Papa, that's enough now. in Hindi Short Stories by BleedingTypewriter books and stories PDF | पापा, अब बस।

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पापा, अब बस।

Chapter 1 – गांव की इच्छा

रात की ठंडी हवा ने पूरे गाँव को थपकी दी थी। अंधेरों में सिर्फ कुत्तों के भौंकने की आवाज़ थी, पर एक छोटी सी झलक सुबह की रौशनी भी पिघलने लगी थी। उसी रौशनी की एक हल्की सी किरण इच्छा के मासूम चेहरे पर पड़ती है।

इच्छा... एक छोटी सी गाँव की लड़की, जिसके सपने उसकी उम्र से बड़े थे। उसकी चादर उसके चेहरे पर से सरकती है, और वो अपनी नींद भरी आँखों से पलकें खोलती है। बाहर से बच्चों की आवाज़ें आ रही हैं — खुशी से छलकती हुई, निर्दोष।

> "इच्छा, जल्दी आ! नहीं तो हम चले जाएंगे!"
"इच्छा! जल्दी कर, कबड्डी खेलनी है!"

इच्छा उठती है, आँखों से नींद मलती है और ज़मीन पर पैर रखती है। खाली घर का सन्नाटा उसे एक पल के लिए अलग-सा महसूस कराता है। माँ कहीं दिखाई नहीं दे रही। पापा का तो कोई ठिकाना ही नहीं।

वो थोड़ा पानी लेकर अपने चेहरे पर छिड़कती है — जैसे कोई रानी दरबार में जाने के लिए तैयार हो रही हो। फिर मुस्कुराते हुए बाहर निकलती है।

बाहर बच्चे खड़े होते हैं।

> "अभी तक सो रही थी?" एक लड़का बोलता है।
"तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा? नहा कर आई हूँ! तुम्हारे जैसे नहीं हूँ!" — इच्छा तांग मारते हुए कहती है।

सब हँसने लगते हैं। खेल शुरू हो जाता है। कबड्डी की मिट्टी, शोर, और इच्छा की मुस्कान — सब कुछ जीने जैसा लगता है।

पर फिर... कुछ बच्चे उनके पास से गुजरते हैं। यूनिफॉर्म में, स्कूल बैग्स कंधे पर। वे स्कूल जा रहे हैं।

इच्छा की आँखों में एक छुपी सी चाहत चमक उठती है। वो उन्हें देखती है — जैसे एक सपना अपनी आँखों के सामने चलते हुए देख रही हो। उसका चेहरा खामोश हो जाता है। मिट्टी में खेलते पैर रुक जाते हैं।

उसने कभी स्कूल नहीं देखा। यूनिफॉर्म नहीं पहनी। उसका स्कूल तो सिर्फ सपनों में था — और अब वो सपना उसके सामने ज़िंदा था।

Chapter 2 – माँ का बोझ

इच्छा ने कभी अपनी माँ को आराम करते नहीं देखा। रमा सुबह से शाम तक काम करती — कभी किसी के खेत में, कभी गली के पार के ईंट-भट्ठे में, और कभी चूल्हे के सामने, जहाँ उसकी आँखों से ज़्यादा धुआँ निकलता था।

उस दिन जब इच्छा खेल से घर आई, तो माँ उससे पहले ही वापस आ चुकी थी — लेकिन कुछ अजीब था।

> "माँ, आप आज जल्दी आ गईं?" इच्छा ने पूछा, जैसे उसकी आवाज़ में एक हल्का सा उल्लास हो।

रमा ने थकी हुई मुस्कान के साथ कहा —

> "हाँ बच्ची, आज काम से निकाल दिया गया। उन्हें नए लोग चाहिए थे, ज़्यादा ताक़त वाले।"

इच्छा कुछ नहीं बोली। थोड़ा सोचकर बोली —

> "माँ, स्कूल के बच्चे रोज़ यूनिफ़ॉर्म में होते हैं… मैं कब जाऊंगी स्कूल?"

