sibling in Hindi Short Stories by Deepak sharma books and stories PDF | सहोदरा

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सहोदरा

                      उस दिन मां का बुखार तेज़ था।

                     “बुखार जूड़ी से शुरू हुआ है,” मेरे डाक्टर पिता ने अपने पेशेवर निरीक्षण के बाद थर्मामीटर और स्टेथोस्कोप शशि मौसी को सौंप दिए, “क्वार्टन मलेरिया लगता है। कुनैन या उस का कोई सिंथेटिक डेरिवेटिव दे देना।”

                    डाक्टर न होते हुए भी शशि मौसी दवाओं की अच्छी जानकारी रखती थीं।

                   मेरी नानी की आकस्मिक मृत्यु के उपरांत जहां मेरी मां ने अल्पायु में घरोपयोगी गृहविज्ञान में निपुणता प्राप्त की थी,वहीं शशि मौसी का पंख- विस्तार चिकित्सा- विज्ञान तक जा पसरा था। पुत्रविहीन तथा चलने से लाचार मेरे नाना के जीवन- काल ही में शशि मौसी दुकान में रखी एक-एक दवा के स्वभाव तथा स्थान से पूरी-पूरी परिचित रही थीं और तदनंतर शशि मौसी ने पहले की तरह अब भी दवाओं के साथ आने वाली सामग्री का अध्ययन जारी रखा था।

                   “दवाखाना आज आप खुलवा दीजिए,” संसार से विदा लेते समय मेरे नाना ने शशि मौसी के साथ अकल्पित पक्षपात दिखाया था– अपनी संपूर्ण संपत्ति उन्हों ने शशि मौसी के नाम कर दी थी और अब दवाखाने का पूरा प्रबंध तथा लेन-देन शशि मौसी के ज़िम्मे रहता था, “जीजी को अकेले छोड़ना ठीक नहीं….”

                  “लेकिन मैं नहाने जा रहा हूं,” शशि मौसी यदि साम्राज्ञी थीं और मां एक ध्वस्त शत्रु तो मेरे पिता एक अतिथि राजनई रहे। अतिथियों की मानिंद वह केवल अपने आप से मतलब रखते।अपने सोने,अपने नहाने, अपने खाने,अपने पीने,अपने पहनने और टी.वी.पर अपने प्रोग्राम देखने को बेहद उत्सुक रहते।

भोजन के समय भी सिंह- सदृश सर्वोत्तम हिस्सा स्वीकारते ही,अपने लिए बाज़ार करते समय भी शेरदिल हो जाते । रुपया उड़ाना कोई उन से सीखता। उन के पास बीसियों परिधान रहे,साथ में पचासों औडियो- वीडियो कैसेट,किंतु फिर भी वह नित नई चीज़ें खरीदने से बाज़ न आते।

                   “बाद में सज- संवर लीजिएगा,”

शशि मौसी ने चुहल की, “वैसे भी शीला शाम ही को आती है…..”

                   “शीला? कौन शीला?” मेरे पिता ने बनावटी विरोध प्रकट किया, “मैं किसी शीला को नहीं जानता….”

                    “मैं  उसे जानती हूं। आप और आप की इश्कबाज़ियां मेरे लिए नई नहीं….”

                    “लेकिन तुम यह भी जानती हो पुराने इश्क की तासीर ज़्यादा कारगर होती है…..”

                     पंद्रह साल पहले मेरे पिता ने मेरे नाना के रहते जब उनके पुश्तैनी दवाखाने पर एक अतिथि डाक्टर के रूप में नियमितता से बैठना शुरू किया था तो उन्हें मेरी मां की तुलना में शशि मौसी ही अधिक संग्राही जान पड़ी थीं। किंतु छोटी बेटी के प्रति अगाध प्रेम होने के बावजूद मेरे नाना ने अपनी बड़ी बेटी ही मेरे पिता के संग ब्याही थी।

                    “झूठे कहत स्याम अंग/

सुंदर बातें गढ़त बनाए….” शशि मौसी ने ठी- ठी छोड़ी। 

                     “बादत बड़े सूर की नाई/

अबहि लेत हो प्रान तुम्हारे…..” मेरे पिता ने अपनी हीं- हीं छोड़ी। 

                     “कटा- फटा अपना इतिहास अब बाद में खोल लेंगे,” शशि मौसी ने अपनी हंसी रोक ली, “इस समय तो आप नीचे जाकर दवाखाना खुलवा आइए…..”

