डॉ. आंबेडकर के प्रति दुर्व्यवहार
स्वतंत्रता-पूर्व के दौर के नेताओं में कोई भी ऐसा नहीं था, जो अकादमिक और लेखन की उनकी गुणवत्ता एवं बुद्धिमत्ता का मुकाबला कर सके। अगर वे एक नंबर पर आते थे तो बाकी ग्यारह नंबर से शुरू होते थे। आंबेडकर ने बंबई विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान में बी.ए.; कोलंबिया विश्वविद्यालय, यू.एस.ए. से अर्थशास्त्र में एम.ए.; लंदन स्कूल अॉफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र एवं वित्त में एम.एस-सी.; कोलंबिया विश्वविद्यालय से वित्त में पी-एच. डी.; लंदन स्कूल अॉफ इकोनॉमिक्स से अर्थशास्त्र में डी.एस-सी. (डॉक्टर अॉफ साइंस) और लंदन के ग्रे इन से बैरिस्टर-एट-लॉ किया था। अब इसकी तुलना नेहरू की द्वितीय श्रेणी वाली स्नातक की डिग्री से करें, जो उनकी एकमात्र डिग्री थी।
स्वतंत्रता के बाद आंबेडकर को देश के पहले कानून मंत्री के रूप में सेवा करने के लिए आमंत्रित किया गया। इसके अलावा, उन्हें संविधान का प्रारूप तैयार करने वाली समिति का अध्यक्ष भी चुना गया। उन्होंने गर्व के साथ कहा, “हिंदुओं को वेद चाहिए थे और उन्होंने व्यास को भेजा, जो जाति से हिंदू नहीं थे। हिंदुओं को महाकाव्य चाहिए था, उन्होंने वाल्मीकि को भेजा, जो अछूत थे। हिंदुओं को एक संविधान चाहिए और उन्होंने मुझे चुना है।” (मैक/25)
डॉ. आंबेडकर के लेखन में तर्क ज्ञान और विश्लेषण बेहद प्रभावशाली है, नेहरू से कई गुना अधिक उत्कृष्ट। आंबेडकर सभी प्रासंगिक क्षेत्रों में नेहरू से कहीं अधिक सक्षम और जानकार थे। इसके अलावा, वे अधिक समझदार और अनुभवी थे, क्योंकि वे आजादी से पहले कई महत्त्वपूर्ण विभागों को सँभाल चुके थे।
अगर सरदार पटेल या आंबेडकर में से कोई एक भारत का पहला प्रधानमंत्री बना होता तो भारत को काफी लाभ होता; या अगर आंबेडकर वित्त मंत्री ही बने होते। लेकिन क्या नेहरू ने आंबेडकर की अपार प्रतिभाओं का उपयोग करने की कोशिश की? नहीं। नेहरू कभी आंबेडकर के साथ संलग्न नहीं हुए। आंबेडकर की तीक्ष्ण बौद्धिक योग्यता के चलते शायद उन्हें हीन-भावना से ग्रस्त कर दिया था और वे उनसे दूर ही रहते थे। नेहरू को सिर्फ ‘चमचे’ और पिछलग्गू चाहिए थे। 27 सितंबर, 1951 को नेहरू के मंत्रिमंडल से डॉ. आंबेडकर द्वारा दिए गए त्यागपत्र के कुछ अंश प्रस्तुत हैं—
“वायसराय की कार्यकारी परिषद् का सदस्य रहने के चलते मुझे इस बात का पता था कि प्रशासनिक रूप से कानून मंत्रालय का कोई महत्त्व नहीं है। इसमें भारत सरकार के नीति-निर्धारण का कोई अवसर नहीं मिलता। हम इसे साबुन का एक खाली डिब्बा कहा करते थे, जो सेवानिवृत्त अधिवक्ताओं के खेलने का एक अच्छा साधन था। जब प्रधानमंत्री (अपनी मरजी से नहीं, बल्कि गांधी के जोर देने पर) ने मुझे प्रस्ताव दिया (कानून मंत्री) तो मैंने उन्हें बताया कि मैं एक वकील होने के अलावा अपनी शिक्षा व अनुभव के आधार पर प्रशासनिक विभागों को सँभालने में भी सक्षम हूँ। वायसराय की पुरानी कार्यकारी परिषद् में भी मेरे पास दो प्रशासनिक विभाग थे—श्रम और सी.