भाग 3: "जब वो दोबारा पास आया..."
🌷✨"कभी-कभी रास्ते वही रहते हैं,
पर नज़रे तलाशती हैं वो जो अब वहाँ नहीं होते।"🌷✨
कुछ मुलाक़ातें वक़्त तय नहीं करता,
बस दिल की किसी पुरानी खिड़की से दाखिल हो जाती हैं।
आर्ट एग्ज़िबिशन के बाद ज़िंदगी फिर अपनी रफ्तार में लौट गई।
कॉलेज, असाइनमेंट्स, दोस्त, ज़िम्मेदारियाँ…
सब कुछ पहले जैसा ही था,
बस अब एक नाम बार-बार ख्यालों में गूंजता था — पेमा तेन्ज़िन।
वो लड़का जो कभी बोल नहीं पाया,
अब अपनी कला से कह रहा था सब कुछ—बिना रुके।
कई हफ्ते बीत गए।
फिर एक दिन, फोन पर एक मैसेज आया—
"कल मेरे दूसरे एग्ज़िबिशन की ओपनिंग है, आओगी?"
लड़की मुस्कुराई।
दिल ने कहा—अबकी बार सिर्फ़ देखने नहीं, समझने जाओ।
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एग्ज़िबिशन
वो गैलरी, रोशनी से भरी हुई थी,
लेकिन उसके लिए सबसे चमकदार चीज़ थी वो कैनवस,
जिस पर लिखा था—
"The Girl On The Bicycle"
—Inspired by a real memory.
उसने देखा—तस्वीर में वही लड़की थी,
पाँचवीं कक्षा वाली दो चोटियों वाली मासूम सी लड़की,
और पीछे…
इस बार कोई परछाई नहीं थी।
इस बार, वो लड़का उसके साथ था—सामने, साथ चलते हुए।
रंगों से बना रिश्ता… जो अब सिर्फ याद नहीं,
बल्कि इज़हार था।
पेमा तेन्ज़िन पीछे से आकर खड़ा हो गया,
"अब डर नहीं लगता कुछ कहने से..." उसने धीरे से कहा।
लड़की ने उसकी ओर देखा,
"और मुझे अब समझ आता है वो चुप्पी... कितनी ऊँची आवाज़ थी।"
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अब वो मुलाक़ातें अक्सर होने लगीं।
कभी कॉफी पर, कभी किसी आर्ट गैलरी में,
तो कभी बस पैदल चलते हुए—बिना कुछ कहे।
वो अब भी बहुत नहीं बोलता था।
पर उसकी आँखें अब सवाल नहीं करती थीं,
बल्कि जवाब देती थीं।
लड़की ने एक दिन मज़ाक में कहा—
“तब बोलते तो शायद 5वीं में ही फ्रेंड बन जाते!”😂
वो हँसा,
“तुम उस वक्त मुझे बस होमवर्क वाला लड़का समझती।”
“हां... और तुम मुझे बस चोटी वाली।🫣
अब देखो, तुमने मेरी ही तस्वीर बना डाली।”
✨🌷पल भर ठहर जाओ
दिल ये सँभल जाए
कैसे तुम्हें रोका करूँ
मेरी तरफ़ आता हर ग़म फिसल जाए
आँखों में तुम्हें भर लूँ
बिन बोले बातें तुमसे करूँ, गर तुम साथ हो…
अगर तुम साथ हो।🌷✨
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🌙✨अधूरी याद से अधूरी मोहब्बत तक...✨✨
कभी-कभी ज़िंदगी हमें देर से जवाब देती है,
पर जब देती है—वो सच्चा होता है।
उनकी कहानी अब भी पूरी नहीं थी,
पर अब वो कहानी एक पन्ने पर नहीं,
बल्कि एक कैनवस पर साथ-साथ बन रही थी।
🌸 कविता: “वो चुप्प सा लड़का और मैं...” 🌸
वो चुप्प-सा लड़का, कोने में बैठा,
नज़रों से कुछ बोले, पर मुँह से न कहता।
मैं हँसी में लिपटी, शरारत की बूँद,
वो मौन का दरिया, मैं ख्वाबों की धूप।
ना उसने कुछ माँगा, ना मैंने दिया,
पर आँखों में जैसे, कोई रिश्ता सिया।
वर्षों बाद जब उसकी पेंटिंग में खुद को देखा,
दिल धड़क गया... ये क्या लेखा?
बचपन की वो तस्वीर, साइकिल पे सवार,
और पीछे नहीं—साथ में था प्यार।
अब वो कहता है धीरे से—
"अब डर नहीं लगता, बोलने से..."
और मैं सोचती हूँ—
"काश वो डर पहले टूटता..."
पर शायद कहानी को वक्त चाहिए था,
रंगों में डूबने को अर्थ चाहिए था।
अब जब वो हाथ पकड़ कर चलता है,
तो मेरी सारी खामोशियाँ बहल जाती हैं।
कॉफी की कप में बातों की मिठास है,
गैलरी की दीवारों में अब साथ का अहसास है।
ना रोज़ गुलाब, ना शायरी के खत,
बस उसकी मौन मुस्कान, और मेरा हल्का-सा हँस पड़ना।
मैं कहती— "अब तो बोल भी लिया करो!"
वो मुस्कुराकर कहे— "तुम सुन लेती हो बिना कहे ही, और कितना बोलूँ?"
तो मैं छेड़ देती— "तभी तो अब तक सिंगल थे!" 😂
वो हँसता— "और तुम? तुम्हारी भी तो ‘बक-बक’ कोई सह नहीं पाया!"
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✨💛
कभी-कभी शब्दों की ज़रूरत नहीं होती,
अगर नज़रों ने कसम खाई हो साथ निभाने की।
कभी-कभी हँसी ही मुकम्मल इज़हार होती है,
जब
बचपन की मासूम दोस्ती, प्यार हो जाती है।
💛✨
©Diksha
जारी(...)
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—लेखिका: Diksha