फूल या शूल ---अलका सोईं
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महाकवि नीरज जी के कहा था,
शब्द तो शोर है, तमाशा है, भाव के सिंधु में बताशा है,
मर्म की बात मुख से न कहो, मौन ही भावना की भाषा है ।
मौन जीवन को नम एहसास से भरता है । न जाने मौन में कितना कुछ मुखरित होता रहता है
लेकिन बात को सम्मुख रखने के लिए या तो भाव-भंगिमा की आवश्यकता होती है अथवा शब्दों की!
मन को सहज रखने के लिए स्वयं को खाली करना भी उतना ही आवश्यक है जितना उसका भरना !
अब ये दोनों विरोधाभास ? मन में प्रश्न अवश्य उठता है लेकिन यह प्रश्न न अजीब है और न ही कोई आश्चर्य करने वाला !
जिस धरती पर हम अवतरित हुए हैं, जिसमें अपने जीवन के आदि से अंत तक रहना है, जिसमें हमें साँसें लेना है, रोना, गाना, मुस्कुराना है अपने कर्तव्यों को निभाना है, उसका ठिकाना अपने भीतर ही तो खोजना है।
जहाँ तक आनंद की बात है, लौकिक से अलौकिक यात्रा की बात है, वह तो ' 'मोको कहाँ ढूँढे रे बंदे, मैं तो तेरे पास में ---और हम अपने गुह्रवर में भीतर और भीतर उतरते चले जाते हैं, कभी कुछ खोने लगते हैं तो कभी कुछ पाने भी लगते हैं, कभी ऐसा भी महसूस करते हैं कि किसी बीहड़ में खो गए हैं, कभी भरे समुद्र में डूबने के अथवा तैरकर उबरने के एहसास से भी हम अछूते नहीं रह पाते ।
यही तो है जीवन के अनजाने, अनपहचाने लम्हों की सौगात जो मिलती है, खोती है, फिर मिल जाती है ।
अँधियारे, उजियारे में हाथ पकड़ती है, आँखों में, दिलों में रोशनी भरती है।
ज़िंदगी हर पल बदलती है, और उसके साथ बदलते हैं हर पल, सवालत भी !
मेरे समक्ष 83 रचनाओं का जो यह जो 'फूल या शूल' शीर्षक का कविता-संग्रह है, समझने की कगार पर प्रतीक्षा में हूँ कि इसमें से केवल फूल ही चुनकर मुस्कुरा लूँ लेकिन मन शूलों के प्रति भी उतना ही व्याकुल है जितना फूलों के प्रति !
मन उलझन में कैद हो जाता है और कानों में फुसफुसाता है कि शूलों का आखिर क्या कसूर है ? वो भी तो फूलों के साथ ही जन्मे हैं ।
इस रचनाओं में से गुजरते हुए मुझे एहसास हुआ एक ऐसी चुप्पी का जो भीतर ही भीतर गुनगुनाती है, मुस्कुराती है और फड़फड़ाती भी है ।वह गुम है किन्तु मुखरित भी है ।
इसको पढ़ते हुए मुझे महसूस हुआ कि ये एहसास हैं, संवेदना है, ये उन भावुक लम्हों में कागज़ पर उतर जाने वाले अक्षर हैं जिन्होंने कभी फूल बनकर सहलाया है, गले लगाया है, मुस्कान भी बाँटी है तो आँखों में आँसु की लरज से भिगोया भी है !
अलका की देह में एक ऐसे समर्पित संत फकीर का रक्त हिलोरें ले रहा है जो शायद कई सौ वर्षों में एकाध दिखाई दे जाते हैं। वे दुर्लभ होते हैं और आप बेशक उन्हें तलाशते रह जाएं, वे मिलना तो दूर की बात है, दिखाई तक भी नहीं देते और जब मिल जाते हैं तब आपके लिए उन्हें छोड़ पाना कठिन ही नहीं असंभव हो जाता है ।
संग्रह की पहली रचना 'कभी आह, कभी वाह' !
उसी छुअन से झाँकती प्रतीत होती है ।
काव्य-संग्रह में औरत की कहानी भी है तो पुरुष के अहं का ज़िक्र भी! नारी -ईश्वर की अनमोल रचना है तो उदास आँखों वाला देवेन्द्र सत्यर्थी भी ! जो पुरुष है सो पति है, पिता है और छिपाए है अपने भीतर न जाने कितनी उत्सुकताएं, ममता, स्नेह, प्यार, दुलार और अपने कंधे पर लटकाए एक लंबा झोला!जो उसे दिलोजाँ से भी प्यारा है। वह स्वयं आधा पेट खाकर आसमानों को देख निश्छल मुस्कान से, भोली आँखों से पता पूछता रहता है लोक-गीतों की गलियों के पते!
