पृथ्वीराज सूरजमल के षड्यंत्र-पाश में
सूरजमल कुशल कूटनीतिज्ञ था, इसमें कोई संदेह नहीं। उसने युवराज पृथ्वी और कुँवर संग्राम सिंह के बीच हुए झगड़े की बात स्वयं महाराणा रायमल को बताई।
‘‘हमारे पुत्रों में सिंहासन को लेकर इतना वैमनस्य बढ़ गया कि दोनों एक-दूसरे के रक्त के प्यासे हो उठे।’’ महाराणा चिंतित और गंभीर स्वर में बोले, ‘‘और हमें इसकी भनक तक नहीं?’’
‘‘महाराज! यह वैमनस्य आज ही सामने आया है और ईश्वर की कृपा थी कि उस अवसर पर मैं उपस्थिति था, अन्यथा अनर्थ हो जाता।’’ सूरजमल ने चिंतित स्वर में कहा, ‘‘अब आज ही इस विषम परिस्थिति का कोई हल निकालें।’’
‘‘कुमार! यह बात उनके दिमाग में आई कहाँ से?’’
‘‘महाराज, दोनों कुमार अब किशोर हो गए हैं।’’ सूरजमल सतर्कता से बोला, ‘‘कोई संदेह नहीं कि अब वे राजकाज में रुचि लेने लगे हैं, फिर भी मेरे विचार से कल उत्सव में प्रजाजनों द्वारा कुमार संग्राम सिंह की प्रशंसा से कुमार पृथ्वी को कुछ शंका हुई और उन्होंने ऐसा कदम उठाया।’’
‘‘जो प्रशंसा के योग्य होगा, उसकी तो सारा संसार प्रशंसा करेगा। कुँवर संग्राम केवल वीर योद्धा ही नहीं, अपितु सदाचारी भी है।’’ महाराणा ने मुक्त कंठ से संग्राम सिंह की प्रशंसा की, ‘‘वह प्रजा के दुख-दर्द को समझनेवाला और अपने व्यवहार से शत्रुओं को भी मित्र बना लेनेवाला है। ऐसे योग्य और मृदुभाषी राजकुमार को प्रजा की प्रशंसा मिलती है तो इसमें आश्चर्य कैसा?’’
‘‘यही प्रशंसा ज्येष्ठ कुमार को असुरक्षा का आभास करा रही है।’’
‘‘और इसी कारण वह तुम्हारे पिता की भाँति अनीतिपूर्ण कार्य करने को उतारू है।’’
‘‘मेरे पिता ने जो किया, उसका दंड भी तो उन्हें कितना भयानक मिला है। मैं कभी भूल से भी, स्वप्न में भी उन्हें स्मरण नहीं करता। अपने कुल और मातृभूमि के प्रति दुष्कृत्य करनेवाले सदैव निंदित ही होते हैं।’’ सूरजमल ने महाराणा के प्रति सहमति प्रकट की, ‘‘मैं तो ईश्वर और आपका आभारी हूँ कि उचित समय पर आपका संरक्षण पा गया, अन्यथा कहीं मैं भी ऐसे ही कुल-कलंकित कार्य कर रहा होता।’’
‘‘तुम विद्वान् हो, हमें आशा है कि तुम मेवाड़ के विदुर बनोगे। जो इस समय चल रहा है, उचित नहीं है। अतः तुम भी दोनों कुमारों को उचित-परामर्श और मार्गदर्शन दो, जिससे कोई अनहोनी न हो जाए। हम किसी के भी अधिकार का हनन न होने देंगे। समय आने पर सभी को, तुम्हें भी, मेवाड़ साम्राज्य की सेवा का अवसर मिलेगा। हमारे पास इतनी विशाल सीमाएँ हैं कि हमारे सभी कुमार मिलकर उन्हें सँभाल सकते हैं।’’
‘‘मेरे लिए क्या आज्ञा है, महाराज?’’