रमा थोड़ी देर चुप रही। उसके चेहरे पर मज़बूरी की लकीरें और गहरी हो गईं।

> "बेटा… जिनके पिता शराबी नहीं होते, वही अपने बच्चों का दाख़िला कराते हैं। तेरे पापा के पास वक़्त भी नहीं है, और पैसे भी नहीं…"

इच्छा ने माँ की आँखों में देखा। उसने माँ को पहली बार इतना मजबूर महसूस किया। पर उसकी आवाज़ में एक नया हौसला था —

> "अगर पापा शराब छोड़ दें… तो क्या मैं भी स्कूल जा सकती हूँ?"

रमा ने आँखों से आँसू पोंछे, फिर ज़मीन की तरफ़ देखा 

> "हाँ… जा सकती है। पर तेरे पापा कभी नहीं छोड़ेंगे, बेटा…"

इच्छा ने माँ की बात नहीं मानी। उसने सिर झुका लिया — लेकिन दिल में कुछ तय कर लिया था।

उस दिन पहली बार, इच्छा ने सिर्फ़ सपना नहीं देखा… सपने को सच करने का इरादा बनाया।

उसने तय कर लिया था —

> "अगर माँ ने ज़िंदगी भर बोझ उठाया है, तो अब मेरी बारी है… पापा को संभालने की, घर को संभालने की।"

और ये कहानी सिर्फ़ एक सपने की नहीं, एक ज़िद्द की कहानी बन गई थी।

Chapter 3 – तीन भूत

शाम ढल रही थी। इच्छा की माँ चूल्हे के पास बैठी दाल पका रही थी। घर में ख़ामोशी थी, पर हवा कुछ अजीब सी थी — जैसे कोई तो आने वाला हो, कोई जिसे इच्छा का दिल पहचान गया था।

फिर अचानक...

बाहर से लहराते क़दमों की आवाज़ आई — धीमे, लड़खड़ाते हुए।

इच्छा ने तुरंत माँ की तरफ देखा —

> "लगता है पापा आ गए…"

रमा ने बिना कुछ कहे सिर झुका लिया।

> "हाँ... फिर से पी के आए होंगे।"

इच्छा दौड़ती है, और घर के बाहर जाकर देखती है — मोहन, उसका पापा, शराब के नशे में झूमते हुए आँगन में घुस रहा होता है। आँखें लाल, हाथ खाली, जेब भी ख़ाली।

> "बस कर दो, मोहन!" — रमा कहती है, आँखों में आँसू और आवाज़ में ग़ुस्सा।
"पीने के लिए पैसा है, लेकिन घर में चावल तक नहीं है! बेटी ने कुछ खाया भी नहीं…!"

मोहन कुछ बोलता नहीं, बस नशा उतरने का नाटक करता है।

> "मैं कल से पीना छोड़ दूँगा, रमा। सच्ची। काम पर जाऊँगा… पैसा कमाऊँगा…"

इच्छा चुपचाप खड़ी सब सुन रही होती है। मोहन उसे देखता है, उसकी आँखों में नरमी आ जाती है।

> "बच्ची, तू मेरी क़सम ले… मैं पीना छोड़ दूँगा।"

वो इच्छा के सिर पर हाथ रखता है।

> "क़सम खाता हूँ, तुझसे वादा करता हूँ…"

रमा आँखें बंद कर लेती है।

> "तुम हर दिन यही कहते हो, मोहन…"


अगले दिन सुबह, इच्छा ने एक नया काम किया। पापा के साथ, वो भी तैयार हो गई। न स्कूल के लिए, न खेल के लिए — बल्कि एक मिशन के लिए।

वो पापा के कंधे पर बैठी — जैसे कोई रानी अपने सैनिक के घोड़े पर।

> "मैं आपके साथ काम पर चलूँगी, डैड। आज से आपके पीने की छुट्टी।"

मोहन मुस्कुराता है, पर आँखों में झिझक है।

> "तू छोटी है, बच्ची… घर जा…"

पर इच्छा ज़िद करती है —

> "नहीं जाऊँगी!"

तभी… सामने से तीन आदमी आते हैं — रामप्रकाश, गज्जू, और बब्लू। गाँव के लफंगे, नशे के साथी, मोहन के असली “दोस्त”।

इच्छा उन्हें दूर से देखते ही चिल्लाती है —

> "पापा… तीन भूत आ रहे हैं!"