                     दवाखाना हमारे तिमंज़िले मकान की पहली मंज़िल पर था।

                    “दवाखाना तुम्हीं खुलवाओगी,” मेरे पिता ने सिर हिलाया, “मैं अभी नहाऊंगा…..”

 

                    “केशव,”मेरे पिता के ओझल होते ही शशि मौसी मेरे समीप चली आईं।

                    क्रिसमस की उन छुट्टियों में सुबह देर तक अपने बिस्तर की पनाह में रहना मुझे बहुत भाता।

                    मैं ने अपने सोने का नाटक जारी रखा।

                    “उठ,डांबरु,उठ,” शशि मौसी ने मेरे कान उमेठ दिए। 

                    “क्या बात है?” अपनी मुट्ठी बांध कर मैं खड़ा हो गया।

                    “वृथा इतना कद बढ़ाता जा रहा है। कभी ज़िम्मेदारी भी दिखलाया कर….”  

                    तेरह वर्ष की उस उम्र में मेरा कद असामान्य रूप से ऊंचा था : पांच फ़ुट ग्यारह इंच।

                   “क्या हुआ?” मेरे आंसू मेरी गालों पर ढुलक लिए। 

                    “जीजी बीमार हैं। उन के पास से हिलना नहीं। मैं नीचे दवाखाने पर हूं। केदारनाथ जैसे ही वहां आएगा,मैं उसे काउंटर पर तैनात कर दूंगी और ऊपर चली आऊंगी।”

                    केदारनाथ मेरे नाना के समय का कर्मचारी था।उस पर शशि मौसी बहुत भरोसा करतीं।

                   “इस बीच अगर मां मर गईं तो मैं क्या करूंगा?” मेरा कलेजा फट चला।

                   “खबरदार,” शशि मौसी ने पहले मुझे एक चपत लगाई, फिर दूसरी, फिर तीसरी,फिर चौथी, “ऐसी अशुभ बात फिर कभी तू ने मुंह से उचरी तो…..”

                    “न!” मां का स्वर कांप- कांप गया, “मेरे चांद को मारो न…..”

                    “फिर ऐसी अशुभ बात तू ने कभी मुंह से उचरी तो मैं तुझे इस तीसरी मंज़िल  के चबूतरे से नीचे बाज़ार में फेंक दूंगी…..” शशि मौसी ने अपना हाथ खींच लिया।

                   “न,न,न,न,” मां की थरथराहट बढ़ गई, “मेरे चांद से ऐसे न बोलो…..”

                   जभी नीचे से सब्ज़ी वाले की आवाज़ ऊपर हमारे पास आन पहुंची : परवल, गोभी, पालक, पहाड़ी मिर्च, टमाटर…..

                   रसोई के लिए सब्ज़ी मां रोज़ ही लेतीं। जीने के चबूतरे से रस्सी के सहारे बंधी टोकरी नीचे लटकातीं और उस में सब्ज़ी लद जाने पर टोकरी ऊपर खींच लेतीं। जब कि सब्ज़ी का मूल्य नीचे दवाखाने से चुका दिया जाता।

                  उस दिन मां के बुखार के कारण शशि मौसी स्वंय सब्ज़ी लेने पर मजबूर रहीं।

                  इधर वह चबूतरे से नीचे खड़े सब्ज़ी वाले से पूछताछ करने में बढ़ीं तो उधर मैं छपाक से चबूतरे की तरफ़ झुक कर रेंगने लगा। चबूतरे से नीचे वह मुझे कैसे गिरा देंगी? जब कि उन के मुझे गिराने से पहले मैं ही उन्हें नीचे गिरा दूंगा?