ख़ाली जेब, अपने कंधे पर लटके झोले में आधी भरी रियासत के सहारे वह जा पहुँचता है दरबदर, उसे अपना मन और आधा ख़ाली झोला भरना है, उसे बाँटनी है अपने गाँवों, गलियों, खलिहानों की अपने पुरुखों की विरासत ! वह चमत्कृत कर देना चाहता है उन सबको, जो नहीं जानते, समझते कि हमारे पुरुखों की दौलत बिखरी हुई है हर द्वारे पर, हर आँगन में!और ताउम्र उसने वही किया जो सोचा!पत्नी व दो बेटियों को छोड़कर उस ईश्वर के भरोसे जिसने उसे एक झोला थमा दिया था, उसमें समेटने के लिए पूँजी!
इस झोले में अपनी दो नन्ही मुन्नियों की मुस्कान दबोचे वह भटकाव के रास्तों पर भटकता रहा और एक दिन पद्म श्री के अलंकार से जगमगा उठा जो उसके लिए अपनी सीधी-सादी पत्नी की मुस्कान की कुर्बानी से मिली थी।
आज जो संवेदनाओं की पोथी के रूप में मेरे समक्ष है वह एक सन्यासी से पिता के भावों को बटोर उनकी बड़ी बेटी अलका के द्वारा पिता के भीतर के साहित्यकार में झाँककर और माँ की बेचारगी के अकेलेपन को महसूस करने की अभिव्यक्ति ही तो है जो एक संवेदनशील हृदय के लिए बड़ा स्वाभाविक है ।
लगभग 7 /8 वर्षों पूर्व जब मेरा एकाकीपन का दौर आया, बेटी व दामाद मेरे मन के मौन को तोड़ने के लिए मुझे लेकर हरिद्वार, दिल्ली, उत्तर-प्रदेश का चक्कर लगाने ले गए थे । लौटती बार मन ने कहा कि कुछ दिन उधर ही घूम-फिरकर मैं वापिस लौटूँगी और मैं अपने कुछ रिश्तेदारों के पास कुछ दिन रुकने के लिए उधर ही रह गई । मेरे लिए वहाँ का वातावरण अलग था । कज़िन ने पहचान लिया कि मैं उसके पास बहुत आनंदित नहीं थी। वह घर के पास के एक छोटे से पार्क नुमा बागीचे में मुझे लेकर गई जहाँ मेरी मुलाकात अलका और छोटी बहन पारुल व इन दोनों की कुछेक सखियों से भी हुई ।
संभवत: वह तीसरा दिन था जब अलका को पता चला था कि मैं थोड़ा -बहुत कुछ लिखती हूँ । शायद इसीलिए मेरा कुछ टैस्ट लेने के मूड में अलका ने पूछा था" देवेन्द्र सत्यार्थी का नाम सुना
है?"
"अरे! शायद ही कोई साहित्य प्रेमी हो जिसने यह नाम न सुना हो ।"यदि मेरी स्मृति मुझे धोखा नहीं दे रही है तो मैंने शायद ऐसा ही कुछ कहा था।
"हम दोनों उन्हीं की बेटियाँ हैं'अलका ने बताया ।
नाम खूब सुना था । उनके बारे में जानती थी लेकिन पढ़ा अधिक नहीं था । स्वाभाविक था, उत्सुकता का होना । मैं उन्हें पढ़ना चाहती थी लेकिन परेशानी यह थी कि बेटियों के पास उनकी पुस्तकों की बहुत कम प्रतियाँ थीं जो वे मुझे लाने के लिए नहीं दे सकती थीं ।
दो/तीन दिन में मुझे वापिस आना था, मेरी फ़्लाइट बुक थी । इतना कम समय था कि मैं पढ़कर उनका थोड़ा बहुत साहित्य लौटा सकती थी लेकिन न उनकी पुस्तकें ला सकती थी और न अधिक पढ़ सकती थी।
शायद बहुत डरते-डरते पारुल ने मुझे एकाध पुस्तक दी और कई बार मुझसे वायदा ले लिया कि पुस्तक वापिस देकर जाऊँगी । मैं समझती थी इनका डर! कम ही पढ़ पाई किन्तु अपने वायदे के मुताबिक पुस्तक वापिस कर दी ।
फ़ोन नंबर्स का आदान-प्रदान हुआ और फिर ऐसा लगा कि यह तो किसी के मिलने पर एक उत्सुकता जगती है फिर धीरे-धीरे मस्तिष्क की स्लेट से नाम डीलिट हो जाता है ।
लेकिन रिश्ता बना रहा, अहमदाबाद आकर मैंने अलका को वरिष्ठ नागरिक काव्य-मंच पर ऑन लाइन कविता पाठ के लिए जोड़ लिया और इस प्रकार संबंध बना रहा ।
अलका ने मुझे प्रकाश मनु जी के बारे में भी बताया था जो सत्यार्थी के जबरदस्त फ़ैन हैं। बहुत अच्छे मनुष्य, बहुत अच्छे लेखक !
