छाया: भ्रम या जाल?
भाग 1
शहर के शोर-शराबे से बहुत दूर, एक शांत और आधुनिक अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स की नौवीं मंजिल पर, छाया ने अपनी ज़िंदगी की एक नई पारी शुरू की थी. कंक्रीट के इस जंगल में, उसका नया 2BHK फ्लैट था। पिछले कुछ महीनों का अथाह तनाव, अपने पूर्व-प्रेमी, रोहित के साथ का कड़वा ब्रेकअप, और फिर पुरानी यादों से भरे घर को छोड़कर आना – इन सब के बाद उसे यह सुकून और शांति बेहद ज़रूरी लगी थी. उसने अपनी छोटी सी बालकनी को कुछ रंगीन गमलों से सजाया था, जहाँ से सुबह की पहली किरणें और शाम की मंद धूप उसके मन को एक अजीब सी ठंडक और शांति पहुँचाती थी. ये पल उसके लिए थे, जब वह खुद को इस दुनिया की उलझनों से दूर पाती थी.
छाया पेशे से एक छोटे बच्चों की स्कूल टीचर थी. उसकी दुनिया नन्हे-मुन्नों की मासूम किलकारियों, इंद्रधनुषी रंगों और परी कथाओं से भरी रहती थी. क्लासरूम में उसका दिन हंसते-खेलते, बच्चों को ABC और 123 सिखाते हुए, उनकी कहानियाँ सुनते और उन्हें अपनी कहानियाँ सुनाते हुए बीतता था. वह अपने स्वभाव से थोड़ी बिखरी हुई थी – किताबें कभी सोफे पर, तो कभी बिस्तर पर अधखुली पड़ी रहतीं, कपड़े अलमारी के बजाय कुर्सी पर लटके रहना उसकी आदत थी. 'कल कर लूंगी' उसका पसंदीदा तकियाकलाम था, और ईमानदारी से कहूँ तो उसे इस मामूली अव्यवस्था से कोई परेशानी नहीं थी. यह उसकी 'छाया-नेस' का एक अभिन्न हिस्सा था, जो उसे सुकून देता था कि वह अपनी शर्तों पर जी रही है.
नए अपार्टमेंट में आए उसे लगभग दो हफ़्ते हो चुके थे. शुरुआती हिचकिचाहट और सामान जमाने की भागदौड़ के बाद, अब उसे यहाँ घर जैसा महसूस होने लगा था. उसकी ज़िंदगी एक स्थिर और सुखद गति में लौट रही थी. एक शाम, स्कूल से लौटने के बाद, थकान से चूर होकर उसने अपनी पसंदीदा गरमा-गरम कॉफ़ी बनाई. उसने अपने जूते दरवाज़े के पास ही उतारे, पर्स सोफे पर पटका, और अपनी जैकेट को बेड पर ही फेंक दिया. कुछ किताबें सोफे पर छोड़ दीं और आधी पढ़ी मैगजीन को किचन काउंटर पर लापरवाही से रख दिया. 'सुबह सब कर लूंगी,' उसने सोचा, और पल भर में गहरी नींद में सो गई. नींद उसके लिए एक ऐसा आश्रय था जहाँ वह दिन भर की थकान और मन की उलझनों से दूर रह सकती थी.
अगली सुबह, सूरज की हल्की, सुनहरी रोशनी उसके कमरे में फैल रही थी, खिड़की से आती चिड़ियों की चहचहाहट ने उसे जगाया. छाया अलसाते हुए उठी और कॉफ़ी बनाने किचन में गई. उसकी आँखें खुली की खुली रह गईं, जैसे किसी ने अचानक बिजली का झटका दिया हो. कल रात के झूठे बर्तन सिंक से गायब थे, और उनकी जगह डिश रैक में धुले हुए, चमकते बर्तन सलीके से रखे थे. किचन काउंटर पर लापरवाही से छोड़ी गई मैगजीन भी अब लिविंग रूम की कॉफ़ी टेबल पर बिल्कुल सीधी रखी थी, जैसे किसी ने उसे नाप-तोल कर रखा हो.
उसने माथा ठोका, अपने बालों में उंगलियाँ फेरते हुए. "शायद नींद में ही मैंने सब ठीक कर दिया होगा," उसने खुद से कहा. उसे अक्सर नींद में चलने की शिकायत नहीं थी, लेकिन उसने सुना था कि अत्यधिक तनाव में या नए माहौल में ऐसा हो सकता है. उसने इसे बस एक अजीब अनुभव मानकर ज़्यादा तवज्जो नहीं दी. एक पल के लिए उसे लगा कि शायद बिल्डिंग के स्टाफ ने सफाई की होगी, पर फिर उसने याद किया कि उसने किसी को सफाई के लिए नहीं बुलाया था, और उनका ऐसा कोई नियम भी नहीं था.