                  “ जीजी को कुछ हो गया क्या?” जाने कैसे शशि मौसी ने मेरी आहट पकड़ ली और मां के बारे में सब से बुरा अंदाज़ा लगा कर सब्ज़ी की टोकरी वाली रस्सी छोड़ बैठीं, “हाय, मैं मर जाऊं…..”

                   लपक कर मां के पास पहुंचने की उतावली में शशि मौसी ने मुझे रास्ते से हटाना चाहा। 

                   चबूतरे का गलियारा बहुत संकीर्ण था और शशि मौसी के धक्के का दाब बहुत ज़ोरवार।

                   चबूतरे के नुकीले कगार से टक्कर खा कर मेरा माथा फूट गया और मैं दर्द से बिलबिला उठा।

                   शशि मौसी ने अपने कदम और नेत्र फिर भी न पिछेले। उन्हें वह बराबर मां के कमरे की ओर बढ़ातीं ले गईं।

                   मेेरे उस दर्द के साथ एक गहरी मायूसी भी आन जुड़ी : तीसरी मंज़िल के उस ऊंचे चबूतरे से शशि मौसी को नीचे बाज़ार में फेंक देने की जो योजना कुछ समय पहले मेरे मन में पकी थी,वह अमल में लाते- लाते रह गई थी।

 

                   मेरी मरहम- पट्टी और सब्ज़ी व उस की टोकरी की बहाली मेरे पिता ने अपने नहाने के उपरांत ही की।

                   नियमित स्वाभाविकता ग्रहण करते ही मैं मां के पास पहुंच लिया।

                   वह सो रही थीं और केदारनाथ उन की पहरेदारी में था।

                   “तुम नीचे शशि मौसी के पास दवाखाने में जाओ। मां के पास मैं रहूंगा।”

                    केदारनाथ के हटते ही मैं मां के बिस्तर के पास वाली कुर्सी पर बैठ कर सिसकियां भरने लगा।

                   अपेक्षानुसार मां शीघ्र ही जग गईं। 

                   “क्या बात है,मेरे चांद?” अपने बिस्तर पर मुझे बुला कर मां ने तप रहा अपना हाथ मेरे कंधे पर रख दिया।

                   “शशि मौसी मुझे तनिक प्यार नहीं करतीं,” आंसू मैं ने और टपकाए, “हमेशा उल्टा- सीधा बोलती हैं। उल्टा- सीधा समझती हैं।  देखती- जोखतीं कुछ हैं नहीं। बस हरदम मारने- पीटने पर उतारु रहती हैं…..”

                   मुझे डर था अवसर मिलते ही शशि मौसी किसी भी दिन मुझे तीसरी मंज़िल के उस चबूतरे से नीचे बाज़ार में फेंक देंगी।

                   “न,मेरे चांद न,” मां ने मेरी सुनी- अनसुनी कर दी, “शशि को दोष न दे। मेरी पीठ पर हुई वह मेरी सहोदरा है। वह मेरा अमंगल कभी न चाहेगी। न करेगी। उसी का बूता है जो शेर के मुंह में हाथ दे कर भी वह शेर को टाप मारने से रोक लेती है। शेर की मांद में अगर कहीं मैं अकेली रही होती तो कब की मसली जा चुकी होती…..”

                  “तुम्हारा शरीर बहुत गर्म है,” मेरे हाथ-पैर ठंडे हो गए, “मैं अभी शशि मौसी को बुलाता हूं…..”

                  पहली बार मैं ने सीढ़ियां आराम से पार कीं। फलांग कर नहीं।

                  पहली बार मैं दवाखाने में शशि मौसी की कुर्सी तक गया। दरवाज़े से शशि मौसी को चीख कर पुकारा नहीं।

                  पहली बार मैं शशि मौसी से लिपट कर रोया। बेगानों की भांति नहीं। सगों की भांति।