रचना: बाबूल हक अंसारी
गाँव में पहली बार अजय का नाम खुलेआम लिया गया।
माँ ने सुधीर को सीने से लगाते हुए कहा —
"आज तू सिर्फ़ मेरा बेटा नहीं… तू एक कहानी का आख़िरी किरदार भी बन गया।"
सुधीर की आँखों में आँसू थे, मगर दिल में संतोष। इतने वर्षों से जो बात उसके दिल में कुचली पड़ी थी, आज वो पूरे देश के सामने थी।
इधर शहर में, न्यूज चैनल पर विशेष कार्यक्रम चला — "अलौकिक सच: एक गुमनाम ओलंपियन की विरासत।"
अजय चौहान की पुरानी तस्वीरें, उनका रिकॉर्ड, गाँव की मिट्टी, माँ का इंटरव्यू — सब कुछ दिखाया गया।
रात गहराने लगी थी। सुधीर अकेले छत पर टहल रहा था। तभी हवा में एक जाना-पहचाना गंध आई — वही मिट्टी, वही पसीने की बू, वही जो कभी पिताजी के कंधों से आती थी।
सहसा उसकी आँखें मूँद गईं… और जैसे ही खोलीं, सामने वही दृश्य!
पिताजी (अजय) दौड़ते हुए नज़र आ रहे थे — मशाल हाथ में लिए, आँखों में जुनून, जैसे कोई ओलंपिक ट्रैक हो… मगर ये दृश्य वास्तविक न होकर एक नींद में चलती दुनिया का हिस्सा था।
सुधीर दौड़कर नीचे आया — खेतों की ओर।
हवा रुक गई थी, तारों की रोशनी तेज़ थी, और दूर से कोई धीमे स्वर में बोल रहा था —
"सच को कभी मारा नहीं जा सकता, सुधीर… वो नींद में ही सही, मगर चलकर सामने आ ही जाता है।"
अचानक वो रोशनी ग़ायब हो गई।
सुधीर वहीं ज़मीन पर बैठ गया — वो रो नहीं रहा था, मुस्कुरा रहा था।
अगले दिन गाँव में एक छोटा सा स्टेडियम बनवाने का प्रस्ताव पारित हुआ — नाम रखा गया:
"अजय चौहान मेमोरियल स्पोर्ट्स ग्राउंड"
मीडिया वाले वापस आ चुके थे, और सुधीर से कोई रिपोर्टर ने पूछा —
"क्या आप मानते हैं कि ये सब एक सपना था?"
सुधीर ने जवाब दिया —
"सपना और हक़ीक़त के बीच की रेखा नींद में चलकर ही पार होती है। और कभी-कभी… वो रेखा एक मशाल बन जाती है।"
कहानी पूरी नहीं हुई थी।
गाँव के बच्चे अब हर सुबह उसी मैदान में दौड़ लगाते हैं —
कभी अपने खेल के लिए…
कभी किसी खोए हुए हीरो के नाम पर…
और कभी एक नींद में चलती कहानी को सच साबित करने के लिये
गाँव के बच्चे अब उस मैदान को सिर्फ़ मैदान नहीं, बल्कि एक प्रेरणा स्थल मानते हैं।
जहाँ पहले सिर्फ़ मिट्टी थी, अब वहाँ एक छोटी सी दीवार पर लिखा गया है –
"यहाँ एक सपना दौड़ा था, जो आज हकीकत बन गया है।"
राजू अब गाँव में नहीं है। वो शहर के एक विश्वविद्यालय में खेल मनोविज्ञान पढ़ा रहा है।
लेकिन हर साल प्रतियोगिता के बाद, वो उसी गाँव लौटता है... उसी मैदान में बच्चों के बीच, उसी जगह, जहाँ एक कहानी ने उसे बदल दिया।
एक दिन एक बच्चा राजू से पूछ बैठा —
"क्या सचमुच कोई नींद में चलकर इतिहास बना सकता है?"
राजू मुस्कराया और बोला —
"सपनों में चलना ही तो हिम्मत है, और हिम्मत से ही इतिहास बनता है।"
उसी शाम सूरज ढलते वक्त, मैदान में एक छोटी सी मशाल जलाई गई —
अब वो मैदान सिर्फ़ दौड़ की जगह नहीं,
बल्कि हर उस कहानी की ज़मीन बन गई थी,
जो नींद में शुरू होकर
जागती दुनिया को बदलने की ताक़त रखती है।
बिलकुल बाबुल जी।
और इस तरह, एक ग़रीब बच्चे की नींद में शुरू हुई रहस्यमयी यात्रा, हकीकत की रोशनी में बदल गई।
जो कुछ उसने सपने में देखा, वही उसकी जागती दुनिया का सच बन गया।
अब वह बच्चा सिर्फ़ अपने गाँव का नहीं रहा — वह एक उम्मीद बन गया, एक मिसाल बन गया।
नींद में चलती कहानी यहीं थमती है, लेकिन उसकी प्रेरणा... हर जागते दिल में आगे बढ़ती रहेगी।
[.समाप्त ]