Tulsidas Ji in Hindi Spiritual Stories by Ankit books and stories PDF | तुलसीदास जी

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तुलसीदास जी

संत तुलसीदास 

तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त, तथा समाज-सुधारक तीनो रुपो मे मान्य है। इनके पिता का नाम आत्माराम दूबे और माँ का नाम हुल्सिदेवी था। बारह महीने गर्भ मे रहने के पश्चात गोस्वमी तुलसिदास का जन्म हुआ। प्रचलित जनश्रुति के अनुसार शिशु बारह महीने तक माँ के गर्भ में रहने के कारण अत्यधिक हृष्ट पुष्ट था और उसके मुख में दाँत दिखायी दे रहे थे। जन्मते समय बालक तुलसीदास रोये नहीं बल्कि इनके मुख से “राम” शब्द निकला जिससे इनका नाम रामबोला पड़ गया। इनका शरीर डील-डौल पांच वर्ष के बालक सा था। इस प्रकार के अद्भुत बालक को देखकर पिता अमंगल की शंका से भयभीत हो गये और उसके संबंध मे कई प्रकार की कल्पना करने लगे। माता हुल्सी को यह देखकर बढी चिंता हुई उन्होने बालक के अनिष्ट की आशंका से दशमी की रात को नवजात शिशु को अपनी दासी के साथ उसके ससुराल भेज दिया और कुछ दिनो बाद स्वयं इस असार संसार से चल बसी। दासी ने जिसका नाम चुनिया था बढे प्रेम से बालक का पालन पोषण किया जब तुलसीदास लगभग साढे पाँच वर्ष के हुए चुनिया का भी देहांत हो गया अब तो बालक अनाथ हो गया। वह द्वार-द्वार भटकने लगा। जगज्जननी माता पार्वती को उस होंनहार बालक पर दया आई। वे ब्राह्मणी का वेश धारण कर प्रतिदिन उसके पास जाती और उसे अपने हाथो से भोजन करा आती। इधर भगवान शंकर की प्रेरणा से श्रीनरहरी जी ने इस बालक को ढूँढ निकाला और इन्हे अपने आश्रम मे ले आये और वही इन्हे संस्कृत का ज्ञान भी देने लगे। साथ ही साथ श्रीरामचरित रामायण का भी पाठ कराने लगे।


कुछ समय के बाद ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी गुरुवार संवत 1583 को राजापुर से थोढी ही दूर यमुना के उस पार स्थित एक गाँव की अति सुंदर कन्या रत्नावती के साथ इनका विवाह हुआ। ये अपनी पत्नि से बहुत प्रेम करते थे और इतने आसक्त थे कि अपनी पत्नि को मायके भी नही जाने देते थे। यदि कोई लेने भी आता तो मना कर देते थे। एक बार तुलसीदास घर पर नही थे। इनकी पत्नि के भाई इन्हे लेकर चले गये। जब तुलसीदास घर आये तो इनका मन घर पर नही लगा और चल दिये अपनी पत्नि को लेने के लिये।

कोई होश नही है, अंधेर तुफानी रात है लेकिन बस पत्नि से मिलना है। जैसे-तैसे इन्होंने यमुना नदी तैरकर पार की और पहुंचे। घर का दरवाजा कैसे खटखटाये आदीरात का समय है, एक रस्सी देखी उसे पकड़ कर ऊपर चड़ गये। किवदंतीया है कि वो रस्सी नही साँप था इन्हे इतना भी होश नही था कि क्या कर रहे है और अचानक से कूदकर अपनी पत्नी के पास चले गये। रत्नावती इतनी रात गये अपने पति को अकेले आया देखकर आश्चर्य चकित हो गई उसने लोक लज्जा के भय से जब उन्हे चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आग्रह करने लगे। तुलसीदास कहने लगे कि मै आपसे प्रेम करता हूँ आपके बिना नही रह सकता।'
तभी रत्नावती ने एक बात कह दी “हे मेरे पतिदेव आपके प्रेम को धिक्कार है, आपको लाज नही आती कि मेरे पीछे-पीछे, दौढे-दौढे आ गये, मेरे इस हाड़मांस के शरीर मे जितनी तुम्हारी आसक्ती है उससे आधी भी यदि श्रीराम मे होती तो भव सागर से बेड़ा पार हो जाता।”
बस आज तुलसीदास को ये शब्द मन को लग गये और चल दिये रामजी को पाने। अब सोच लिया है प्रेम होगा तो मेरे रघुवर से होगा। नही तो किसी से नही होगा।