‘‘कुँवर संग्राम सिंह पर तो हमें पूरा विश्वास है कि वह कोई अनुचित कार्य नहीं करेगा, परंतु ज्येष्ठ कुँवर की मानसिकता में ऐसा परिवर्तन हमें भयभीत कर रहा है। राजपूती रक्त में चढ़ती आयु की उग्रता ऐसी होती है कि उसका विवेक से संबंध कम ही रह जाता है। ऐसे समय में उचित मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। अतः हम कुमार पृथ्वीराज को कुछ समय के लिए गुरुदेव के आश्रम में भेजने की व्यवस्था करते हैं। निश्चय ही वहाँ उनके मन को शांति मिलेगी और कुविचारों का दमन होगा।’’
‘‘अति उत्तम विचार है, महाराज! जब सत्ता का लालच और अपनत्व का अभाव होने लगे तो गुरु की शरण में जाना ही श्रेष्ठ होता है। ज्येष्ठ कुँवर को आश्रम में जाने से अवश्य ही कुविचारों से मुक्ति मिलेगी।’’
‘‘अब यह कार्य तुम्हारा है कि तुम कुँवर पृथ्वीराज को किस प्रकार हरिद्वार जाने के लिए मनाओगे। उसे ऐसा न लगे कि हम उसे राज्य से दूर कर रहे हैं, अन्यथा वह और अधिक भड़क जाएगा।’’
‘‘यह कार्य मैं सफलतापूर्वक कर लूँगा। इस आयु में ऐसी नासामझी होना कोई बड़ी बात नहीं, परंतु इसका सफल उपाय भी किया जा सकता है। आपने बहुत सुंदर उपाय सोचा है। मेरी उद्विनता अब जाकर शांत हुई।’’ सूरजमल ने संतुष्टि की साँस लेते हुए कहा, ‘‘मुझे भय था कि कहीं इतिहास स्वयं को दोहराने तो नहीं जा रहा है? मेवाड़ ने पहले ही बहुत दुर्दिन देखे हैं।’’
‘‘निश्चिंत रहो।’’ महाराजा ने सांत्वना दी, ‘‘हमारे जीते जी कुछ भी अनुचित नहीं होगा।’’
सूरजमल ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, ‘‘अब मुझे आज्ञा दें।’’ सूरजमल वहाँ से उठकर चला आया और अपने कक्ष में आते ही विचारमग्न हो गया। अभी तक तो सबकुछ उसकी कुटिल योजना के अनुसार ही हो रहा था, परंतु महाराणा द्वारा पृथ्वीराज को हरिद्वार भेज देने से योजना में अवरोध उत्पन्न हो जानेवाला था और सूरजमल ऐसा कैसे होने दे सकता था? वह तत्काल पृथ्वीराज से मिला।
‘‘कुमार! तुम्हारी शंका सत्य सिद्ध हुई।’’ सूरजमल ने गंभीरता की प्रतिमूर्ति बनकर कहा, ‘‘मेवाड़ का उत्तराधिकार छोटे कुँवर को मिले, यह महाराज की भी इच्छा है। तुम्हारे पिता धृतराष्ट्र की भाँति पुत्रमोह के जाल में फँसे हैं। अब वे तुम्हें कुछ वर्षों के लिए गुरुदेव के आश्रम हरिद्वार भेजने का निर्णय ले चुके हैं। इसका अर्थ तुम समझते हो या मैं बताऊँ?’’
‘‘समझता क्यों नहीं?’’ पृथ्वीराज के मुख से तिक्त स्वर फूटा, ‘‘साधु-संगत में रहकर मैं भौतिकता से रिक्त हो जाऊँ, राज-पाट और वैभव-सुख की लालसा न रखूँ और संग्राम के महाराणा बनने का मार्ग निष्कंटक हो जाए। ऐसा ही कोई सरल उपाय जयमल का भी कर दिया जाएगा, लेकिन काका, मैं ऐसा नहीं होने दूँगा।’’
‘‘अब क्या करोगे कुँवर? महाराज के निर्णय के विरुद्ध जाना तो उचित नहीं होगा।’’
‘‘आपने ही कहा था कि समय आने पर उचित-अनुचित कुछ भी करके निर्णय को अपने पक्ष में करना ही वीरता है। इससे अधिक उत्तम समय कब आएगा...मैं हरिद्वार चला गया तो शेष क्या रह जाएगा?’’
‘‘परंतु क्या करोगे, कुछ मुझे भी तो पता चले?’’