मोहन हिचकिचाता है —

> "इच्छा, ऐसे मत बोल…"

वो तीनों आकर हँसते हैं —

> "अरे मोहन! बच्ची के साथ कहाँ जा रहा है? चल, थोड़ा पऊवा मार के आते हैं…"

इच्छा का चेहरा कठोर हो जाता है —

> "पापा! नहीं। आज नहीं।"

मोहन थोड़ा हिलता है…

> "मैं… मैं काम पर ही जा रहा था… पर थोड़ी देर…"

> "मैं घर जा रही हूँ!" — इच्छा ग़ुस्से में कहती है,
"आप जाइए भूतों के साथ!"

मोहन एक पल के लिए देखता है — फिर बच्ची को नीचे उतार देता है।

और फिर… बिना कुछ कहे, तीन भूतों के साथ चला जाता है।

इच्छा चुप हो जाती है। सिर झुकाकर घर की तरफ लौटती है।

उसकी पीठ से पहले ज़ख़्म नहीं दिखते —
पर उसका दिल… तोड़ दिया गया होता है।

Chapter 4 – कसम, या नशा?

रात हो चुकी थी। घर में चूल्हा बुझ गया था, और हवा में थकान थी — सिर्फ इच्छा की माँ, रमा, चुपचाप मिट्टी के चूल्हे के पास बैठी थी, जैसे किसी फ़ैसले का इंतज़ार कर रही हो।

तभी...

फिर वही आवाज़ — लड़खड़ाते क़दमों की। मोहन फिर से पीकर लौट रहा था।

रमा ने आँखें बंद कर लीं। इच्छा भागती हुई बाहर गई।

मोहन ज़मीन पर गिरते-गिरते बचा। उसके हाथ में फिर वही बोतल थी — हर बार की तरह।

इच्छा चुप थी। रमा तो बस फटकारने लगी —

> "फिर से पी कर आया? घर में कुछ खाने को नहीं, बेटी ने कुछ नहीं खाया। मुझे काम से निकाल दिया गया… और तू फिर भी पीता रहा?"

मोहन बेहाल था, आँखों में लज्जत भी थी और लाचारी भी।

> "रमा… मैं कल से सच में नहीं पियूँगा। कसम खाता हूँ…"

> "तू हर दिन कसम खाता है, मोहन! पर उस बच्ची को क्या बताएँ? जो हर दिन सपना देखती है स्कूल जाने का…"

तभी...

बाहर से ज़ोर से चीख़ने की आवाज़ आई।

> "मोहन! बाहर आ, मेरे पैसे दे!"

एक आदमी, सुनो, जिसका पैसा मोहन ने शराब के लिए उधार लिया था, ग़ुस्से में चिल्लाता हुआ आँगन में आ गया।

रमा:

> "तुम्हें शर्म नहीं आती? औरत और बच्ची के घर ऐसे चिल्लाते हो?"

सुनो ने ग़ुस्से में रमा का हाथ पकड़ लिया —

> "मुझे पैसे चाहिए, वरना ले जाऊँगा जो ले जा सकता हूँ!"

इच्छा ने सब देखा… उसके छोटे से दिल में एक तूफ़ान उठ गया।

उसने सुनो के हाथ पर ज़ोर से काट लिया!

> "मेरी माँ को हाथ मत लगाना!"

सुनो चीख़ता है — "कुत्ते की बच्ची!"

वो इच्छा को मारने के लिए बढ़ता है… पर उससे पहले, गाँव की बूढ़ी औरतें और कुछ लोग आ जाते हैं।

> "अरे! औरत और बच्चों पे हाथ उठाता है? शर्म कर रे इंसान!"
"शराबी से पैसे लेकर तू क्या अच्छा हुआ?"
"गलती मोहन की है, तू भी कम नहीं!"

गाँव वाले ग़ुस्से में आ जाते हैं। सुनो नज़र झुकाकर निकल जाता है।

इच्छा की आँखों में आँसू होते हैं… उसने सिर्फ माँ की रक्षा की थी, पर उसका बचपन वहीं, उस पल, और भी छोटा हो गया था।

मोहन चुप था। उसने सब देखा।

इच्छा ने सिर्फ एक लाइन बोली —

> "डैड, मैं आपको नहीं पीने दूँगी। मैं आपको सुधार के रहूँगी।"

मोहन ने पहली बार कसम खाई — बिना नशे के।

उस रात मोहन ने शराब नहीं छुई।

पर क्या वो अपने इरादे पर टिक पाएगा?
अध्याय 5 – लाठी वाली बेटी

सुबह का वक़्त था। सारे बच्चे खेतों में कबड्डी खेलने के लिए इच्छा को बुलाने आए। रामा बाहर आईं, हाथ में आटे का लेप लगा था।

> “इच्छा तो अपने पापा के साथ काम पर गई है।”

सारे बच्चे हैरान रह गए। “इतनी छोटी इच्छा? पापा के साथ?”

