जो कहा नहीं गया – भाग 4
(प्रतिध्वनि की पुकार)
स्थान: हरिद्वार, गंगा तट
समय: वर्तमान
गंगा किनारे स्थित पुराने शिव मंदिर की घंटियों की ध्वनि रिया के भीतर के मौन को झकझोर रही थी। वह धीरे-धीरे मंदिर की सीढ़ियाँ उतरी, हाथ में वही पुरानी भूरे रंग की डायरी थामे हुए — जिसकी जिल्द पर हल्के अक्षरों में उकेरा गया था:
“राजा विष्णु की चुप्पियों में प्रेम की प्रतिध्वनि है।”
यह पंक्ति उसे बेचैन कर रही थी। क्या यह किसी अधूरे प्रेम की दास्तान थी, या फिर किसी भूले हुए अध्याय का संकेत? उसकी आँखों में सवालों का समंदर था, और हृदय में एक अनजाना कंपन।
वह घाट के पास चाय बेचते एक वृद्ध बाबा के पास पहुँची, जिनकी झुकी हुई पीठ और झुर्रियों में जाने कितने वर्षों की धूप समाई थी।
“बाबा, क्या यहाँ कभी विष्णु नाम का कोई बाबा रहा है?” – रिया ने धीरे से पूछा।
बाबा की आँखों में चमक आ गई। उन्होंने कप में चाय उंडेलते हुए सिर हिलाया।
“विष्णु...? हाँ बेटी... वही जो हर पूर्णिमा को गंगा में दीप बहाया करते थे। जो हमेशा मौन रहते थे, मगर जिनकी आँखें बहुत कुछ कहती थीं।”
रिया की साँसें थम सी गईं।
बाबा कुछ देर चुप रहे, फिर बोले –
“कहते हैं, वो किसी कन्या की प्रतीक्षा करते थे… शायद नाम ‘राध्या’ था।”
रिया की उंगलियाँ डायरी की जिल्द पर कसने लगीं।
रात को रिया गंगा तट पर अकेली बैठी रही। चाँदनी में गंगा की लहरें स्वर्णिम हो उठी थीं। डायरी के भीतर से एक मुड़ा हुआ पत्र उसने बाहर निकाला, जिसमें लिखा था:
“जो कहा नहीं गया, वही शाश्वत है... और जो प्रेम मौन रहा, वही अग्नि की तरह अमर है।”
काग़ज़ आँसुओं से भीग चुका था — शायद पुराने समय के, शायद रिया के।
अगले दिन रिया शहर से दूर एक पुरानी हवेली तक पहुँची। हवेली के खंडहरों में नमी, सीलन और इतिहास की गंध थी। वहाँ की दीवारों पर जमी धूल के बीच एक कोने में रखी तस्वीर पर उसकी नज़र ठहर गई।
तस्वीर में एक युवा साधु जैसा व्यक्ति था — शांत, सौम्य और गहरा। नीचे एक तारीख लिखी थी: “1892”
रिया के रोंगटे खड़े हो गए।
“यह कैसे संभव है...?” – वह बुदबुदाई।
तभी उसके पीछे एक गूंजता हुआ स्वर सुनाई दिया —
“तुमने उसे फिर से ढूँढ लिया…”
वृद्ध तपस्वी खड़े थे — सफेद वस्त्रों में, लंबी जटाओं के साथ, जिनकी आँखों में किसी युग की थकान और शांति दोनों थी।
“आप कौन हैं?” – रिया ने काँपती आवाज़ में पूछा।
वे मुस्कराए —
“जिसे तुम विष्णु समझ रही हो... वह अब किसी और रूप में है।”
रिया मौन रह गई। एक मौन, जिसमें कई जन्मों की पुकार थी।
तपस्वी बोले —
“प्रेम पहचान नहीं चाहता... वह मौन में प्रतिध्वनित होता है। इस बार जब तुम मिलोगी, शायद कुछ न कहो... बस जाओ।”
रिया की डायरी में दबे पुराने दस्तावेजों में एक और पंक्ति चमकी:
“पुनर्मिलन न मंदिर में होगा, न महल में... वह होगा उस क्षण, जब दो मौन आत्माएँ एक धड़कन में साँस लेंगी।”
डायरी के अंतिम पृष्ठ पर अब केवल एक शब्द उभरा —
“काशी”
गंगा की लहरें अब किसी नई यात्रा की ओर बह रही थीं — शायद पुनः मिलने की, शायद आत्मा की पहचान की।
कहानी अभी बाकी है, मेरे दोस्त...
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