पत्नि परिवार सब छोड़कर ये चित्रकुट चले गये। वहा कई दिनो तक उपवास करते रहे और राम नाम का अविरल जाप करते रहे। भगवान राम की इन्हे अनुपम लालसा थी। वहा ये प्रतिदिन एक वृक्ष पर एक लौटा पानी डालते थे जिसमे एक प्रेत निवास करता था। अचानक एक दिन इनकी राम भक्ति और इनके हाथो के स्पर्श जल से उस वृक्ष मे स्थित प्रेत की मुक्ती हो गई। जाते समय उसने इन्हे कुछ देना चाहा पर तुलसीदासजी ने उस प्रेत से केवल श्रीराम दर्शन की आश ही व्यक्त की। उसने कहा कि हम अधोगती मे रहने वाले जीव उस परमेश्वर को देख नही पाते। पर श्री हनुमानजी यही इसी धरा पर घूमते रहते है। जहा श्रीराम कथा होती है वहा वे अवश्य जाते है। आप इसी चित्रकुट मे रामकथा मे जाये। वहा जो सबसे पीछे कोड़ी के रुप मे बैठते है वो श्री हनुमानजी ही है। आप श्रद्धा भक्ति से उनकी शरण जाईये और उनके चरणो को तब तक ना छोड़येगा जब तक वे आप को अपने दर्शन ना दे। ऐसा ही हुआ गोस्वामी जी ने रामकथा मे छिपे श्रीहनुमान को पहचान लिया और उनका अनुपम दर्शन प्राप्त किया तथा श्रीहनुमानजी से प्रभु श्रीराम के दर्शन की आशा व्यक्त की। हनुमानजी ने कहा “तुम्हे चित्रकुट मे रघुनाथ जी के दर्शन होंगे।” इस पर तुलसीदासजी चित्रकुट की और चल पढे। चित्रकुट पहुचकर रामघाट पर उन्होने अपना आसन जमाया एक दिन वे प्रदक्षिणा करने निकले ही थे कि यकायक मार्ग मे उन्हे श्रीराम के दर्शन हुए उन्होने देखा की दो बढे ही सुंदर राजकुमार घोड़ो पर सवार होकर धनुष बाण लिये जा रहे है। तुलसीदास उन्हे देखकर मुग्ध हो गये परंतु उन्हे पहचान न सके। तभी पीछे से आकर हनुमान जी ने उन्हे सारा भेद बताया तो वे पश्चताप करने लगे इस पर हनुमान जी ने उन्हे सांत्वना दी और कहा “प्रात: काल फिर दर्शन होंगे।” 

संवत 1607 की मौनी अमावस्या को बुधवार के दिन उनके सामने भगवान श्रीराम पुन: प्रकट हुए उन्होंने बालक रूप मे आकर तुलसीदास से कहा “बाबा! हमे चंदन चाहिये। क्या आप हमे चंदन दे सकते है?”
हनुमानजी ने सोचा कही ये इस बार भी धोखा न खा जाये, इसलिये उन्होंने तोते का रूप धारण करके यह दोहा कहा
“चित्रकुट के घाट पर, भई सन्तन की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसे, तिलक देत रघुवीर।।”
तुलसीदास श्रीरामजी की उस अद्भुत छवि को निहारकर अपने शरीर की सुध-बुध ही भुल गये। अंततोगत्वा भगवान ने स्वयं अपने हाथ से चंदन लेकर चंदन अपने तथा तुलसीदासजी के मस्तक पर लगाया और अन्तर्ध्यान हो गये।

