गांव की गलियों में जब सुबह की हल्की धूप मिट्टी पर उतरती है, तो वो सिर्फ रोशनी नहीं लाती, पुराने किस्सों की परछाइयाँ भी साथ लाती है। ये कहानी ऐसे ही एक गांव की है — जहां नियति ने एक मासूम लड़के के हिस्से में मोहब्बत लिखी, पर निभाने के लिए जीवन की सबसे बड़ी कुर्बानी भी मांग ली
उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव बरगांव में रहता था अर्जुन — शांत स्वभाव का, मेहनती, जिम्मेदार, आंखों में गहराई और चेहरे पर सादगी लिए।
परिवार छोटा था — मां श्यामा देवी, पिता हरिनाथ यादव, और छोटी बहन सीमा। पिता खेतों में मेहनत करते थे, बहन स्कूल जाती थी और मां... मां बीमार रहती थी।
जोउसे सांस की बीमारी थी — हर बदलते मौसम में तकलीफ बढ़ जाती। अर्जुन ने बचपन से मां को दवाओं और हांफती सांसों के बीच ही देखा था।
वो मां को बहुत चाहता था
जब अर्जुन सिर्फ सात साल का था, गांव की परंपरा के अनुसार उसका विवाह तय कर दिया गया था।
कुसुम नाम की लड़की थी — पास के गांव भोंदापुर से। दोनों परिवारों ने बचपन में ही यह रिश्ता पक्का कर दिया था।
अर्जुन को न कुछ समझ थी, न मंज़ूरी की जरूरत मानी गई। बस तय कर दिया गया कि वक्त आने पर कुसुम ही उसकी पत्नी बनेगी।
अर्जुन जब 15 साल का हुआ, तो उसने हाईस्कूल में दाखिला लिया।
वहीं उसकी पहली मुलाकात हुई अन्वी से — एक शांत, पढ़ने में तेज, और अपने आप में गहराई रखने वाली लड़की।
वो क्लास में दूसरी बेंच पर बैठती थी, और हमेशा किताबों में डूबी रहती थी।
अर्जुन को याद है — पहली बार उसने उसे देखा तो वो स्कूल के ग्राउंड में खड़ी थी, बाल खुले थे और आंखों में कुछ ऐसा था जिसे देखकर अर्जुन की नज़रें वहीं अटक गईं।
उस दिन के बाद से हर दिन उसे देखने की आदत बन गई।
वो कोई फिल्मी पल नहीं था, ना ही कोई खास बैकग्राउंड म्यूज़िक बजा था — लेकिन अर्जुन के भीतर कुछ ऐसा बदल गया था, जो शायद वो खुद भी नहीं समझ पाया था।
अन्वी अक्सर अपने सहेलियों के साथ हँसती, खेलती, और पूरी तरह से उस पल में जीती थी।
रंजना अन्वी की सबसे करीबी दोस्त थी — छोटी-सी, चुलबुली, हर समय कुछ ना कुछ बोलते रहने वाली। उसकी बातें चटपटी थीं, अंदाज़ मासूम और हँसी ऐसी कि आसपास का माहौल आनंदमय हो जाए।
अर्जुन अन्वी को दूर से देखता — कभी क्लास की खिड़की से, कभी स्कूल के ग्राउंड में बेंच पर बैठकर, कभी कभी यूँ ही उसके पेंसिल से उसके पन्नों पर जाने-अनजाने अन्वी की झलक उभरने लगी थी — कभी उसकी मुस्कान, कभी उसकी छोटे छोटे लहराते बाल, और कभी वो अधूरी-सी आंखें जिनमें कुछ कहने को था।
पर अर्जुन कभी करीब नहीं गया।
शायद डर था — कि अगर वो पास गया, तो ये जो दूरी में बनी खूबसूरती है, वो कहीं टूट न जाए।
या शायद वो जानता ही नहीं था कि अन्वी को देखते ही उसका दिन बन जाता है।
अर्जुन जानता था कि अन्वी से सीधे बात करना उसके बस की बात नहीं।
वो लड़की जिसे देखकर उसकी धड़कनें थोड़ी तेज़ हो जाती थीं, उससे दो शब्द कहना भी किसी बड़ी चुनौती जैसा लगता था।
स्कूल की छुट्टी के बाद कभी कभी ऐसा होता था