अगले कुछ दिन सामान्य रहे, पर उसके मन में एक हल्की सी बेचैनी बनी रही. स्कूल और घर के काम में वह फिर से व्यस्त हो गई. एक दोपहर, स्कूल के लिए निकलने से पहले, वह अपने पसंदीदा नीले रंग का टॉप ढूंढ रही थी. उसे याद था कि उसने उसे इस्त्री करके कुर्सी पर टांगा था, क्योंकि उसे अगले दिन बच्चों के साथ होने वाले पिकनिक में पहनना था. पर टॉप कुर्सी पर नहीं था. पूरी अलमारी छान मारी, पर टॉप नहीं मिला. "कहाँ गया होगा? मैं तो कभी चीज़ें इस तरह नहीं भूलती," वह बुदबुदाई, उसके माथे पर शिकनें गहराने लगीं. कुछ देर बाद, जब वह हड़बड़ी में बाथरूम में गई, तो देखा कि उसका नीला टॉप लॉन्ड्री बास्केट में सलीके से फोल्ड किया हुआ पड़ा है. 'लॉन्ड्री बास्केट में?' वह चकरा गई. उसे लगा कि शायद उसने ही उसे गलती से वहाँ डाल दिया होगा, पर जिस तरह से वह फोल्ड किया हुआ था, वह उसकी अपनी शैली नहीं थी. यह थोड़ा अजीब था, पर उसने फिर भी इसे अपने दिमाग़ से झाड़ दिया, यह सोचकर कि शायद तनाव उसे ज़्यादा भूलक्कड़ बना रहा है.
लेकिन अजीबोगरीब घटनाओं का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा था, बल्कि अब वह और भी स्पष्ट और परेशान करने वाला होता जा रहा था. उसकी किताबें, जो वह अक्सर पढ़ते हुए कहीं भी छोड़ देती थी – बिस्तर पर, सोफे पर, फर्श पर – अब हमेशा उसके स्टडी टेबल पर लेखक के नाम के अनुसार या विषय के क्रम से सलीके से रखी मिलती थीं. उसके जूते, जो अक्सर दरवाज़े के पास बिखरे रहते थे, अब शू रैक में बिल्कुल सीधी लाइन में रखे होते थे, जैसे किसी सैन्य अभ्यास के लिए तैयार हों. किचन में उसके मसाले के डिब्बे, जो बेतरतीब ढंग से फैले रहते थे, अब एक विशेष क्रम में रखे गए थे – छोटे से बड़े तक, या रंग के अनुसार. यह एक तरह की अजीबोगरीब 'व्यवस्था' थी जो उसके जीवन में घुसपैठ कर रही थी, और उसे इसका स्रोत समझ नहीं आ रहा था. यह व्यवस्था उसे सुकून नहीं दे रही थी, बल्कि धीरे-धीरे उसे पागल कर रही थी. उसे लगा जैसे कोई अदृश्य हाथ, बहुत ही धैर्य और सटीकता के साथ, उसके जीवन को व्यवस्थित कर रहा है, उसे 'ठीक' कर रहा है, उसकी आदतों को बदल रहा है. और यह एहसास उसे सुकून नहीं, बल्कि खौफ दे रहा था.
एक रात, वह अपने लिविंग रूम में बैठी, अपनी पिछली दो हफ़्तों की घटनाओं पर सोच रही थी. उसकी आँखें अपार्टमेंट के हर कोने में भटक रही थीं, जैसे किसी अदृश्य चीज़ की तलाश में हो. क्या वह सच में इतनी लापरवाह हो गई थी कि उसे अपनी ही हरकतें याद नहीं रहतीं? क्या वह 'गैसलाइट' हो रही थी, जहां कोई उसे अपनी ही वास्तविकता पर शक करने पर मजबूर कर रहा था? या उसके साथ कुछ और ही हो रहा था – कुछ ऐसा जो उसकी समझ से परे था? एक गहरी, ठंडी बेचैनी उसके भीतर घर कर रही थी, उसके पूरे वजूद को झकझोर रही थी.
उसे याद आया, अपार्टमेंट में शिफ्ट होने से पहले, उसके दोस्त ने मज़ाक में कहा था, "छाया, तुम्हें तो अपने घर के लिए एक पर्सनल 'साफ-सुथरा करने वाला भूत' चाहिए." अब उसे यह बात मज़ाक नहीं लग रही थी. उस अदृश्य 'व्यवस्थित करने वाले' की कल्पना ही उसे सिहरन दे रही थी. यह सिर्फ़ साफ़-सफाई नहीं थी; यह नियंत्रण था. और यह नियंत्रण एक ऐसी अनजानी शक्ति का था, जिसे वह न देख सकती थी, न छू सकती थी, न ही उससे लड़ सकती थी.
छाया ने खुद को समझाया कि उसे शांत रहना होगा. उसे इन घटनाओं का कोई तार्किक स्पष्टीकरण ढूंढना होगा. शायद वह ओवरथिंक कर रही थी, शायद नया माहौल उसे प्रभावित कर रहा था. लेकिन उसके मन का एक हिस्सा जानता था कि यह सब सिर्फ़ 'तनाव' या 'भूलने' से कहीं ज़्यादा था. उसके अपार्टमेंट की दीवारें, जो पहले उसे सुरक्षा देती थीं, अब उसे किसी अदृश्य कारागार की दीवारें लगने लगी थीं.
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