अभी हाल में ही जहाँ एकतरफ मुंबई उच्च न्यायलय ने मुंबई 2006 धमाकों के अभियुक्तों को बरी कर दिया वहीँ दूसरी तरफ एन.आई.ऐ कोर्ट ने मालेगांव 2008 धमाकों के अभियुक्तों को बरी कर दिया| चंद दिनों के अंतराल पर आये इन आदेशों में एक विचित्र समीकरण भी दिखता है और विचित्र समानता भी|
समीकरण ये कि 2006 धमाकों के आदेश में रिहा हुए अभियुक्त मुस्लिम हैं और 2008 धमाकों के आदेश में रिहा हुए अभियुक्त हिन्दू हैं| एक तरफ जहाँ देश को इस्लामिक आतंकवाद का भय दिखाकर मुस्लिम अभियुक्तों को जबरदस्ती केस में फंसाये जाने के आरोप लग रहे हैं वहीँ दूसरी तरफ देश को हिन्दू आतंकवाद का भय दिखाकर हिन्दू अभियुक्तों को जबरदस्ती केस में फंसाये जाने के आरोप लग रहे हैं| चंद दिनों के अंतराल पर विभिन्न न्यायालयों से इस तरह के आदेश, जो देश के दो सबसे प्रमुख समुदायों पर प्रभाव डालते हों, देश-दुनिया का ध्यान खींचेंगे ही| हो भी यही रहा है, राजनीतिक युद्ध का मैदान सज चुका है और राजनीतिक दाल अपने -अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने में लग गए हैं| इस पर सभी न्यूज़ चैनलों पर, व्हाट्सप्प ग्रुप्स पर एवं अन्य सोशल प्लेटफॉर्म्स पर अत्यधिक चर्चा हो रही है, अतः हम इसपर बात नहीं करेंगे|
हम समानता पर आते हैं और समानता ये है कि दोनों ही आदेशों में माननीय न्यायाधीशों ने दोषपूर्ण जांच और स्पष्ट सबूतों के अभाव को संदेह का लाभ देने का आधार बताया है| इस बात पर कोई भी दोमत नहीं हो सकता कि जिन अभियुक्तों को पूर्ण न्यायिक व्यवस्था का पालन करने के बाद रिहाई आदेश मिला है वे बधाई के पात्र हैं, निश्चित तौर पर ये आदेश उनकी व्यक्तिगत विजय है| परन्तु आरोप-प्रत्यारोप, विजय-पराजय के इस विमर्श में मूल बिंदु चर्चा से गायब हो गए| यदि रिहा हुए अभियुक्त दोषी नहीं थे तो फिर ये बम धमाके किये किसने? इन आदेशों में एक बात स्पष्ट तौर पर कही गयी, कि केस की जांच दोषपूर्ण थी एवं बिना पुख्ता सबूतों के अभियुक्तों के विरुद्ध चाजर्शीट दायर कर दी गयी, इसका जिम्मेदार कौन है? जिम्मेदार अधिकारीयों को चिन्हित कर उनके विरुद्ध क्या कार्यवाही की जायेगी? और सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न- इन धमाकों के पीड़ितों को अब न्याय कैसे मिलेगा?
इन आदेशों से सबक लेते हुए सबसे पहले हमें विभिन्न एजेंसी जैसे पुलिस, सीबीआई, ऐटीएस एवं एनआईए के उन अधिकारियों को समुचित प्रशिक्षण देना होगा जो किसी भी केस की प्रारंभिक जाँच कर केस को एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं| तमाम प्रशासनिक सुधारों के बावजूद हम एक ऐसा तंत्र नहीं विकसित कर पाए हैं, जहाँ अधिकारी बिना किसी राजनीतिक हस्तक्षेप के देशहित में अपना कर्त्तव्य निभा सकें| हालाँकि ऐसे अधिकारियों की फेहरिस्त भी लम्बी है जिन्होंने राजनीतिक दबाव को दरकिनार कर अपने कर्त्तव्य का पालन किया| आवश्यकता है कि विभिन्न सरकारी विभागों की चयन प्रक्रिया में विषय-वस्तु ज्ञान के अतिरिक्त देशभक्ति/देशहित की भावना एवं मजबूत ईक्षाशक्ति को अधिक मूल्य दिया जाए, तब शायद कुछ वर्षो के उपरांत हमारे देश में ऐसे अधिकारीयों की अधिकता होगी जो किसी राजनीतिक दबाव के समक्ष झुके बिना अपने कर्त्तव्य का ईमानदारी से पालन करेंगे|
अब जबकि न्यायलय के आदेशों में जांच को दोषपूर्ण सिद्ध किया जा चुका है, अतः समस्त जिम्मेदार अधिकारीयों को चिन्हित कर उनके विरुद्ध अति शीघ्र कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए जिससे कोई अन्य अधिकारी जांच को गलत दिशा में मोड़ने अथवा जांच में लापरवाही करने की हिम्मत न करे|
और अंत में यक्ष प्रश्न- "पीड़ितों को न्याय- कब और कैसे मिलेगा?" दशकों तक चली जांच एवं न्यायिक प्रक्रिया के उपरांत अभियुक्त तो दोषमुक्त हो गए, अब इस प्रश्न का उत्तर कैसे मिलेगा कि इन बम धमाकों का जिम्मेदार कौन था और उसे सजा कैसे मिलेगी| जवाब शायद किसी के पास नहीं| अधिक से अधिक सरकार एक जांच आयोग बनाकर दुबारा जांच करवा लेगी| परन्तु शुरूआती जांच की खामियों को इतने वर्षों के बाद कैसे सुधारा जा सकेगा?
हम पूरे देश में आरोप-प्रत्यारोप का राजनीतिक खेल तो खेल रहे पर हम उन बेबस पीड़ित परिवारों को क्या जवाब दें जो इतने वर्षों से न्याय की उम्मीद लगाए बैठे थे|
न्यायलय के इन आदेशों से शायद हम राजनीतिक फायदा उठा लें, शायद हम इसे अपनी जीत भी समझेंगे परन्तु इन बम धमाकों के पीड़ितों को न्याय न दे पाना एक राष्ट के तौर पर हमारी हार है|
जय हिन्द||