डॉ. मयूर अभी फोन पर रुशाली की माँ से बात कर ही रहे थे जब उन्होंने ये सुना—
"रुशाली अभी सो रही है बेटा, उसे उठाने ही जा रही थी। आज तो वापस अस्पताल जॉइन कर रही है ना..."
इतना सुनते ही मयूर सर के होंठों पर एक राहत भरी मुस्कान आ गई।
फोन रखते ही वो तेजी से बिस्तर से उठे, जैसे किसी ने उनके अंदर नई जान फूंक दी हो।
मन में एक ही तमन्ना थी —
"रुशाली को अपनी आँखों से देख सकूं, ये यकीन कर सकूं कि वो सही सलामत है…"
मयूर सर जल्दी से तैयार हुए।
आज उन्होंने बिना ज़्यादा सोचे वही white शर्ट पहनी जो अक्सर रुशाली की पसंद कही जाती थी।
आईने में खुद को देखते हुए उन्होंने मन ही मन कहा:
"ये जो सपना देखा,
वो महज़ एक सपना नहीं था,
वो एक इशारा था शायद,
कि अब कुछ कहना ज़रूरी हो गया है..."
पर एक सवाल बार-बार दिल में घूम रहा था —
"अगर मैंने अपनी फीलिंग्स नहीं बताई,
और रुशाली सपने की तरह मुझसे दूर हो गई,
तो क्या मैं जी पाऊँगा?"
ये सोचते-सोचते मयूर सर कार में बैठे और रुशाली के घर की ओर निकल पड़े।
हर मोड़ पर, हर रेड लाइट पर उन्हें वही सपना याद आ रहा था।
कार में सिर्फ़ इंजन की आवाज़ थी और मयूर के दिल की धड़कनें।
"ये जो डर है,
ये सच्चाई से भी ज़्यादा भारी लग रहा है।
रुशाली मुझसे दूर हो जाए,
ये सोचकर ही साँसे थम जाती हैं।
लेकिन उस सपने ने जो हलचल उसके दिल में मचाई थी,
वो अब बर्दाश्त के बाहर थी।
जैसे ही मयूर सर की गाड़ी रूशाली के घर के सामने रुकी,
उनका दिल और तेज़ धड़कने लगा।
रुशाली की माँ बाहर आईं:
"रुशाली बेटा, मयूर आ गए हैं! जल्दी बाहर आओ।"
मयूर सर का दिल उछल पड़ा।
आँखें दरवाज़े की ओर टिक गईं।
अगले ही पल दरवाज़ा खुला और रुशाली सामने आई।
मयूर सर ने बिना कुछ सोचे दौड़ लगाई और रुशाली को कसकर गले से लगा लिया।
मयूर सर(काँपती आवाज़ में):
“तुम ठीक तो हो?
मैं बहुत डर गया था रुशाली…
अब मैं तुम्हें खुद से दूर नहीं जाने दूँगा…”
लेकिन तभी…
रुशाली :
"मयूर सर...? सर...?"
मयूर सर की आँखें खुलीं।
हकीकत में न तो कोई गले लगाना हुआ था,
न कोई इमोशनल सीन।
वो तो बस मन में सोच बैठे थे,
ख्यालों की दुनिया में।
सामने खड़ी रुशाली मुस्कुरा रही थी।
रुशाली (हँसते हुए):
"गुड मॉर्निंग सर! कैसे हैं आप?"
मयूर सर (थोड़ी झेपते हुए, धीमे स्वर में):
“गुड मॉर्निंग… शायद मैं सोच में था...”
उनकी आँखें भीगी थीं, पर आँसू नहीं बह सकते थे —
क्योंकि सामने रुशाली खड़ी थी, बिल्कुल ठीक-ठाक।
दोनों कार में बैठे।
मयूर सर ड्राइव कर रहे थे और रुशाली खिड़की से बाहर देख रही थी।
कुछ मिनटों की खामोशी के बाद रुशाली ने अचानक कहा—
रुशाली:
“मुझे पता चल गया आप आज मुझे लेने क्यों आए…”
मयूर सर (हैरानी से):
“क्या? मतलब… तुम्हें कैसे पता चला?”
रुशाली (मुस्कुराते हुए):
“आपको पछतावा हो रहा है ना?
आपके जन्मदिन पर आपने जो मुझसे रूड बिहेव किया था,
आपको लगा मैं शायद नाराज़ होकर वापस न आऊँ।
इसलिए मुझे लेने आ गए।”
मयूर सर (हल्की साँस लेते हुए):
“हां… वो ही बात थी…”
रुशाली:
“सर… मेरा एक सवाल है…
जो आप जानते हैं…
और मुझे उसका जवाब चाहिए…”
इतना कहकर वो चुप हो गईं।
मयूर सर कुछ कहने ही वाले थे कि अस्पताल आ गया।
और उन्होंने चुपचाप गाड़ी पार्क कर दी।
रुशाली उनके इस चुप्पी से थोड़ा आहत हुईं।
रुशाली (मन में):
"मतलब ये क्या था? मैंने सवाल पूछा…
और इन्होंने अनसुना कर दिया?