पी.डब्ल्यू.डी., जहाँ मेरे द्वारा कई नियोजन परियोजनाओं को सफलता पूर्वक सँभाला गया। इसलिए मैं कोई प्रशासनिक पोर्टफोलियो चाहता हूँ। प्रधानमंत्री ने सहमति व्यक्त की और कहा कि वे मुझे कानून के साथ योजना विभाग का कार्यभार भी देंगे, जिसे वे जल्द ही बनाने जा रहे थे। दुर्भाग्य से, योजना विभाग का गठन काफी देरी से हुआ और जब यह अस्तित्व में आया तो मुझे बाहर रखा गया। मेरे समय के दौरान मंत्रियों को एक पोर्टफोलियो से दूसरे में भेजा जाता रहा। मुझे लगा कि मेरे नाम के ऊपर उनमें से किसी एक पर विचार किया जा सकता है; लेकिन मेरे नाम पर कभी विचार ही नहीं किया गया। कई मंत्रियों को दो से तीन विभाग दिए गए, जिसके चलते वे काम के बोझ में दब गए हैं। मेरे जैसे लोग और काम चाह रहे हैं।
“ ...मैं यह नहीं समझ पाया हूँ कि प्रधानमंत्री किस आधार पर मंत्रियों के बीच सरकारी कामों का बँटवारा करते हैं? क्या वह क्षमता है? क्या वह भरोसा है? क्या वह दोस्ती है? क्या वह लचीलापन है? मुझे मंत्रिमंडल की मुख्य समितियों, जैसे—विदेश मामलों की समिति या रक्षा समिति के सदस्य के रूप में भी नियुक्त नहीं किया गया। आर्थिक कार्य समिति का गठन किया गया तो यह देखते हुए मुझे उम्मीद थी कि मेरी पृष्ठभूमि वित्त और अर्थशास्त्र की रही है, इसलिए मुझे इस समिति में जरूर शामिल किया जाएगा। लेकिन मुझे शामिल नहीं किया गया।” (आंब.5)
संसद् और मंत्रिमंडल में उनकी प्रतिभा के आधार पर उन्हें एक पद देने के बजाय नेहरू ने उनके खिलाफ षड्यंत्र किए और चुनावों में उन्हें हरवाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया।
20 अगस्त, 2012 को ‘आउटलुक’ पत्रिका में छपे एक लेख ‘ए केस फॉर भीम राज्य’ में एस. आनंद एक चौंकाने वाली घटना का वर्णन करते हैं—
“आखिर में, हम अब आंबेडकर के जीवन के सबसे बुरे अपमानों में से एक के साथ शुरू करते हैं, जो उनकी मृत्यु से सिर्फ तीन महीने पहले की घटना है। 14 सितंबर, 1956 को उनके अपने 5 लाख के करीब अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म अपनाने से ठीक महीना भर पूर्व, उन्होंने 26, अलीपुर रोड, दिल्ली के अपने निवास से प्रधानमंत्री को एक मार्मिक पत्र लिखा। अपने यादगार ग्रंथ, ‘द बुद्ध ऐंड हिज धम्म’ की विषय-सूची की दो प्रतियाँ संलग्न करते हुए आंबेडकर ने अपने गर्व को नीचे दबा लिया और अपनी उस पुस्तक को, जिसे उन्होंने पाँच वर्षों की कड़ी तपस्या के बाद पूरा किया था, के प्रकाशन में सहयोग माँगा—मुद्रण की लागत बहुत अधिक है और करीब 20,000 रुपए का खर्चा आएगा। यह मेरी क्षमता से परे है, इसलिए मैं सभी क्षेत्रों के लोगों से मदद माग रहा हूँ। मैं चाहता हूँ कि भारत सरकार विभिन्न पुस्तकालयों और उन विद्वानों को देने के लिए इसकी 500 प्रतियाँ खरीद ले, जिन्हें बुद्ध की 2500वीं जयंती पर आयोजित होने वाले कार्यक्रमों में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है।