‘‘जो काम चारणी माता के मंदिर में आपके कारण अधूरा रह गया, अब वही काम आपकी सहायता से पूरा होगा। आपने मुझे वचन दिया था कि आप मेरे साथ हैं और अब वास्तव में आपका साथ देनेवाला समय आ गया है।’’
‘‘मैं अपने वचन से पीछे नहीं हट रहा हूँ, परंतु मेरे साथ का अर्थ यह नहीं है कि मैं ही कुँवर संग्राम का सिर धड़ से अलग कर दूँ। मैं केवल मुक्ति का मार्ग बताकर इस झमेले से दूर रहते हुए परिणाम देख सकता हूँ। यदि परिणाम तुम्हारे पक्ष में रहा तो तुम्हें यह वचन भी देना होगा कि मेरा नाम सामने नहीं आएगा। तुम राजकुँवर हो, तुम्हें छोटा-मोटा दंड मिल जाएगा, परंतु मुझे मृत्युदंड मिलेगा।’’ सूरजमल ने स्पष्टता से कहा, ‘‘जिस कार्य में किंचित् लाभ न हो और मृत्यु की आशंका हो तो मैं वह कार्य नहीं कर सकता।’’
‘‘आप युक्ति बताइए।’’ पृथ्वीराज ने दृढता से कहा, ‘‘मैं वचन देता हूँ कि आपका नाम कभी सामने नहीं आएगा और परिणाम मेरे पक्ष में रहा तो मैं यह भी वचन देता हूँ कि आप मेवाड़ में चित्तौड़ को छोड़कर जिस रियासत की इच्छा करेंगे, मैं वह आपको दूँगा और जीवन भर आपका ऋणी रहूँगा।’’
‘‘ठीक है।’’ सूरजमल ने सहमति में सिर हिलाया, ‘‘सुनो, राजनीति कहती है कि कोई बड़ा कार्य करते समय अथवा अपराध करते समय किसी मूर्ख सहायक को अपने साथ रखो, ताकि यदि परिणाम प्रतिकूल आने लगे तो उस कृत्य का दोष उस पर थोपा जा सके। तुम कुँवर जयमल को बहकाओ और अपने मार्ग की बाधा दूर करो, फिर कोई विपत्ति आने पर अपना बचाव करके सारा दोष जयमल पर डाल देना।’’
‘‘उचित...उचित, क्या राय है? किंतु अब जयमल को कैसे बहकाया जाए?’’
‘‘यह कार्य भी तुम्हारे लिए मैं करता हूँ, परंतु शेष कार्य तुम दोनों को ही करना होगा। कैसे करना होगा, यह भी तुम्हें मैं ही बताता हूँ।’’
‘‘काका,’’ कुँवर पृथ्वीराज ने प्रशंसात्मक स्वर में कहा, ‘‘आप तो जैसे पहले से ही सबकुछ सोचकर बैठे हैं?’’ फिर पृथ्वीराज ने सहमति में सिर हिलाया और ध्यानपूर्वक उनकी बातों की ओर उन्मुख हुआ।
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पृथ्वीराज का संग्राम सिंह पर प्राणघातक प्रहार
मेवाड़ की अंतर्कलह कुछ ही दिनों में शांत सी प्रतीत होने लगी थी और इसका कारण दोनों कुमारों में प्रेमपूर्वक बात होना था। कुँवर पृथ्वी ने एक दिन अपने अनुज से क्षमा माँग ली थी और अपने कृत्य को आकस्मिक क्रोध के वशीभूत सिद्ध कर दिया। कुँवर साँगा को अपने अग्रज के पश्चात्ताप में सत्यता का आभास हुआ और दोनों सप्रेम रहने लगे। इसी बीच एक दिन पृथ्वी ने योजनानुसार अपने पिता महाराणा रायमल से भी बात की।