संवत् 1628 मे ये हनुमानजी की आज्ञा से अयोध्या की और चल पड़े उन दिनों प्रयाग मे माघमेला था। वहा कुछ दिन वे ठहर गये। पर्व के छ: दिन बाद एक वटवृक्ष के नीचे उन्हे भरद्वाज और यज्ञवल्क्य मुनि के दर्शन हुए वहा उस समय वही कथा हो रही थी जो उन्होने सुकर क्षेत्र मे अपने गुरू से सुनी थी। वहा से ये काशी चले आये और वहा प्रहलाद घाट पर एक ब्राह्मण के घर निवास किया। वहा उनके अंदर कवित्व शक्ति का स्फुरण हुआ और वे संस्कृत मे पद्य रचना करने लगे परंतु दिन मे वे जितने पद्य रचते, रात्री मे वे सब लुप्त हो जाते यह घटना रोज़ घटती। आंठवे दिन तुलसीदासजी को स्वप्न हुआ। भगवान शंकर ने उन्हे आदेश दिया कि तुम अपनी भाषा मे काव्य रचना करो। तुलसीदासजी की नींद ऊचट गई वे उठकर बैठ गये और उसी समय भगवान शिव और माता पार्वती उनके सामने प्रकट हुए तुलसीदासजी ने उन्हे साष्टांग प्रणाम किया शिवजी ने कहा “तुम अयोध्या मे जाकर रहो और हिंदी मे काव्य रचना करो। मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान फलवती होंगी।” इतना कहकर गौरिशंकर अन्तर्ध्यान हो गये। तुलसीदासजी उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर काशी से अयोध्या चले आये। 

संवत् 1631 का प्रारंभ हुआ उस साल रामनवमी के दिन प्राय: वैसा ही योग था जैसा त्रेतायुग मे रामजन्म के दिन था। उस दिन प्रात:काल तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारंभ की  2 वर्ष, 7 महीने, 26 दिन मे ग्रंथ की समाप्ति हुई संवत् 1633 के मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष मे राम विवाह के दिन सातो कांड पूर्ण हो गये। इसके बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदासजी काशी चले आये। वहा उन्होने भगवान विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्रीरामचरितमानस सुनाया। रात को पुस्तक श्री विश्वनाथजी के मंदिर मे रख दी गई। सबेरे जब पट खोला गया तो उस पर लिखा हुआ पाया गया “सत्यं शिवं सुन्दरं” और नीचे भगवान शंकर के हस्ताक्षर थे। उस समय उपस्थित लोगो ने सत्यं शिवं सुन्दरं की आवाज़ भी सुनी। इधर पंडितो ने जब यह बात सुनी तो उनके मन मे ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदासजी की निंदा करने लगे। उन्होने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरो ने जाकर देखा कि तुलसीदासजी की कुटी के आसपास दो वीर धनुष-बाण लिये पहरा दे रहे है। वे बड़े ही सुंदर, श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरो की बुद्धि शुद्ध हो गई। उन्होने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन मे लग गये। तुलसीदासजी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटि का सारा सामान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहा रख दी। इसके बाद उन्होने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपिया तैयार की जाने लगी। पुस्तक का प्रचार दिनो दिन बड़ने लगा। इधर पंडितो ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसुदन सरस्वतीजी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसुदन सरस्वतीजी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मती लिख दी:
(हिंदी भावार्थ)— “इस काशीरूपी आनंद वन मे तुलसीदास चलता फिरता तुलसी का पौधा है। उसकी कवितारूपी मंजरी बड़ी ही सुंदर है। जिस पर श्रीरामरूपी भंवरा सदा मंडराता रहता है।” 
पंडितो को इस पर भी संतोष नही हुआ तब पुस्तक की परीक्षा का एक उपाय ओर सोचा गया। भगवान विश्वनाथजी के सामने सबसे ऊपर वेद, उसके नीचे शास्त्र, शास्त्रो के नीचे पुराण और सबके नीचे श्रीरामचरितमानस रख दिया गया और मंदिर बंद कर दिया गया। प्रात:काल जब मंदिर खोला गया तो लोगो ने देखा की श्रीरामचरितमानस वेदो के ऊपर रखा हुआ है। अब तो पंडित लोग बढे लज्जित हुए उन्होंने तुलसीदासजी से क्षमा माँगी और भक्ति से उनका चरणोदक लिया। 

तुलसीदासजी अब उसी घाट पर रहने लगे। रात को एक दिन कलियुग मुर्तरुप धारण कर उनके पास आया और उन्हे त्रास देने लगा। गोस्वामीजी ने हनुमानजी का ध्यान किया। हनुमानजी ने उन्हे विनय के पद रचने को कहा। इस पर गोस्वामीजी ने विनय पत्रिका लिखी और भगवान के चरणो मे उसे समर्पित कर दी श्रीराम ने उस पर अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदासजी को निर्भय कर दिया।

संवत् 1680 श्रावन कृष्ण तृतीया, शनिवार को असीघाट पर गोस्वामीजी ने राम-राम जपते हुए अपने शरीर का परित्याग कर दिया।