दृश्य बदला।
खेतों के बीच एक पगडंडी है, जहाँ इच्छा अपने पापा मोहन के कंधे पर बैठी है, हाथ में एक बड़ी सी लाठी — जैसे किसी जंग के लिए निकली हो।

मोहन मुस्कुराकर पूछता है:

> “बच्ची, ये लाठी क्यों लाई है?”

इच्छा हँसते हुए कहती है:

> “आज तीन भूत भगाने हैं!”

मोहन थोड़ा डर गया।

> “अरे नहीं... ऐसे नहीं कहते बेटा...”

तभी सामने से रामप्रकाश, गज्जू और बब्लू — वही तीन दोस्तों का झुंड — आते दिखते हैं। उनके चेहरे पर आधी शराबी हँसी, आधी खिल्ली थी।

> “अरे मोहन! आज तो इच्छा रानी बन गई, कंधे पे बैठी है!”

इच्छा ग़ुस्से से उन्हें देखती है।
उनका मज़ाक चुभता है — हर बार की तरह।

बब्लू कहता है:

> “चल रे मोहन, थोड़ा घूम के आते हैं, फिर काम पे चले जाना।”

मोहन हिचकिचाता है।

> “मैं... मैं तो बस...”

इच्छा तुरंत मोहन के कंधे से नीचे कूदती है।

> “डैड, नहीं! आज नहीं! मैंने कहा था न, तीन भूत भगाने हैं!”

उसने अपनी लाठी उठाई — और बब्लू के पैरों के पास ज़ोर से पटकी।

सब हैरान। तीनों दोस्तों के चेहरे पर डर था।

> “चले जाओ यहाँ से! मेरे पापा को फिर से मत बिगाड़ो। तुम तीनों हो भूत! और मैं हूँ — लाठी वाली बेटी!”

गाँव के लोग दूर से तमाशा देख रहे थे। पहली बार उन्होंने देखा कि एक छोटी सी बच्ची ने शराबियों को भगा दिया।

बब्लू हिचकिचाता है। गज्जू पीछे हटता है। रामप्रकाश हँसते हुए बोलता है:

> “अरे मोहन, तू तो बच्चों से डरने लगा?”

मोहन ने इच्छा की आँखों में देखा। वो आँखें जो प्यार से ज़्यादा यक़ीन से भरी थीं —

> "मेरे लिए खुद पे विश्वास करना सीखो, पापा।"

और उस पल, मोहन ने पहली बार कहा:

> “मैं नहीं जाऊँगा। मैं काम पर जा रहा हूँ, बस।”

तीन भूत पहली बार ख़ामोशी में लौट गए।

इच्छा ने लाठी अपने कंधे पर रखी, और मोहन से कहा:

> “पापा, चलो। आज सच में काम करने का दिन है।”

मोहन ने कहा:

> “आज तू सिर्फ मेरी बेटी नहीं... मेरी ताक़त है।”

अध्याय 6 – टूटता भरोसा

दो हफ़्ते हो चुके थे। गाँव के लोग हैरान थे, मोहन हर रोज़ खेतों में काम करने जाता — बिना पिए। हर दिन इच्छा उसके कंधे पर बैठी लाठी लेकर निकलती, जैसे किसी मिशन पर जा रही हो।

रामा भी मुस्कुराने लगी थी।

> “मोहन, लगता है तू बदल गया है…”

> “नहीं रामा,” मोहन कहता, “मैं इच्छा के लिए बदला हूँ।”

हर शाम घर में रोटी-सब्ज़ी बनती, सब एक साथ बैठकर खाते।
एक दिन रामा ने कहा:

> “अब तो इच्छा का स्कूल में दाख़िला करा दो।”

इच्छा का चेहरा खिल गया।

> “मैं भी स्कूल जाऊँगी? यूनिफॉर्म पहनूँगी? बैग भी लाओगे पापा?”

