Structure of India in Hindi Love Stories by Sharovan books and stories PDF | भारत की रचना - 19

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भारत की रचना - 19

भारत की रचना / धारावाहिक

उन्नीसवां भाग

 

       तब इस प्रकार रचना को जेल की सजा मिलने के पश्चात, दूसरे दिन ही, मध्य-प्रदेश की सेंट्रल जेल में भेज दिया गया. अपनी सजा काटने के लिए जब वह प्रस्थान कर रही थी, तो उसकी हम-सहेली ज्योति के साथ हॉस्टल की कुछेक लड़कियां अवश्य ही उसको विदा करने आई थीं. हॉस्टल की इन लड़कियों में रचना की वे सखियाँ भी थीं, जो उसके साथ पढ़ी थीं, खेली थीं और जिन्होंने घंटो उसके साथ-साथ बैठकर मीठी-मीठी बातें की थीं. बातों के मध्य अपने भावी भविष्य के सुनहले सपने बनाये थे; मगर कौन जानता था कि, समय की एक ही करबट में सारे सपने चटककर किसी कांच की किरचों के समान इस प्रकार बिखर जायेंगे कि, जिसका भी पैर उन पर पड़ेगा, वही रचना के अनकहे दर्द का एहसास कर उठेगा. रचना की इन सखियों में किसे मालुम था कि, उसकी इस मर्मान्तक जेल की सजा की विदाई पर सब-की-सब अपने फूटे दुर्भाग्य पर मात्र आंसू बहाने पर विवश हो जायेंगी. सारी लड़कियों की आँखों में गम और विषाद के आंसू थे. सबको दुःख था. सब ही व्यथित थीं. रचना बारी-बारी से अपनी सब ही सखियों से गले मिलकर खूब ही रोई. ज्योति के गले से लिपटकर तो वह फूट-फूटकर रो पड़ी. ज्योति के साथ-साथ, उसकी सब ही सखियों ने रचना को समझाया, तसल्ली दी, अपनी-अपनी संवेदनाएं प्रगट कीं और रचना को जी-भरकर प्यार भी किया. वे सब भी रो रही थीं.

       मनुष्य के कानूनी फैसलों के तहत, एक अबला नारी के साथ लगातार हो रहे अत्याचारों को देखकर रचना को ले जानेवाली पुलिस महिलाएं भी रचना रचना को उसकी सखियों के साथ खड़ा छोड़कर पुलिस जीप के एक ओर हो गई थीं. किस कारण से, शायद यह कोई भी नहीं जानता था? इतना तो अवश्य ही था, कि उनकी नज़रें ऐसी सबला पर आये हुए दुखों के माज़रे को देखकर अपनी दृष्टि नहीं मिलाना चाहती थीं. एक नारी के ये दुःख, ऐसे क्षण, ये यातनाएं, मानसिक कष्ट और इस प्रकार की बेइंसाफी की मिसालों से आज भी कोई अदालत खाली नहीं रह सकी है. नारी पर तो अत्याचार हुए हैं. आज से नहीं, बल्कि सदियों पहले ही से नारी विवशता और बेबसी की एक ऐसी मिसाल बनकर अपने दुखड़ों पर रोती  आई है, कि जिसका मेल भारत के कोने-कोने में सहज ही मिल जाएगा. नारी तो आंसुओं का सागर है. वह रोती है और रोती रहेगी- लेकिन, कब तक? क्या पता, समाज और क़ानून के रक्षकों के मन-मस्तिष्कों में यह प्रश्न आयेगा भी या फिर एक प्रश्न बनकर ही, अपने उत्तर की तलाश में, भटककर स्वयं खो जाएगा? फिर इस प्रकार से चलता रहेगा, वही सिलसिला- परम्परा, वही रीतियाँ और रिवाज़, जिनके सहारे मनुष्य नारी का सदैव भक्षक ही बना रहा है. नारी की हसरतें, आकांक्षाएं, एक चिता बनकर सदा सुलगती ही रही हैं. उसकी आँखें सूनी कामनाओं की आस में, केवल पथराकर ही रह गई हैं. होंठ प्यासे रह-रहकर सूख़ चले हैं. बदन लाश बनकर मजबूरन जीता आया है. उसका दिल मानो दुनियां के सारे दुखों और गमों को जैसे एकत्रित करने का संकल्प लिए बैठा है, जबकि सावित्री, शकुन्तला और मदर मरियम जैसी मिसालें आज भी ऐसी न जाने कितनी 'भारत की रचनाएँ' क्षतिग्रस्त होती होंगी? वे अपनी मजबूर हसरतों की अर्थी पर, उजाड़ कामनाओं के फूल रखती रहेंगी. भारत जैसे महान देश का संसदीय तंत्र-मंडल न जाने कब तक ऐसी अनैतिकताओं पर अपनी आँखें बंद किये हुए पड़ा रहेगा? कब वह इस बारे में सचेत होगा- कौन जाने?

      

       समय गुज़रता रहा.

