यज्ञेशः पुराणपुरुषोत्तमः । जानकीवल्लभः श्रीमानप्रमेयपराक्रमः ॥ २३ ॥ इत्येतानि जपन्नित्यं मद्भक्तः श्रद्धयान्वितः । अश्वमेधाधिकं पुण्यं सम्प्राप्नोति न संशयः ॥ २४॥
(भगवान् का कथन है कि) राम, दाशरथि, शूर, लक्ष्मणानुचर, बली, काकुत्स्थ, पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघूत्तम, वेदान्तवेद्य, यज्ञेश, पुराणपुरुषोत्तम, जानकीवल्लभ, श्रीमान् और अप्रमेयपराक्रम-इन नामका नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करनेसे मेरा भक्त अश्वमेधयज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त करता है - इसमें कोई सन्देह नहीं है॥
२२-२४॥
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम् । स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नराः ॥
२५॥
जो लोग दूर्वा दल के समान श्यामवर्ण, कमलनयन पीताम्बरधारी भगवान् राम का इन दिव्य नामों से स्तवन करते हैं, वे संसार चक्र में नहीं पड़ते ॥ २५ ॥
रामं लक्ष्मणपूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुन्दरं काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथतनयं श्यामलं शान्तमूर्ति वन्दे लोकाभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥ २६ ॥
लक्ष्मणजी के पूर्वज, रघुकुल में श्रेष्ठ, सीताजी के स्वामी, अतिसुन्दर, ककुत्स्थकुलनन्दन, करुणासागर, गुणनिधान, ब्राह्मणभक्त, परम धार्मिक, राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथपुत्र, श्याम और शान्तमूर्ति, सम्पूर्ण लोकोंमें सुन्दर, मैं श्रीरामचन्द्रके चरणों का मन से स्मरण करता हूँ, श्रीरामचन्द्र के चरणों का वाणी से कीर्तन करता हूँ, श्रीरामचन्द्र के चरणों को सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ तथा श्रीरामचन्द्र के चरणों की शरण लेता हूँ ॥ २९॥
माता रामो मत्पिता रामचन्द्रः स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्रः । सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु-र्नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥ ३० ॥
राम मेरी माता हैं, राम मेरे पिता हैं, राम स्वामी हैं और राम ही मेरे सखा हैं। दयामय रामचन्द्र ही मेरे सर्वस्व हैं, उनके सिवा और किसी को मैं नहीं जानता-बिलकुल नहीं जानता ॥ ३० ॥
दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा । पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनन्दनम् ॥ ३१ ॥
जिनकी दायीं ओर लक्ष्मण जी, बायीं ओर जानकी जी और साम ने हनुमान् जी विराजमान हैं, उन रघुनाथजी की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ३१॥
लोकाभिरामं रणरंगधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् । कारुण्यरूपं करुणाकरं तं श्रीरामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये ॥ ३२ ॥
जो सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रणक्रीडा में धीर, कमलनयन, रघुवंशनायक, करुणामूर्ति और करुणा के भण्डार हैं, उन श्रीरामचन्द्रजी की मैं शरण लेता हूँ ॥ ३२ ॥
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् । वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥ ३३ ॥
जिनकी मन के समान गति और वायु के समान वेग है, जो परम जितेन्द्रिय और बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ हैं, उन पवननन्दन वानराग्रगण्य श्रीरामदूत की मैं शरण लेता हूँ ॥ ३३॥
कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् । आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥ ३४॥
कवितामयी डाली पर बैठकर मधुर अक्षरों वाले राम-राम इस मधुर नाम को कूज ते हुए वाल्मीकि रूप कोकिल की मैं वन्दना करता हूँ॥ ३४॥
आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥ ३५॥
आपत्तियों को हरने वाले तथा सब प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाले लोकाभिराम भगवान् राम को मैं बारंबार नमस्कार करता हूँ ॥ ३५ ॥
भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसम्पदाम् । तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥ ३६ ॥
राम-राम' ऐसा घोष करना सम्पूर्ण संसारबीजोंको भून डालनेवाला, समस्त सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति कराने वाला तथा यमदूतों को भयभीत करने वाला है ॥ ३६ ॥
रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः । रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहं रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥ ३७ ॥
राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम जी सदा विजय को प्राप्त होते हैं। मैं लक्ष्मीपति भगवान् रामका भजन करता हूँ। जिन रामचन्द्र जी ने सम्पूर्ण राक्षस सेना का ध्वंस कर दिया था, मैं उनको प्रणाम करता हूँ। राम से बड़ा और कोई आश्रय नहीं है। मैं उन रामचन्द्रजी का दास हूँ। मेरा चित्त सदा राम में ही लीन रहे; हे राम ! आप मेरा उद्धार कीजिये ॥ ३७ ॥
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे। सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ३८ ॥
(श्रीमहादेवजी पार्वतीजीसे कहते हैं) हे सुमुखि ! रामनाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है। मैं सर्वदा 'राम, राम, राम' इस प्रकार मनोरम राम नाम में ही रमण करता हूँ ॥ ३८ ॥
इति श्रीबुधकौशिकमुनिविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
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