मोहन ने उसका हाथ पकड़ा।

> “कल ही बाज़ार जा रहा हूँ। तेरे लिए स्कूल का बैग, किताबें, सब कुछ लाऊँगा।”

रामा ने कहा:

> “और मैं कल स्कूल जाकर दाख़िले की बात करूँगी।”

इच्छा की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।

🌙 शाम का वक़्त

इच्छा दरवाज़े पर बैठी थी, आँखों में एक अलग सी चमक। हर पल देख रही थी — कब पापा लौटकर उसके हाथ में बैग और किताबें देंगे।

रामा ने कहा:

> “इच्छा, खाना खा ले। बाज़ार दूर है, देर हो सकती है।”

इच्छा ने मुस्कुराकर कहा:

> “नहीं माँ, पहले बैग देखूँगी, फिर खाना खाऊँगी।”

तभी...

दरवाज़े पर मोहन नज़र आया — लड़खड़ाते क़दम, लाल आँखें, हाथ में बैग नहीं... शराब की बोतल थी।

इच्छा की आँखों से वो चमक एक झटके में चली गई।

रामा ने मुँह मोड़ लिया:

> “मुझे पता था। ये कभी नहीं सुधर सकता।”

तीन दोस्त उसके साथ थे, हँसी उड़ा रहे थे।

इच्छा चिल्लाई:

> “पापा, मत पियो! मुझे स्कूल जाना है!”

तीन दोस्त हँसे:

> “अरे रे… अब तो ये बच्ची भी लेक्चर देने लगी!”

इच्छा ने कहा:

> “निकल जाओ मेरे घर से! वरना लाठी से मारूँगी!”

तभी... मोहन के अंदर का नशा फूट पड़ा।

उसने इच्छा को ज़ोर का थप्पड़ मार दिया।
वो गिर गई, पीछे — मिट्टी में।

तीन दोस्त और ज़्यादा हँसे।
रामा भाग कर बाहर आई।

> “इच्छा!!”

इच्छा ज़ोर ज़ोर से रो रही थी।

> “पापा ने मारा... मुझे मारा... मुझे मारा…”

उसकी चीख सुनकर पूरा गाँव जाग गया।

मोहन बोतल लेकर कोने में बैठा रहा… बेहाल, शर्मिंदा, लेकिन नशा उस पर भारी था।

उस रात इच्छा रोते-रोते सो गई।
और मोहन… सिर्फ बोतल से चिपक कर बैठा रहा — अपने ही वचन तोड़कर।

अध्याय 7 – बुख़ार और माफ़ी

सुबह के पाँच बजे थे।
घर में सब सो रहे थे — पर मोहन को नींद नहीं आई।
उसने पहली बार अपनी बच्ची के मुँह से वो लफ़्ज़ सुने थे, जो एक बाप के दिल को चीर देते हैं:

> “मुझे मारा... पापा ने मुझे मारा...”

उसने आँखें खोलीं, तो देखा —
इच्छा उसके पास बैठी है, आँखें बंद, चेहरा लाल, साँसें तेज़।

> “इच्छा?”
“इच्छा, क्या हुआ बच्चा?”

इच्छा कुछ नहीं बोलती, बस एक ही लाइन दोहराती है:

> “मुझे मारा...”

उसका शरीर जल रहा था —
बुख़ार ने उसके छोटे से जिस्म को झकझोर दिया था।

मोहन घबरा गया।

> “रामा! रामा जल्दी आओ! इच्छा को क्या हो गया!”

रामा दौड़ती हुई आई,
इच्छा को छुआ — उसका शरीर अंगारे जैसा था।

> “इसने शराब पी ली क्या?” रामा चीख़ी।

मोहन ने देखा, बोतल ख़ाली थी।

> “नहीं... नहीं... ये तो मैंने छोड़ दी थी... क्या इच्छा ने...?”

रामा का ग़ुस्सा ज्वाला बन गया:

> “तूने मुझे बर्बाद किया मोहन, अब मेरी बच्ची को भी खत्म कर देगा क्या? तुझे मर जाना चाहिए!”

