निर्जर दस साल बाद धौलागढ़ गांव लौटा है, अपनी अधूरी मोहब्बत चारुलता की तलाश में। वृंदावन हवेली, जहां कभी उसका बचपन और उसका प्यार दोनों जिए थे, अब एक डरावना खंडहर बन चुकी है। हवेली में दाखिल होते ही उसे बांसुरी की वही पुरानी धुन सुनाई देती है, और ऊपर के कमरे में चारुलता की नीली चुनरी, उसकी डायरी... और अचानक दीवार से झलकती रहस्यमयी रोशनी।
आख़िर में, जैसे ही वह दीवार को छूता है—एक झटका लगता है और वह आम के पेड़ के नीचे पहुंचता है, जहाँ कोई बैठा है...
चारुलता। लेकिन वो अब पहले जैसी नहीं रही।
“तू क्यों लौटा...? अब तुझे भी नहीं जाने दूँगी...”
ये शब्द सुनते ही निर्जर ने झटके से आंखें खोलीं।
वो अब हवेली के पुराने कमरे में था। वही अंधेरा, वही बंद दरवाज़ा। दीवार एकदम सामान्य लग रही थी—कोई रोशनी नहीं, कोई परछाईं नहीं।
क्या उसने सपना देखा था? या फिर... हवेली उसे कुछ दिखाना चाहती थी?
उसने डायरी उठाई, पन्ने पलटे, लेकिन अगले पन्ने फटे हुए थे। जैसे कोई उन्हें जानबूझकर हटाकर ले गया हो।
नीचे की मंज़िल पर लौटते समय उसकी नज़र आंगन के एक पुराने कुएं पर पड़ी। यह कुआँ पहले कभी नहीं देखा था। अब वह बर्बाद-सा लग रहा था, लेकिन उसके आसपास की मिट्टी नई खुदाई जैसी थी।
निर्जर आगे बढ़ा, कुएं में झाँक कर देखा।
काली गहराई... और एक हल्की-सी चमक।
नीली रौशनी।
ठीक वैसी जो उस कमरे की दीवार से झलकी थी।
उसने मोबाइल की टॉर्च चालू की और कुएं की दीवारों पर देखा—नाखूनों से खुरचे गए कुछ शब्द थे।
ध्यान से देखा तो लिखा था:
“मुझे नीचे मत ढूँढो।”
“वह मुझे पकड़ चुकी है।”
डर और जिज्ञासा दोनों से भरकर निर्जर गांव लौट आया। वह सीधे गया उस बुज़ुर्ग के पास जिसने उसे हवेली न जाने की चेतावनी दी थी।
"बाबा, वो हवेली... वहाँ कोई है। चारुलता का नाम... उसकी चीज़ें... और कोई दीवार जो अचानक..."
बुज़ुर्ग ने हाथ उठाकर उसे रोका।
"तू सच में गया? उसकी आवाज़ भी सुनी?"
"हाँ," निर्जर ने काँपती आवाज़ में कहा, "उसने कहा—अब तुझे भी नहीं जाने दूँगी।"
बुज़ुर्ग चुप रहे, फिर बोले—
"तू अकेला नहीं है जिसने ये सुना। गाँव के तीन लड़के, पाँच साल पहले, उस हवेली में गए थे। एक भी वापस नहीं लौटा। जो गया, वो या तो पागल लौटा... या फिर कभी दिखा ही नहीं।"
"तो फिर... चारुलता कहाँ है?"
"चारुलता उसी रात गायब हुई थी, जिस रात हवेली में आग लगी थी। लेकिन वो आग अपने आप नहीं लगी थी बेटा। उस रात किसी ने वहाँ एक तांत्रिक अनुष्ठान करने की कोशिश की थी..."
निर्जर की आंखों में चमक आ गई। "मतलब किसी ने जानबूझकर?"
"हाँ। और उस अनुष्ठान के लिए किसी 'पवित्र आत्मा' की ज़रूरत थी। चारुलता जैसी मासूम लड़की... उसके शरीर में उस रात कुछ और आ बसा।"
"क्या आप कहना चाहते हैं कि…?"
"वो अब चारुलता नहीं रही। और अब जो वहाँ से पुकारता है, वो उसकी आत्मा नहीं... कोई और है।"
निर्जर को लगा जैसे ज़मीन खिसक गई हो। तो क्या वो जिसे उसने देखा… वो चारुलता नहीं थी?
निर्जर अपने दादी के घर गया, जहाँ उसकी पुरानी अलमारी अब भी वैसे ही बंद पड़ी थी। उसने चाबी निकाली और अलमारी खोली।
पुरानी किताबें, चारुलता की चिट्ठियाँ... और एक तस्वीर।
चारुलता और उसके साथ एक बूढ़ा आदमी—सांवला, सफेद दाढ़ी, माथे पर लाल टीका।
"ये कौन है?"
पीछे तस्वीर पर पेंसिल से लिखा था—
“चारु और बाबा विभानाथ – 14 जून 2013”
विभानाथ?
गांव में वह नाम अब किसी को याद नहीं था।
रात को हवेली से फिर वही बांसुरी की धुन सुनाई दी।
निर्जर, हाथ में टॉर्च और बैग लिए, दोबारा वहां पहुंचा। वह तय कर चुका था कि आज वह नीचे कुएं तक जाएगा, चाहे कुछ भी हो।
हवेली में घुसते ही उसकी नज़र दीवारों पर पड़ी। उनमें खरोंचों से कुछ और शब्द खुदे थे, जो पहले नहीं थे:
“अब देर हो चुकी है।”
“उसे नींद से मत जगाना।”
निर्जर ने बिना रुके आंगन में जाकर रस्सी बांधी और कुएं में उतरना शुरू किया।
अंधेरे में जैसे-जैसे नीचे जाता गया, हवा ठंडी और भारी होती गई। दीवारें गीली थीं, और नीचे से एक अजीब-सी सड़ांध आ रही थी... मगर उसमें कहीं नींबू और अगरबत्ती की भी हल्की गंध थी।
जैसे कोई अभी भी पूजा कर रहा हो।
जैसे ही वह कुएं की तली पर पहुँचा, टॉर्च की रोशनी एक लोहे के दरवाज़े पर पड़ी।
हां, कुएं के नीचे एक और कमरा था।
दरवाज़ा आधा खुला हुआ था। अंदर से मंद नीली रौशनी आ रही थी।
निर्जर ने सांस रोकी, दरवाज़ा धकेला...
कमरे के अंदर एक त्रिकोण बना था, जिसके बीचोंबीच जली हुई लकड़ी, कुछ राख और एक तांत्रिक यंत्र पड़ा था।
और वहां, कोने में... चारुलता की वो बांसुरी रखी थी।
जैसे ही उसने बांसुरी को छुआ—
कमरे की दीवारें कांपने लगीं।
दरवाज़ा बंद हो गया।
और उसके पीछे किसी के चलने की आवाज़ आई।
“अब आए हो...? बहुत देर कर दी...”
वही आवाज़… चारुलता की। मगर इस बार कुछ अलग था। जैसे वो अब केवल बोल नहीं रही थी, बल्कि किसी और की ओर से बोल रही थी।
क्या चारुलता अब किसी अदृश्य शक्ति का ज़रिया बन चुकी है?
कुएं के नीचे ये तांत्रिक कक्ष किसका था?
और क्या निर्जर अब कभी इस हवेली से बाहर निकल पाएगा...?
जानिए अगली कड़ी में — "त्रिकोण की छाया"