अलका सोईं की पुस्तक के बारे में बात करते हुए मैं सत्यार्थी जी के ज़बरदस्त फ़ैन प्रकाश मनु जी से जो बात हुई, वह भी यहाँ पर जोड़ रही हूँ । कुछ दोहराव है किन्तु एक नई बात भी है जो मैंने अलका और पारुल से भी कहा था । पढकर आनंद होगा। इसको अवश्य पढ़ें। मेरे मन के उद्गार कुछ इस प्रकार प्रस्फुटित हुए थे---
आ. मनु जी ! क्या ही कहूँ --आपके बारे में जब सत्यार्थी जी की पुत्रियों से सुना था, तबतक नहीं जानती थी कि आप भी मेरे नाम से परिचित हैं । आपसे बात करके आपकी संवेदना से परिचित हुई और आँखों के किसी कोने में आँसु आकर ठिठक गए। आपने अपनी लेखन शैली व प्रक्रिया के बारे में चर्चा की थी, मुझे लगा आप बहुत कुछ ऐसी संवेदना मुझसे साझा कर रहे हैं जो किन्ही नाज़ुक क्षणों में मुझ पर हावी हो जाती है ।
अवसर व समय की अथवा कहें प्रारब्ध की बात होती है । 2016 में मैंने अपने पति को खोया था । उसके बाद बेटी और दामाद मुझे हरिद्वार व उत्तर प्रदेश ले गए थे । उस समय मेरा मन हुआ कि मैं कुछ समय उधर ही रहूँ और सबसे मिल लूँ । लगभग सातेक वर्ष पूर्व मैं दिल्ली में अपने एक चचेरी बहन के पास भी लगभग दसेक दिन रही जहाँ मेरे मन की बात करने वाला कोई नहीं था । मेरी बहन कैनॉट प्लेस में थी और वहीं वह बगीचा भी था जो आदरणीय सत्यार्थी जी के घर के ठीक सामने था । मेरी बहन ने कहा कि जीजी तुम्हें यहाँ पर अपने जैसे लोग मिलेंगे । वहीं मेरा परिचय उनकी दोनों पुत्रियों अलका व पारुल से हुआ, उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने देवेन्द्र सत्यर्थी जी का नाम सुन है ? ऑफ़ कोर्स! मैं यह सुनकर गदगद हो गई कि उनकी बेटियों से कैसे मेर परिचय हुआ है? उन्होंने मुझे उनकी कोई कहानी की पुस्तक भी दी थी जो अब याद नहीं है क्योंकि मेरी वापिस आने की फ़्लाइट बुक थी और मुझे उनको वह पुस्तक लौटनी थी । सरसरी नज़र से ही देख पाई लेकिन उनसे काफ़ी समीपी संबंध हो गए और अलका जिन्हें कविता लिखने में रुचि है, मैंने अहमदाबाद में आकर उन्हें यहाँ अपने 'वनकाम यानि विषतः नागरिक मंच के पटल पर जोड़ लिया जो ऑन लाइन चलता ही और उसमें पूरे गुजरात व स्वराष्ट्र के कवि -कवियित्री अपनी काव्य-रचना का पाठ करते हैं । इस प्रकार से उनसे घनिष्टता हुई । मेरा उनसे बार-बार प्रश्न यह था कि क्यों सत्यर्थी जी के नाम पर वह सामने वाले बाग का नामकरण नहीं किया जा सकता । संभवत :मेरी उनसे मुलाकात लगभग दस दिनों तक एकाध घंटे होती रही होगी और उनके मुँह से जो उनके पिता जी की बातें मैंने सुनी, मुझे बार-बार इस एहसास ने संवेदना से भर दिया कि ऐसे व्यक्तित्व बिरले ही होते हैं, लोग उनकी गहनता के बारे में समझ पाने में असमर्थ हैं तो बेटियाँ अपने पिता के नाम के लिए कुछ प्रयत्न करें । आप ही बताएं क्या यह छोटा स काम उनके लिए नहीं होना चाहिए?
आपने बहुत सी बातें जैसे मदनमोहन मालवीय जी के बारे में बताईं, मुझे अपने पिता डॉ. विष्णु शर्मा शास्त्री की स्मृति हो आई जो उनके बहुत करीब रहे हैं व हिन्दू बनारस विश्वविद्यालय के स्वर्णपदक प्राप्त छात्र रहे हैं । मुझे लगता है कि कहीं न कहीं जीवन एक-दूसरे से संबंधित रहता ही है । मेरी तो आंतरिक इच्छा है कि उनके घर के सामने वाले पार्क पर कम से कम उनके नाम की स्मृति-पट्टिका लग सके । आपकी बहुत शुक्रगुज़ार हूँ इस विस्तृत लेख के लिए ।
प्रणाम आपको ।
पुनश्च---
आदरणीय! मैंने साहित्य कुंज पर उपरोक्त पंक्तियाँ लिखकर भेजने पर प्रयास किया किन्तु जा नहीं रहा है । नहीं जानती कारण?क्योंकि तकनीक में मैं बहुत कमज़ोर हूँ
प्रकाश मनु जी का छोटा सा किन्तु स्नेहिल उत्तर प्राप्त करके मैं संतुष्ट हो गई।
" अहा, कितना अच्छा लिखा प्रणव जी। कितने निर्मल मन से लिखा। आभार।
मैं इसे आगे भेज देता हूं।
(स्नेह, प्रकाश मनु)
आप सबकी मित्रडॉ
. प्रणव भारती