इच्छा बस एक ही बात बार-बार बोलती रही:

> “मुझे खुश होना था... इसीलिए पी ली...
पापा कहते हैं शराब से दुख नहीं होता…”

मोहन टूट गया।
पीठ के ज़ख़्म, दर्द, गालियाँ – ये सब कुछ
छोटी सी इच्छा ने अंदर ही अंदर पी लिया था।

रामा और मोहन ने मिलकर उसे डॉक्टर के पास ले जाया।


🏥 डॉक्टर का कमरा

डॉक्टर बाहर आया, ग़ुस्से में बोला:

> “आप लोगों को शर्म नहीं आती? इतनी छोटी बच्ची को शराब? उसकी जान जा सकती थी!”

मोहन सिर झुकाए रो रहा था।
रामा तो बस देखती रही —
जिस पति पर कभी भरोसा किया था,
अब उससे सिर्फ़ घृणा होती थी।

कुछ देर बाद, डॉक्टर ने कहा:

> “बच्ची अब स्थिर है। मिल सकते हो।”

💔 अस्पताल का पलंग

इच्छा आँखें खोलती है। कमज़ोर है, लेकिन होश में है।
रामा प्यार से बोलती है:

> “बच्ची... तूने शराब क्यों पी?”

इच्छा बस इतना कहती है:

> “पापा ने कहा था पीने से दुख नहीं होता...
मुझे भी दुख हो रहा था...”

मोहन उसके पास खड़ा था।
आँखों में आँसू, दिल में अपराधबोध।

> “इच्छा... मुझे माफ़ कर दे...
मैं पहले भी कसम खाता था...
पर आज तुझे देखकर कसम तोड़ने का दर्द समझ आया।”

> “मैं कभी नहीं पियूँगा। कभी भी नहीं।”

इच्छा ने बस हाथ बढ़ाया।
मोहन ने उसका हाथ अपने से चिपका लिया।

> “अब मुझे स्कूल भेजना...
सब कहते हैं मैं सिर्फ़ शराबी की बेटी हूँ...”

मोहन बोला:

> “नहीं...
तू अब एक शराबी को सुधारने वाली बेटी है।”

अध्याय 8 – एक नई क़सम

इच्छा अस्पताल से घर लौट आई थी।
उसके चेहरे पर कमज़ोरी थी,
लेकिन आँखों में एक नई रौशनी —
जैसे हर आँसू के बाद अब एक नई सुबह आ गई हो।

उस दिन के बाद मोहन ने शराब को हाथ भी नहीं लगाया।
न बोतल, न बोतल वाले दोस्त — कुछ भी नहीं।

रामा भी हैरान थी।
हर रात, मोहन इच्छा के पास बैठता, उसका माथा चूमता, और कहता:

> “तेरे लिए ज़िंदा हूँ बच्ची… तेरी क़सम है मुझे।”

इच्छा फिर से मुस्कुराने लगी थी।
उसने अपनी ड्राइंग में एक घर बनाया, एक स्कूल बनाया, और एक पापा बनाया — हाँ, बिना बोतल के।

🌤️ दो हफ़्ते बाद

इच्छा, रामा और मोहन एक थाली में बैठकर खाना खा रहे थे।
मोहन ने कहा:

> “कल बाज़ार जा रहा हूँ। इच्छा के लिए स्कूल का बैग और किताबें लाऊँगा।”

इच्छा ने ख़ुशी से ताली बजाई:

> “मैं भी स्कूल जाऊँगी! यूनिफॉर्म भी पहनूँगी!”

रामा बोली:

> “मैं कल स्कूल जाकर एडमिशन की बात करूँगी।”

इच्छा पापा से बोली:

> “मुझे स्कूल के पहले बैग चाहिए,
वरना मैं सिर्फ़ सपना ही देखती रह जाऊँगी।”

मोहन हँसा:

> “कल सुबह सब कुछ लेकर आऊँगा।”

🌇 शाम का वक़्त

इच्छा दरवाज़े पर बैठी थी।
सूरज ढल चुका था।
रामा ने कहा:

> “बाज़ार दूर है... तू खाना खा ले।”

> “नहीं माँ… पहले पापा को देखूँगी…”

तभी दूर से मोहन दिखाई दिया…
हाथ में एक नया बैग था, किताबें थीं…
और चेहरा — फख्र से भरा हुआ।

इच्छा दौड़ के गई।

> “मेरे लिए है ये सब?”

