fear of punishment in Hindi Classic Stories by ravindra thawait books and stories PDF | सजा का भय

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सजा का भय


कैसलपुर के राजा इंद्रसेन अपनी न्यायप्रियता के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। उन्होंने न केवल न्यायशास्त्र का गहन अध्ययन किया था, बल्कि अपने दरबार में पांच न्याय शास्त्र विशेषज्ञों की नियुक्ति कर जनता को निष्पक्ष न्याय दिलाने की मजबूत व्यवस्था भी की थी।

एक दिन उनके दरबार में एक वृद्धा आई। उसकी पीठ उम्र के बोझ से झुक चुकी थी और कांपते हाथों से पकड़ा डंडा उसके अंतिम सहारे जैसा था। वह बड़ी कठिनाई से चलती हुई सिंहासन के समीप पहुंची और करुण स्वर में बोलीक-

‘राजन, मैं बीरपुर गांव से आई हूं। वर्षों पहले मेरे पति चल बसे। उनका एकमात्र सहारा मेरा बेटा सोहन था। मैंने मजदूरी कर उसे पाला, पढ़ाया और योग्य बनाया। तीन वर्ष पूर्व उसका विवाह सुकन्या नाम की कन्या से किया। विवाह के बाद उसका व्यवहार पूरी तरह बदल गया। जो बेटा कल तक मेरी हर सेवा में तत्पर रहता था, वह अब मुझसे नज़रे तक नहीं मिलाता। बहू मुझे समय पर खाना नहीं देती और कल तो सोहन ने मुझे घर से निकाल ही दिया। अब मैं न घर की रही, न घाट की।’’

राजा इंद्रसेन की आंखें क्रोध से लाल हो उठीं। उन्होंने कोतवाल को आदेश दिया-
‘सोहन, सुकन्या और उनका बालक कल दरबार में उपस्थित किया जाए।’

दूसरे दिन का दरबार
अगले दिन बुढ़िया, सोहन, सुकन्या और उनका चार वर्षीय पुत्र राधे दरबार में उपस्थित हुए। राजा ने कठोर स्वर में पूछाकृ
ष्सोहन! क्या तुम्हें अपनी वृद्धा मां को इस तरह घर से निकालते हुए ज़रा भी शर्म नहीं आई?ष्

सोहन ने सिर झुकाते हुए उत्तर दिया -
‘महाराज, मैंने विवाह मां की इच्छा से ही किया था। पर विवाह के बाद मेरी जिम्मेदारियां बढ़ गईं। मां को यह अच्छा नहीं लगा। वह बहू की हर बात में नुक़्ताचीनी करने लगीं। एक दिन जब खाना बनाने को लेकर कहासुनी हुई, तो मां ने अपने पोते को- जो उस समय हँस रहा था-डंडे से मार दिया। उसके सिर से रक्त बहने लगा। मैं क्रोधित हो उठा और उन्हें घर से निकाल दिया।’’

राजा ने सुकन्या से पूछा -
‘‘क्या तुम अपनी सास को भोजन नहीं देतीं?’’

सुकन्या ने उत्तर दिया -
‘‘राजन, खाना सबके लिए एक जैसा बनता है। सास जी हर दिन उसमें कोई न कोई कमी निकालती हैं और मुझे ताने देती हैं। अब रोज़ के झगड़ों से मेरा भी धैर्य टूटने लगा था।’’

राजा इंद्रसेन चिंतन में डूब गए। वृद्धा की करुण स्थिति और बेटे-बहू की सफ़ाई, दोनों में सच्चाई थी। उन्होंने अपने पांचों न्याय रत्नों से सलाह ली।

न्याय रत्नों ने शास्त्रों और धर्मग्रंथों का उल्लेख करते हुए कहाकृ
‘महाराज, वृद्ध माता-पिता की सेवा करना संतान का धर्म है। सोहन को दंड मिलना चाहिए।’’

राजा ने विचार कर कहा -
‘‘मैं निर्णय एक सप्ताह बाद सुनाऊंगा। तब तक तीनों को अतिथि गृह में सम्मानपूर्वक ठहराया जाए।’’
सप्ताह बीतते ही तीनों को पुनः दरबार में बुलाया गया। पर इस बार दृश्य कुछ अलग था। वृद्धा ने हाथ जोड़ कर राजा से कहा -
‘महाराज, मेरे पुत्र को दंड न दें। अब मैं उसके और बहू के साथ प्रेमपूर्वक रहूंगी।’’

सोहन ने मां की सेवा का वचन दिया और सुकन्या ने अपनी सास को मां मानकर सेवा करने की सौगंध खाई।

दरबार आश्चर्यचकित था -यह परिवर्तन एक सप्ताह में कैसे संभव हुआ?

दरबार के बाद न्याय रत्नों ने राजा से पूछा -
महाराज, यह चमत्कार कैसे हुआ?’’

राजा इंद्रसेन मुस्कुराए और बोले -
‘‘कभी-कभी न्याय केवल दंड में नहीं, चेतावनी और अपराध-बोध में भी छिपा होता है।’’
उन्होंने विस्तार से बताया -
अतिथि गृह में तीनों को अलग-अलग कमरों में ठहराया गया था और खास सेवकों द्वारा उन्हें सूचना दी गई -

वृद्धा से कहा गया कि राजा उसे जंगली जानवरों से भरे बियावन जंगल में छोड़ने की सज़ा पर विचार कर रहे हैं। सोहन को बताया गया कि उसे तपते रेगिस्तान में निर्वासित किया जा सकता है और सुकन्या को देशनिकाला का भय दिखाया गया।

सभी भयभीत हो उठे और उन्होंने अपने अपने व्यवहार पर गहराई से आत्मचिंतन किया। यही भय, आत्मबोध और एकांत का प्रभाव था जिसने उनमें हृदय-परिवर्तन कर दिया।

राजा ने न्याय रत्नों से कहा
‘‘न्यायशास्त्र का मूल उद्देश्य केवल दंड नहीं, सामाजिक संतुलन और नैतिक चेतना है। हर अपराध को दंड देकर नहीं सुधारा जा सकता। कभी-कभी ‘सजा का भय’ ही सबसे बड़ी सज़ा होता है। कठोर न्याय व्यवस्था यदि मानवीय भावनाओं की अनदेखी करे, तो वह स्वयं अन्याय बन जाती है।’’
न्याय रत्नों ने सिर झुका कर कहा -
‘‘महाराज, आपने हमें न्याय की वह गहराई सिखाई है जो शास्त्रों से नहीं, अनुभव से आती है।’’

नैतिक संदेश -
‘‘सच्चा न्याय वही है जो अपराधी को दंड नहीं, उसका ‘बोध’ कराए।
कभी-कभी डर भी वह दवा होता है, जो टूटते रिश्तों को जोड़ देता है।’’