तारीखें बदल गईं. बढ़ते हुए वक्त के लबादों में रचना की बात मुक्तेश्वर के डिग्री कॉलेज में, हरेक व्यक्ति के होंठो की चर्चा से परिणित होकर दिलों की जुंबिश बन गई. कॉलेज का वातावरण थोड़े समय की हलचल मचाकर फिर से शांत हो गया. रचना की सजा के दो माह के पश्चत ही भारत कॉलेज वापस आ गया था. साथ ही रामकुमार वर्मा भी एक निर्दोष छात्रा को सजा की बेड़ियों में जकड़वाकर फिर से कॉलेज के चक्कर काटने लगा था. अदालत की तरफ से वह बा-इज्ज़त बरी कर दिया गया था. पुलिस भी उसके विरोध में कोई ठोस सबूत एकत्रित नहीं कर सकी थी. अपने पैसों की धमा-चौकड़ी के सबब से वह फिर से अपनी कक्षा का छात्र बनकर कक्षा में बैठने लगा था. ये और बात थी कि, अब कोई भी छात्र और छात्रा, चाहे उसको पसंद न करते हों, मगर कक्षा में उसकी हैसियत एक छात्र जैसी ही थी. चाहे उसके सब ही साथी उसको खूब ही पसंद करते हों, परन्तु कक्षा की अन्य छात्राओं के चेहरों से देखते ही लगता था कि, मन-ही-मन उसको कोई भी पसंद नहीं करता था. ज्योति और उसकी अन्य सहेलियाँ तो उसकी तरफ जैसे देखना भी नहीं चाहती थीं. खुद, ज्योति तो उसकी शक्ल ही देखकर खीज-सी जाती थी. इसका कारण भी यही था कि, रचना की गिरफ्तारी और जेल की सजा होने के पश्चात रामकुमार वर्मा अपने शालीनता के आवरण में एक कठोर और धोखेबाज़ भेदिया साबित हो चुका था.

       भारत कॉलेज आ गया, तो जाने क्यों रचना की सहेली ज्योति को मन-ही-मन प्रसन्नता हो गई. मगर भारत कॉलेज आकर भी, स्वयं खुश नहीं हो सका. स्वास्थ्य की दृष्टि से, अपने शरीर से वह काफी दुबला भी नज़र आने लगा था. इतना ही नहीं, वह दिल से परेशान, थका-थका, उदास नज़र आता था. यूँ, वैसे तो उसकी प्राय: खामोश और चुप रहने की आदत थी; परन्तु साथ में उस पर अपने पिता के कार्य की जिम्मेदारी भी आ गई थी- ऐसी परिस्थिति में वह चंचल मुस्कानों के साथ जी भी कैसे सकता था? किस तरह वह खुद को समझा पाता? जैसे-तैसे वह मन मारकर अपना ध्यान अध्ययन में लगाने लगा था. आखिर अध्ययन तो करना ही था- किसी-न-किसी तरह से, बगैर अध्ययन और शिक्षा के जीवन भी किस प्रकार कट सकता था?

       ज्योति, भारत को प्रतिदिन ही कॉलेज की लम्बी गैलरी में खड़ा हुआ पाती. उसे देखती और उसके मन की दशा को समझती भी, परन्तु फिर भी स्वयं अपनी ओर से उससे कुछ भी कहने और पूछने का साहस नहीं कर पाती थी. भारत की पहले-पहले दिन किसी को तलाशती हुई आँखों को देखकर ही वह समझ गई थी कि वह अभी तक रचना को भूला नहीं है. वह प्रतिदिन ही उसके आने की राह देखा करता है. इसीलिये वह अब भी गैलरी में अपने निश्चित स्थान और निर्धारित समय पर खड़ा होकर रचना की प्रतीक्षा किया करता है. शायद, अपने दुःख का मारा, प्रतिदिन ही रचना को तलाशता, उसे ढूंढता और जब नहीं पाता, तो निराश होकर चुपचाप कक्षा में बैठ जाता था. अलग-थलग-सा, कभी वह कक्षा में आता, कभी नहीं भी. जब भी आता, तो चुपचाप कक्षा में एक कोने में बैठ जाता. फिर, कब कौन आता? क्या पढ़ाता? कब चला भी जाता? अपनी सोचों और विचारों में उलझे हुए भारत को कुछ ध्यान ही नहीं रह पाता था.

       मुक्तेश्वर के इस कॉलेज में, न तो उसका कोई मित्र ही था, और न ही कोई संगी-साथी; वह बात भी किससे करता? जब भी वह कक्षा में नहीं आता, तो अधिकाँश समय लाइब्रेरी में ही बैठा रहता. वहां मन नहीं लगता तो कैंटीन में चला जाता और बैठा-बैठा चाय के प्याले ही गले से नीचे उतारता रहता. फिर, जब वहां से भी मन भर जाता, तो कॉलेज के गार्डन में, कहीं भी अकेले स्थान में जाकर बैठ जाता. बैठ जाता, तो फिर बैठकर सोचने भी लगता था. सोचता था, कुछ अपने बारे में, कुछ अपने भविष्य के बारे में, और कुछ-कुछ उस अनोखी, दुबली-पतली, खुबसूरत, खामोश लड़की रचना के बारे में, जो संयोग से ही उसको इसी कॉलेज में मिल गई थी और अब न जाने कहाँ पर जाकर लुप्त भी  हो गई थी? रचना जब उसे मिली थी, तब वह उसे प्राय: ही परेशान नज़र आई थी. परन्तु, अब वह खुद ही छिप गई थी और उसे भी परेशान कर गई थी. वह सोचता था कि, पहले तो रचना, सदैव ही समय पर कॉलेज आया करती थी और अब क्यों नहीं आती? उसकी सहेली ज्योति तो आती है? परन्तु. . .रचना? वह क्यों नहीं आ रही है?

-क्रमश