> “हाँ मेरी बच्ची… ये सब तेरे लिए है।”

इच्छा बैग को गले लगा लेती है।
उसकी आँखों में आँसू थे — ख़ुशी के।

मोहन ने गाँव के बीच सबको बुलाया।
रामप्रकाश, गज्जू, बब्लू — सब आए।

मोहन सबके सामने खड़ा हुआ —
उसके हाथ में बोतल नहीं थी,
एक लाठी थी — जो कभी इच्छा ले जाया करती थी।

> “आज मैं सबके सामने क़सम खाता हूँ…
कि मैं कभी शराब नहीं पियूँगा…
और अपनी बेटी को पढ़ाऊँगा, लिखाऊँगा…
उसे सबसे बड़ा आदमी बनाऊँगा।”

सभी लोग तालियाँ बजाने लगे।
रामप्रकाश ने आँखों में आँसू लेकर कहा:

> “तू जीत गया, मोहन। तू जीत गया…”

मोहन इच्छा को कंधे पर उठाता है।
इच्छा कहती है:

> “पापा… देखो, तीन भूत फिर से आ गए!”

मोहन मुस्कुराता है:

> “आज उनका इलाज मेरे पास भी है…”

वो लाठी उठाता है — और इच्छा के हाथ में दे देता है।

इच्छा हँसते हुए उन तीनों के पीछे भागती है —
और गाँव की गलियों में एक आवाज़ गूंजती है:

> “पापा, अब बस।”

अध्याय 9 – यूनिफ़ॉर्म वाली जीत (अंतिम अध्याय)

सुबह के 6 बजे थे।
रामा ने टिफ़िन पैक किया,
एक बार फिर पूरी मुस्कान के साथ इच्छा के बाल बनाए —
जैसे किसी सपने को चोटी में बाँध रही हो।

मोहन खड़ा था — एक नए कुर्ते में।
कंधे पर अब तौलिया नहीं था,
बल्कि अपनी बेटी का स्कूल बैग।

> “इच्छा, चलो… स्कूल का वक़्त हो गया।”

इच्छा स्कूल की यूनिफ़ॉर्म में निकली —
नई ड्रेस, नए जूते,
और पीठ पर मोटी किताबों वाला बैग।

गाँव के सब लोग चौखट पर खड़े थे —
जैसे कोई नई दुल्हन जा रही हो।

मोहन ने उसे कंधे पर उठाया।

रामा ने प्यार से कहा:

> “जल्दी आना, मेरी बेटी।”

इच्छा चिल्ला के बोली:

> “माँ, आज से मैं भी एक सपना हूँ… जो सच हो गया!”

🛤️ रास्ते पर

मोहन और इच्छा निकल चुके थे।
गाँव के बच्चों ने ताली बजाई।
कुछ औरतें तो आँसू पोंछती दिखीं।

तभी रामप्रकाश, गज्जू और बब्लू सामने आए।

इच्छा बोली:

> “पापा… तीन भूत!”

मोहन हँसा:

> “बच्ची, अब मुझे उनसे डर नहीं लगता।”

और मोहन ने अपनी लाठी उठाई…
इच्छा को दे दी।

इच्छा ने चिल्ला कर कहा:

> “भागो भूत लोग! मैं स्कूल जा रही हूँ!”

तीनों दोस्त हँसते हुए हट गए।

🎓 स्कूल के गेट पर

इच्छा ने मुँह ऊपर उठाकर स्कूल की बिल्डिंग को देखा।

> “इतनी बड़ी है माँ…” — उसके दिल में एक डर भी था, और एक हिम्मत भी।

मोहन ने उसका हाथ पकड़ा:

> “अब तू सिर्फ़ मेरी बेटी नहीं… तू मेरी जीत है।”

प्रिंसिपल ने पूछा:

“यही है नई स्टूडेंट इच्छा?”

रामा ने हाँ में सिर हिलाया।

प्रिंसिपल बोले:

“ये बेटी नहीं… ये मिसाल है।”

🌟 अंतिम पंक्तियाँ:

गाँव में हर कोई कहता था:

“शराबी मोहन की बेटी पढ़ रही है…”

पर कुछ साल बाद, सबने कहा:

 “डॉक्टर इच्छा… वही न?
जो कभी कंधे पर बैठकर अपने पापा को सुधारा करती थी…”