‘‘पिताश्री, मेरे मन में एक अपराधबोध सा है। पिछले कुछ समय से मेरा मन अशांत सा रहता है और नाना प्रकार के विचार मुझे पीडि़त करते हैं। कई बार तो मैं स्वयं को ही कोसने लगता हूँ।’’ कुँवर पृथ्वी ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मैंने अपनी इस समस्या के विषय में काका से भी विचार-विमर्श किया और उन्होंने मुझे सुझाव दिया कि मुझे कुछ समय के लिए गुरुदेव के आश्रम में जाकर मानसिक शांति प्राप्त करनी चाहिए! यद्यपि अब मैं स्वयं को शांत महसूस कर रहा हूँ।’’
‘‘पुत्र, जब व्यक्ति को अपनों से द्वेष हो जाता है, अपने किसी सगे की प्रगति पर ईर्ष्या होती है तो ऐसी अशांति स्वाभाविक ही है। ये मानवीय दुर्गुण ही होते हैं, जो जरा सा अवसर पाकर अनर्थ की ओर धकेल देते हैं। कोई विवेकशील ही इन दुर्गुणों पर समय रहते काबू पाता है। मुझे प्रसन्नता है कि तुमने अपनी समस्या को समझा और कुमार सूरजमल के सामने रख दिया। विवेक साथ हो तो कहीं भी मानसिक शांति प्राप्त की जा सकती है, फिर भी यदि तुम्हारी इच्छा है तो हम तुम्हारे आश्रम जाने की व्यवस्था करते हैं।’’
‘‘मैंने अपने अनुज से द्वेष किया और घोर अशांति पाई। यद्यपि मैं उससे क्षमा माँग चुका हूँ और उसने भी मुझे क्षमा कर दिया, तब कहीं जाकर मेरे अशांत मन को शांति मिली है। यदि आज्ञा हो तो हम तीनों भाई कुछ समय के लिए आश्रम चले जाते हैं।’’
‘‘अवश्य! हम शीघ्र ही इस विषय में कुछ सोचते हैं।’’ पृथ्वीराज ने नम्रता से कहा, जिससे परिस्थितियाँ शांत हों और वह अवसर प्राप्त हो, जो घात-प्रतिघातों की शृंखला का प्रथम चरण था। धीरे-धीरे सब सामान्य सा लगने लगा था। पृथ्वीराज अपने अनुज संग्राम पर जितना स्नेह लुटा रहा था, उसे देखकर महाराणा बहुत प्रसन्न होते थे और सूरजमल के कुटिल हृदय में आंतरिक अट्टहास उठते थे।
एक दिन वह बहुप्रतीक्षित अवसर आ ही गया। राजकुमार पृथ्वीराज और कुँवर साँगा वन भ्रमण के लिए चल दिए। उनके साथ आज कोई सैनिक या सरदार नहीं था। दोनों ही अपने अश्वों पर सवार प्रसन्न मुद्रा में चले जा रहे थे।
‘‘भ्राताश्री! कुछ दिनों से भ्राता जयमल हमसे दूर-दूर रहने लगे हैं। मैंने कारण भी पूछा तो कह रहे थे कि स्वास्थ्य ठीक नहीं है।’’ संग्राम सिंह ने कहा।
‘‘उसे प्रेम का रोग लगा है, अनुज!’’ पृथ्वी ने हँसकर कहा, ‘‘उसने बदनोर की राजकुमारी तारा की सुंदरता के चर्चे सुन लिए हैं और उससे इकतरफा प्रेम कर बैठे हैं। प्रेम में प्रेमी ऐसा ही व्यवहार करते हैं।’’
‘‘अच्छा! तो यह बात है, बदनोर की राजकुमारी की प्रशंसा तो मैंने भी सुनी है। भ्राता जयमल ने वास्तव में सुंदरता को अपने हृदय में स्थान दिया है।’’
‘‘इसी कारण वह हमारे साथ नहीं आए। प्रेम में व्यक्ति को एकांत में ही शांति मिलती है। प्रेम इकतरफा हो तो और भी अधिक।’’
‘‘मैंने सुना है कि राजकुमारी तारा ने विवाह की शर्त रखी है कि जो भी वीर उसके राज्य टोड़ा को अफगानों से स्वतंत्र कराएगा, वह उसी से विवाह करेगी।’’
‘‘मेवाड़ के लिए यह कौन-सी कठिन शर्त है? महाराणा की आज्ञा हो तो हम दोनों भाई अफगानों को टोड़ा से मार भगाएँ और भाई जयमल का विवाह करा दें?’’