कि
अर्जुन और अन्वी कभी-कभी बाजार में टकरा जाते थे — जैसे कोई अनकही कहानी हर मोड़ पर उन्हें करीब लाने की कोशिश कर रही हो। वो मुलाकातें छोटी होती थीं, मगर उनके बीच एक खामोश जुड़ाव महसूस होता था। अन्वी अक्सर अपनी सहेली की दुकान के बाहर रुकती, और अर्जुन वहां से निकलते हुए उसकी एक झलक पा लेता।
गांव से कहीं दूर, पहाड़ियों के बीच बसा एक प्राचीन मंदिर था — । वहां हर साल चैत्र के महीने में भव्य आयोजन होता था: मेले, भजन, श्रद्धालुओं की भीड़, और मंदिर की घंटियों की आवाज़ पूरे अंचल में गूंजती थी।
लेकिन अर्जुन के लिए वह आयोजन किसी धार्मिक उत्सव से बढ़कर था।
वह वहां रोज जाता, बड़ी श्रद्धा से माथा टेकता — मगर उसकी असली पूजा अन्वी की झलक थी।
अर्जुन को न तो पता होता था कि अन्वी आएगी लेकिन फिर भी उसका इंतजार करता रहता था
लेकिन जैसे ही अन्वी आई
अर्जुन दूर से उसे निहारता, बिना कुछ कहे... जैसे उसकी उपस्थिति ही उसके लिए किसी वरदान से कम न हो।
मानो अन्वी भी अर्जुन के लिए ही आई हो
बो हमेशा अपनी दादी या अपनी सहेली के साथ आती थी
अर्जुन इस पल को हमेशा के लिए रोकना चाहता था
अर्जुन को पता है कि
चैत्र का महीना बीत रहा था। मंदिर का उत्सव खत्म हो रहा था। गांव की पगडंडियों पर अब चहल-पहल कम थी, मगर अर्जुन के दिल में एक हलचल लगातार चल रही थी।
अर्जुन के स्कूल का आख़िरी दिन था। अर्जुन अब शहर पढ़ने जा रहा था — एक नई शुरुआत, नए सपने। मगर एक सपना ऐसा था जो अब तक अधूरा था: अन्वी से अपने दिल की बात कहना।
उसने कई बार शब्दों को मन में दोहराया था, कई बार स्कूल की सीढ़ियों पर सोचते-सोचते उसका गला सूख गया था, लेकिन वो एक जुमला — "मैं तुमसे प्यार करता हूँ" — उसकी जुबां तक कभी नहीं पहुंच पाया।
स्कूल के आखिरी दिन जब सब दोस्त हँसी-ठिठोली में व्यस्त थे, अर्जुन की नजरें बस अन्वी को ढूंढ रही थीं।
लेकिन उनकी कोई मुलाकात नहीं हुई
अर्जुन अब शहर चला गया था — एक बड़े कॉलेज में दाख़िला मिला था, होस्टल की नई ज़िंदगी, नए दोस्त, नई दुनिया। लेकिन कुछ चीज़ें नहीं बदलीं — जैसे हर सुबह उठते ही अन्वी की याद आना, या मंदिर की घंटियों की वो आवाज़, जो अब सिर्फ उसकी स्मृतियों में गूंजती थी लेकिन उसको हमेशा यही एहसास होता रहता था कि अन्वी एक दिन उससे जरूर बात करेगी
शहर की हलचल भरी ज़िंदगी में अर्जुन अब पढ़ाई में व्यस्त था, मगर दिल का एक कोना अब भी उसी गांव में बसा था — स्कूल की उसी क्लास में , अन्वी की मुस्कान में।
एक शाम, जब अर्जुन कैंटीन में बैठा था, उसका फोन बजा।
"मणि कॉलिंग"
"अबे अर्जुन!" मणि की आवाज़ में कुछ खास था।
"तुझे पता है, आज स्कूल में क्या हुआ?"
"क्या?" अर्जुन ने बिना खास उत्साह के पूछा।
"मैं पीछे बैठा था… और अन्वी रंजना के साथ थी। तू जानता है न, वो दोनों हमेशा साथ होती हैं। मैंने सुना कि रंजना ने उससे कहा, ‘तू उसे इतना क्यों याद करती है? उसने तो तुझसे कुछ कहा भी नहीं।’
और अन्वी ने जो जवाब दिया… भाई, सुनकर रूह कांप गई!"
कहानी अभी बाकी है मेरे दोस्त........