The village evenings in Hindi Philosophy by Akash Singh books and stories PDF | गाँव की वो शामें

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गाँव की वो शामें

शाम का समय वैसे तो हर जगह का प्यारा होता है,
लेकिन गाँव की शामों की बात ही कुछ और होती है।

गाँव में शाम होती नहीं, उतरती है —
धीरे-धीरे, बिल्कुल नीम के पत्तों पर ओस की बूंदों जैसी।

जब सूरज ढलता था, और आसमान सुनहरे से नारंगी रंग में रंग जाता था,
तब ऐसा लगता था जैसे पूरा गाँव अपनी थकान को एक सादी-सी मुस्कान में लपेटकर आराम करने जा रहा हो।

खेतों से लौटते किसान, बैलों की गले की घंटियाँ, और बगल के तालाब से आती मेंढकों की टर्र-टर्र...
ये सब मिलकर एक ऐसा संगीत रचते थे, जिसमें न लय की कमी होती थी, न सुकून की।

हम बच्चे उस समय सबसे ज़्यादा खुश रहते थे।
ना होमवर्क की चिंता, ना ट्यूशन का टेंशन।
बस मिट्टी से सने पाँव, धूल से भरे कपड़े और चेहरे पर वो मुस्कान जो बिना किसी कारण के होती थी।
तब न मोबाइल था, न वीडियो गेम।
फिर भी हर शाम में रोमांच था।

गली के मोड़ पर वो पुराना पीपल का पेड़,
जिसकी जड़ें उखड़-उखड़ कर रास्ते तक आ गई थीं,
हमारी बैठकी का अड्डा था।

कभी वहां ताश के पत्ते बिछते, कभी गिल्ली-डंडा चलता,
और कभी बस यूँ ही बैठकर सपनों की बातें होतीं—
“मैं बड़ा होकर पुलिस बनूंगा…”
“मैं तो शहर जाकर बड़ा अफसर बनूंगा…”

तब सपने भी सच्चे लगते थे, क्योंकि उन्हें कोई तोड़ने वाला आसपास नहीं था।

घर लौटने का समय जब होता, तो दादी की आवाज़ आती,
“अरे आकाश! अब घर भी आ जाओ, अंधेरा हो गया है।”
उनकी आवाज़ में डाँट नहीं, प्यार होता था।
वो प्यार जो अब शायद व्हाट्सएप के स्टेटस में भी न दिखे।

चूल्हे पर माँ रोटी सेंकती थी, और साथ में कोई पुरानी लोककथा सुनाती थी।
हम चुपचाप सुनते जाते, और हमें लगता था कि हम किसी किताब से नहीं,
ज़िंदगी से सीख रहे हैं।

अब शहर में हूँ।
यहाँ की शामें तेज़ हैं,
इतनी तेज़ कि कब आती हैं और कब बीत जाती हैं, पता ही नहीं चलता।

यहाँ का सूरज भी जल्दी डूबता है,
और मन की उदासी जल्दी चढ़ जाती है।

यहाँ हर कोई भाग रहा है —
कभी मेट्रो की तरफ, कभी टाइम पर ऑफिस पहुँचने के लिए,
कभी सिर्फ इसलिए कि सब भाग रहे हैं।

पर गाँव...
गाँव में ज़िंदगी रुक-रुक कर चलती थी,
ठहर-ठहर कर मुस्कराती थी।

अब जब कभी गाँव जाता हूँ,
तो सब कुछ वैसा नहीं रहा,
कई चेहरे नहीं मिलते, कई पेड़ कट चुके हैं,
और वो पुराना पीपल अब सिर्फ एक याद बन गया है।

पर जब शाम होती है,
और दूर से ढोल की थाप, किसी भजन की आवाज़,
या किसी चूल्हे की खुशबू आती है,
तो लगता है —
गाँव अब भी वहीं है, दिल के किसी कोने में।
ज़िंदगी जितनी तेज़ होती जा रही है, उतना ही हम अपने सुकून से दूर होते जा रहे हैं।
गाँव की शामें सिर्फ एक समय नहीं थीं, वो एक एहसास थीं — जो अब भी कहीं अंदर ज़िंदा है।आज भी जब थक कर सोफे पर गिरता हूँ,
तो आँखें वहीं चली जाती हैं —
गाँव के उस आँगन में,
जहाँ माँ तुलसी में पानी देती थी और
दादी रामायण पढ़ा करती थी।
शहर की चमक में सब कुछ है,
पर जो बात गाँव की शामों में थी,
वो किसी मॉल, किसी कैफे,
या किसी एयरकंडीशनर कमरे में नहीं मिलती।वहाँ रिश्ते सच्चे थे, मुस्कानें दिल से निकलती थीं।