“आंबेडकर को तब तक बहिष्कार झेलने की आदत पड़ चुकी थी। अशोक के बाद बौद्ध धर्म के सबसे बड़े प्रतिपादक को बहुत बेदर्दी से बुद्ध जयंती समिति से बाहर रखा गया था, जिसकी अध्यक्षता तत्कालीन उप-राष्ट्रपति एस. राधाकृष्णन कर रहे थे। नेहरू ने अगले दिन आंबेडकर को जो जवाब दिया, वह और भी बदतर था। उन्होंने कहा कि ‘बुद्ध जयंती पर प्रकाशन के काम के लिए जो राशि तय की गई थी, वह पहले ही खर्च हो चुकी है और उन्हें संस्मारक समिति के अध्यक्ष डाॅ. राधाकृष्णन से संपर्क करना चाहिए।’ नेहरू ने अनावश्यक तरीके से कुछ व्यापारिक सलाह भी दी, ‘मैं आपको सुझाव देना चाहता हूँ कि आप अपनी पुस्तक को बुद्ध जयंती के समय दिल्ली और अन्य स्थानों पर बिक्री के लिए रखें, क्योंकि तब बाहर से कई लोग आएँगे। तब इसकी बिक्री अच्छी हो सकती है।’ कहा जाता है कि राधाकृष्णन ने आंबेडकर को मदद न कर पाने के बारे में फोन पर बता दिया था।
“यह मौजूदा प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति द्वारा देश के पूर्व कानून मंत्री और संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के प्रति दिखाए गए विनय का नमूना है। आंबेडकर को यह सुझाव दिया गया कि वे एक स्टॉल लगाएँ, प्रतियाँ बेचें और लागत निकालें।” (यू.आर.एल.59)
क्या वे आंबेडकर के महान् कार्यों के लिए कुछ हजार रुपयों की व्यवस्था नहीं कर सकते थे—वह भी तब, जब सरकार नेहरू और गांधी के ऐसे छोटे-मोटे कामों पर लाखों रुपए खर्च कर सकती है, जो उनके मुकाबले बहुत हलके थे।
जब तक नेहरू राजवंश सत्ता में रहा, राजधानी स्थित आंबेडकर स्मारक बेहाल ही रहा। 20 अगस्त, 2012 को ‘आउटलुक’ पत्रिका में प्रकाशित एक लेख ‘ए फॉल इनटू सियर ऐंड येलो लीफ’ में नेहा भट्ट लिखती हैं—“नई दिल्ली के आलीशान इलाके सिविल लाइंस के पड़ोस में स्थित 26, अलीपुर रोड का उजड़ा मैदान इस इमारत की समग्र उपेक्षा का जीता-जागता सबूत है। इस बात का यकीन करना बेहद मुश्किल है कि यही डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक है, जहाँ पर उस व्यक्ति ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष बिताए और अंतिम साँस ली। यहाँ की आगंतुक-पुस्तिका दीवारों से अधिक स्थिति का बखान करती है। यहाँ आने वाले आगंतुकों की संख्या न के बराबर है, जिनमें से अधिकांश महाराष्ट्र, हरियाणा और गुजरात से आते हैं। इस स्थान को सिर्फ एक बेहतर स्मारक बनाने की आवश्यकता ही नहीं है, बल्कि पंखों, लाइट और कुछ वायु-संचार की आवश्यकता भी है।” (यू.आर.एल.59)