‘‘मैं पिताश्री से इस विषय में बात करूँगा। यदि तलवार के बल पर हमारे भ्राता की उदासी दूर होती है तो हम इसके लिए सहर्ष तैयार हैं।’’
इसी प्रकार बातें करते-करते दोनों भाई नगर से बहुत दूर, जंगल की ओर निकल आए थे।
‘‘मुझे तो प्यास लगने लगी है अनुज, यहाँ कहीं पानी होगा?’’ पृथ्वी ने कहा।
‘‘मरुस्थल में पानी?’’ संग्राम सिंह हँसे, ‘‘परंतु इस जंगल के बीच एक बस्ती तो है। वहाँ पानी जरूर मिलेगा।’’
‘‘इस कँटीले वन प्रदेश में अश्व तो जा नहीं सकते। चलो, पैदल ही चलते हैं।’’ दोनों भाइयों ने अपने अश्व वृक्षों से बाँध दिए और पैदल ही उन कँटीली झाडि़यों में बढ़ चले।
‘‘मरुस्थलीय लोग बड़े जीवट होते हैं, जो ऐसे झाड़ क्षेत्र में भी जीवन निर्वाह कर लेते हैं।’’ संग्राम सिंह ने कहा, ‘‘हमें इनके विषय में भी कुछ सोचना चाहिए। राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी जंगली जातियों को भी सुख-सुविधा उपलब्ध कराए।’’
‘‘तुम्हारे कारण मेरे राजा बनने में बाधा न आ रही होती तो मैं अब तक इन सबका उद्धार कर देता। इन झाडि़यों को काटकर समतल कर देता।’’
‘‘मेरे कारण कोई बाधा नहीं आएगी भ्राताश्री!’’
‘‘आएगी भी तो मेरी यह तलवार किस दिन काम आएगी?’’ एकाएक पृथ्वीराज ने अपनी तलवार निकाल ली और खूँखार लहजे में बोला, ‘‘आज हर उस बाधा को दूर कर दूँगा, जो मेरे अधिकार का हनन करेगी।’’
‘‘भ्राताश्री! यह...यह आप क्या कर रहे हैं?’’ संग्राम हक्का-बक्का रह गया।
‘‘जो तू सुन रहा है मेरे शत्रु, तूने बड़ी चतुराई से मुझे मेवाड़ से बाहर भेजने की योजना बनाई थी न? भातृद्रोही, तूने अपने आपको सर्वप्रिय, सर्वयोग्य सिद्ध करके मेरे अधिकार पर कुदृष्टि डाली थी। आज मैं इस निर्जन वन में तेरे सिर को धड़ से अलग करके अपने अधिकार को सुरक्षित करूँगा।’’
‘‘आप...आप अकारण भ्रम पाल बैठे हैं, जबकि सत्यता यह है कि मेरे हृदय में सिंहासन की कोई इच्छा नहीं। चारणी माता की सौगंध, मैंने कभी विचार तक नहीं किया कि आपके होते मेवाड़ का अधिपति बनूँ।’’
‘‘क्योंकि तुझे विश्वास है कि चारणी माता का कहना सत्य सिद्ध होगा। ऐसा ही विश्वास मेरा भी है, क्योंकि उनकी भविष्यवाणी सत्य ही होती है। मैं अपनी तलवार से अपना मार्ग निष्कंटक करूँगा।’’
इतना कहकर पृथ्वीराज ने तलवार का वार किया, जिसे संग्राम सिंह ने घातक तो न बनने दिया, परंतु एक गहरा घाव फिर भी लगा। पृथ्वीराज उसे तलवार निकालने का अवसर नहीं देना चाहता था, क्योंकि वह जानता था कि संग्राम तलवारबाजी में उससे श्रेष्ठ है। वह लगातार प्रहार कर रहा था और संग्राम सिंह को घायल कर चुका था। संग्राम को अब अपने प्राण संकट में दिख रहे थे। तलवार निकालने का अवसर नहीं मिल रहा था और इस तरह चपलता से कब तक बचा जा सकता था। यकायक पृथ्वीराज ने संग्राम की बाईं आँख में तलवार की नोंक घोंप दी, जिससे संग्राम बुरी तरह तड़प उठा। तलवार की नोंक निकली तो आँख से रक्त की धारा फूट पड़ी। अपना एक हाथ घायल आँख पर रखकर संग्राम सिंह ने अपने प्राण बचाने के लिए दूसरे हाथ से मुट्ठी भर रेत पृथ्वी की आँखों पर उछाल दी और वहाँ से दौड़ पड़ा।
पृथ्वीराज इस पैंतरे से अनभिज्ञ था। रेत उसकी आँखों में भर गई थी और वह भय के कारण काँप रहा था। इस दशा में संग्राम सिंह का एक वार उसके सिर को धड़ से अलग कर सकता था। वह भी आँखें मलता हुआ प्राण बचाकर पीछे की ओर भागा। कुछ दूर भागने पर उसे अपने सहायक जयमल का स्वर सुनाई दिया।