या सुनकर भी जवाब देने की ज़रूरत नहीं समझी?"
जैसे ही वो दोनों अंदर गए, डॉक्टर कुणाल मिल गए।
डॉ. कुणाल:
“हाय रुशाली! कैसी हो ?”
रुशाली:
“ठीक हूँ सर। धन्यवाद।”
डॉ. कुणाल (मुस्कुराकर):
“तो फिर, एग्ज़ाम कैसे रहे?”
रुशाली (हँसते हुए, पर तंज में):
“अच्छे रहे।
आपको याद रहा मेरे एग्ज़ाम थे, इसके लिए धन्यवाद।
वरना यहाँ किसी को शायद पता ही नहीं था…”
रुशाली ने ये कहते हुए एक नज़र मयूर सर की ओर फेंकी।
मयूर सर सब सुन रहे थे।
उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान थी।
मयूर सर (मन में):
"ये लड़की जितनी सुलझी लगती है, उतनी है नहीं... और मेरे सामने तो जैसे मासूम बच्ची बन जाती है। कैसे न चाहूँ इसे...?"
मयूर सर और रुशाली दोनों उनके केबिन पहुँचे।
कई दिन की फाइलें पड़ी थीं।
मयूर सर:
“ये लीजिए, आपका pending work..”
रुशाली ने फाइल खोली तो पहले पन्ने पर लिखा था:
"Welcome back to hospital, Rushali....."
रुशाली (हैरान होकर):
"ये क्या है…?"
मयूर सर(शरारती मुस्कान के साथ):
"क्या? अच्छा नहीं लगा क्या?"
फिर थोड़ी देर बाद बोले:
"चलो, अब बताओ… कैसा रहा तुम्हारा एग्ज़ाम?"
और रुशाली, जो कुछ पल पहले तंज कस रही थी,
एकदम से पहले वाली चहकती हुई रुशाली बन गई।
रुशाली (मुस्कराते हुए):
“अरे सर! एक पेपर तो ऐसा था कि समझ ही नहीं आया,
दूसरा इतना आसान कि जैसे आप पूछ रहे हों।
और एक पेपर में तो बगल वाली लड़की ने मुझसे कुछ पूछना चाहा…
पर मैंने कुछ बताया ही नहीं…”
मयूर सर उसे सुनते रहे, मुस्कुराते रहे।
"इसी रशाली को मिस कर रहा था मैं...
जो बच्चों जैसी बातें करती है…
और बिना कुछ कहे दिल छू जाती है..."
बातों के बीच मयूर सर बोले—
मयूर सर:
“रुशाली… मुझे पता है तुम्हारा सवाल क्या है।
मैं सुन रहा था… लेकिन जवाब मैं जल्द दूँगा।”
रुशाली (थोड़ी चौंककर):
“तो आपने सुना था?
मुझे लगा आपने अनसुना कर दिया या शायद सुना ही नहीं…”
(चेहरे पर हल्की नाराज़गी)
मयूर सर (धीरे से मुस्कुराते हुए):
“रुशाली… मैं शायद तुरंत रिएक्ट न करूं,
लेकिन मैं हर बार सुनता हूँ तुम्हें।
थोड़ा धैर्य रखो। तुम मुझे जानती हो ना, फिर ये सवाल क्यों?”
रुशाली:
"तो आप भी अब मुझे जान ही गए होंगे... मैं सोचती बहुत हूँ। आप जवाब ना दें तो दिमाग हज़ार कहानियाँ बना लेता है।"
(थोड़ी मासूमियत के साथ)
मयूर सर (हँसते हुए):
“ठीक है, अब से तुम्हें जवाब देने की कोशिश करूँगा…
तुरंत और साफ…
खुश?”
रुशाली (मुस्कराकर):
“बहुत…”
सब कुछ वैसा ही था, जैसा पहले था — पर फिर भी कुछ अलग था।
"कुछ रिश्ते सवालों में नहीं,
खामोशियों में पलते हैं।
कुछ चाहतें लफ्ज़ों की मोहताज नहीं,
आंखों में ही बयां हो जाती हैं।
लेकिन एक दिन वो लम्हा ज़रूर आएगा,
जब दिल की हर बात ज़ुबां पर होगी…"
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दोनों के बीच की दोस्ती फिर से वैसी ही हो गई — खुली, प्यारी, और सच्ची।
रुशाली के सवाल का जवाब अभी बाकी था, और मयूर सर के दिल की दीवारें अब टूटने को थीं।
(जारी है...)